धर्मसंकट
कहानी
"अम्मी,ये हिन्दू कौन होते हैं?चार वर्षीय रहमान नें पूछा।
"शहजादे,हिन्दू हमारी दुश्मन कौम है,बहुत बुरे लोग होते हैं।"खाना बनाती आबिदा नें कहा।
"पर अम्मी इनका पता कैसे चलता है,क्या इनके बड़े बड़े दांत और लाल आँखें होती हैं,जैसी आप कहानियों में सुनाती हो!"रहमान की जिज्ञासा शांत नहीं हो रही थी।
"नहीं बेटा,ये हमारी तरह ही दिखते हैं,पर इनकी नियत बहुत ख़राब होती है,मन के काले होते हैं हिन्दू,सिर्फ अल्लाह नें ये दुनिया बनाई है।"
"मन के काले कैसे होते हैं?और अल्लाह नें दुनिया बनाई तो फिर बुरे हिन्दू क्यों बनाये!"
"ओहो रहमान,आप तो बस सवाल पे सवाल! जाइये आपके स्कूल का समय हो गया है।"पास ही खड़े रहमान के अब्बू नें कहा।
"क्या जरुरत थी,रहमान को ये सब बताने की?कभी तो अक्ल से काम लिया करो,अभी बच्चा है वो।"रहमान के अब्बू नें कहा।
"हुंह..बच्चा है पर कभी बड़ा भी तो होगा,अभी से जान लेगा तो सही रहेगा,हिंदुओ से जितना दूर रहेगा उतना ही अच्छा होगा उसके लिए।भूल गए! क्या हुआ था मेरे भाई का फैसलाबाद दंगों में..चीथड़े चीथड़े उड़ा दिए थे,हैवान हिन्दू दंगाइयों नें,कसाई कहीं के!अंतिम अलविदा भी नहीं कह पाए थे हम।"बीते दिनों की याद नें आबिदा के ज़ख्म हरे कर दिए थे।
"लेकिन आबिदा,क्या एक बच्चे में मन में जहर घोलना ठीक होगा? वो जो कुछ भी हुआ उसका अफ़सोस मुझे भी है,तुम्हारा भाई मेरा भी कुछ लगता था,इन्हीं हाथों से उसकी आधी अधूरी लाश दफनाई थी! लेकिन,मैं ये भी मानता हूँ कि भीड़ की कोई शक़्ल, कोई ईमान या धर्म नहीं होता..भीड़ चंद जमा लोगों का सामूहिक आक्रोश होता है।उन दंगो में जितने मुसलमान मरे,उससे कहीं ज्यादा हिन्दू भी मरे थे।मैं नहीं चाहता कि कल को हमारी औलाद,हमारा ज़िगर का टुकड़ा,उसी बेशक्ल,बेअक्ल भीड़ का हिस्सा बनें।मैं उसे इन सब चीजों से दूर रखना चाहता हूँ,अच्छी तालीम देना चाहता हूँ।"अब्बू नें कहा।
"अल्लाह के लिए बस कीजिये हिंदुओं की पैरवी करना,नफ़रत हैं मुझे उनसे और मरते दम तक रहेगी,अगर मेरे भाई की जगह आपका भाई होता तो क्या आप तब भी यही कहते!"आबिदा तिलमिला उठी।
"आबिदा तुम भूल रही हो...याद है आज से पांच साल पहले रमजान के महीने में मेरे अब्बा जान गुजर गए थे !दरअसल वो भी दंगों के ही शिकार थे,उस रोज नमाज पढ़कर वो घर लौट ही रहे थे कि तभी नुक्कड़ पर दंगाई मिल गए,और देखते ही देखते उन्होंने....।"कहते हुए रहमान के अब्बू की आँखें भर आयी।"तुम गलत समझ रही हो।भला मैं हिंदुओं की पैरवी क्यों करूँगा!मैं तो बस इस नफरत के खिलाफ हूँ।"रुंधे गले से आसिफ़ कहने लगे।
आसिफ़ ,रहमान के अब्बू एक सरकारी स्कूल में शिक्षक के पद पर कार्यरत थे।बहुत ही नेकदिल और सुलझे विचारों वाले आसिफ़ नें भी दंगों में अपने अब्बा को खो दिया था,लेकिन फिर भी वो हक़ीक़त से ताल्लुक रखने वाले ऐसे इंसान थे जिनके लिए इंसानियत मज़हब से भी ऊपर थी।
दंगों में बहुत से लोगों की तरह आबिदा नें भी किसी अपने को खोया था,जिसके घाव अभी तक उसके जेहन में जिन्दा थे।
"अम्मी,अम्मी,अम्मी....पता है आज स्कूल में क्या हुआ!"बैग और टिफिन को बिस्तर पर फेंकते हुए रहमान बोला।
"हम्म आज भी तुम्हारा दोस्त टिफ़िन खा गया?"
"नहीं,अम्मी! वो तो रोज़ खा जाता है मेरे पीछे से,आप बनाती ही इतना अच्छा हो,पर आज मेरी एक बहुत अच्छी दोस्त बनी है।"
"अच्छा?"
"उसने अपना टिफ़िन मेरे साथ शेयर किया,और मुझे अपने कलर्स भी दिए,और और मुझे अपनी ड्राइंग बुक भी दी,अम्मी उसके पास बहुत अच्छी अच्छी स्टोरी बुक भी हैं,परी और राजकुमार की कहानियों वाली बुक,उसने कहा है वो मुझे कल लाकर देगी।"रहमान बिना ब्रेक की गाड़ी की तरह बोलता जा रहा था।
"अच्छा ! नाम क्या है आपकी नई दोस्त का?"
"हम्म...नाम...उसका नाम अंकिता है अम्मी।"सर खुजाते हुए रहमान बोला।
"ओह, हिन्दू है..!"आबिदा के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगी।
"पता नहीं अम्मी,ये तो पूछा ही नहीं मैंने!पर अम्मीजान वो बहुत सुंदर है,उसकी भी राबिया दीदी जैसी दो चोटियां हैं।और रंग भी गोरा है आपके जैसा।अगर हिन्दू होती तो बुरी होती न! उसका मन भी काला होता,पर वो तो ऊपर से नीचे तक पूरी सफ़ेद है,बिल्कुल राबिया दीदी जैसी।"
आबिदा के दिलोदिमाग में हलचल सी मच गई,अचानक से ही वो रहमान पर भड़क उठी।
"कोई जरूरत नहीं है उस लड़की से बात करने की,और ख़बरदार जो कभी उसका खाना खाया या कोई चीज शेयर की!"
नन्हा रहमान कुछ समझ पाता उससे पहले ही आबिदा नें उसे खींचकर कसकर गले से लगा लिया।
पता नहीं क्यूँ इंसान जैसे जैसे बड़ा होता जाता है उसके दुराग्रह ,उसकी शंकाओं का घेरा भी बड़ा होता जाता है।बचपन सुबह पत्तों पर छाई ओस की बूंदों सा एकदम मासूम,पवित्र,शीशे सा चमकता हुआ होता है...लेकिन कब परिपक्वता का सूरज अपनी दृष्टि डालता है और वो मासूम ओस कब हवा में अदृश्य हो जाती है,कोई नहीं जानता!बच्चों से बहुत सी बातें सीखी जा सकती हैं लेकिन हमारी 'परिपक्व' सोच हम पर हावी होने लगती है।
खैर, सब कुछ अच्छा चल ही रहा था कि एक दिन वह हो गया जिसकी किसी नें कल्पना भी न की थी।
अस्पताल के मैनेजमेंट विभाग से एक जरुरी फोन आया,और रहमान के अम्मी अब्बू को तुरंत वहाँ पहुँचने का निर्देश दिया गया।
जब वहाँ पहुंचे तो एक और परिवार वहाँ मौजूद था।देखने से हिन्दू परिवार लग रहा था।माता पिता के अलावा रहमान का हमउम्र एक और बच्चा अपनी माँ से चिपका हुआ था।
"साहब आप पूरी जांच पड़ताल कीजिये।हमें विश्वास है कहीं न कहीं कुछ तो गड़बड़ हुई है।" हिन्दू दंपत्ति अस्पताल के मैनेजर से निवेदन कर रहे थे।
"लीजिये ये लोग भी आ गए,अब आप दोनों आपस में ही बात कर लीजिए।"मैनेजर नें रहमान के अब्बू की तरफ इशारा किया।
"मेरा नाम रमेश अग्रवाल है,ये मेरी पत्नी शीतल और बच्चा रोहन है।मामला ये है कि चार साल पहले बाइस अक्टूबर को जन्मे बच्चों में आपका भी बच्चा है,उसी दिन मेरी पत्नी नें भी पुत्र को जन्म दिया था,पुराने रिकॉर्ड को खंगालने पर ज्ञात हुआ कि मेरी पत्नी और आपकी पत्नी उस दिन एक ही वार्ड में भर्ती थे,जिन्होंने लगभग एक ही समय पुत्रों को जन्म दिया।" रमेश नें रहमान के अब्बू से कहा।
" जी सही फ़रमाया आपने,मेरा नाम आसिफ़ है।बाइस अक्टूबर रात एक बजे हमारे रहमान का जन्म हुआ था इसी अस्पताल में।"रहमान के अब्बू नें सहमति जताई।
"तो आसिफ़ जी बात ये है कि रोहन की मौसी को रोहन के सांवले रंग को देखकर संदेह हुआ।हम दोनों पति पत्नी का रंग एकदम साफ है,लेकिन रोहन का रंग दबा हुआ है,खैर ये बिल्कुल बेतुकी बात है जिसे मैं सिरे से इंकार करता हूँ,यहाँ तक कि रोहन की मम्मी और दादी भी मौसी की बात से कोई इत्तेफाक नही रखते,हम सब रोहन से बेइंतिहा प्रेम करते हैं,हम सब की जान बसी है उसमें।अब तक उनका मानना है कि रोहन उनका अपना खून है,उन्हीं का अंश है,लेकिन एक बार इसकी मौसी की जिद में आकर हमने रोहन का डीएनए टेस्ट कराया और पता चला कि रोहन का डीएनए मुझसे मिलता ही नहीं!" रमेश अग्रवाल नें स्पष्ट करते हुए कहा।
रमेश अग्रवाल की पत्नी मासूम रहमान को बड़े ही प्यार और अपनेपन से देख रही थी।
आबिदा और आसिफ़ का मुँह खुला रह गया,आने वाली किसी अनहोनी की घटना से दोनों सहमे हुए चुपचाप सुन रहे थे।रहमान अपनी अम्मी के और नज़दीक चला गया।
"उस दिन वार्ड में तीन औरतें भर्ती थी,और हमें लगता है उस दिन बच्चे अंजाने में बदले गए हैं,अपने मन की तस्सली के लिए हमने उस परिवार से निवेदन किया बच्चे के डीएनए टेस्ट के लिए,बड़े ही भले लोग थे,मान गए,लेकिन उनके बच्चे का डीएनए भी मैच नहीं हुआ।अब बचे आप लोग...तो अगर अनुमति हो तो...।"रमेश अग्रवाल नें अपनी बात रखी।
आसिफ़ नें आबिदा की ओर देखा,वो बेहद घबराई हुई और चिंतित लग रही थी,रहमान को उसने अपने और क़रीब चिपका लिया।रहमान भी किसी हिरण के बच्चे की तरह अम्मी के आँचल में दुबक गया।
तभी आसिफ़ नें विनम्रता के साथ टेस्ट की अनुमति दे दी।ये सुनकर आबिदा विचलित हो उठी।
"ये सब गलत है,अल्लाह के लिए मेरे बच्चे को मेरे पास ही रहने दो,रहमान मेरा बच्चा है,मेरा अपना खून है।"
"आबिदा, टेस्ट ही तो है,हो जाने दो,इन्हें भी तसल्ली हो जायेगी।कुछ नहीं होगा,अल्लाह पर भरोसा रखो।"हालांकि खुद आसिफ़ मन ही मन पशोपेश में था,रहमान को खोने के डर से अंदर ही अंदर बेहद घबराया हुआ था,लेकिन किसी तरह खुद को संयत कर हिम्मत से काम ले रहा था,ताकि आबिदा की हिम्मत न टूटे।
डीएनए टेस्ट हुआ और परिणाम पॉजिटिव निकला।उस दिन तैनात दोनों नर्सों को लापरवाही के जुर्म में नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया गया।
काँपते हुए हाथों से आसिफ़ नें टेस्ट रिपोर्ट देखी।आबिदा रिपोर्ट पर यकीन करने को तैयार न थी।
",सब झूठ है,ये अस्पताल.. ये डॉक्टर..सब लोग,मैं माँ हूँ रहमान की,क्या इससे बड़ा टेस्ट कोई हो सकता है?दूध पिलाया है इसे अपना!आप कैसे कह सकते हैं रहमान मेरी औलाद नहीं!"आबिदा लगातार बड़बड़ाये जा रही थी,आसिफ आँखों ही आँखों में हिन्दू परिवार को सांत्वना दे रहे थे।
तभी अस्पताल के बरामदे से कुछ फीट की दूरी पर अचानक रोहन के रोने की आवाज़ आयी।दोनों परिवार बातचीत में इतनी गंभीरता से मग्न थे कि उन्हें अहसास ही नहीं हुआ,रोहन खेलते हुए कब वहाँ से निकल गया!
"रोहन,मेरा बेटा..लगी तो नहीं तुझे!"कहकर घबराई हुई शीतल देवी नें रोहन पर चुम्बनों की बौछार कर दी।रमेश अग्रवाल भी भागकर रोहन के पास आये और दुलारने लगे।
आसिफ़ और आबिदा भी बच्चे को सँभालने दौड़े।रोहन को दाएं पैर के घुटने में चोट लगी थी।आबिदा नें अपनी चुन्नी का एक कोना फाड़कर तुरंत रोहन के पाँव में बांधकर प्राथमिक उपचार किया।
"रमेश जी आप बताइए क्या करना चाहिए ?आबिदा को मैं समझा लूंगा,थोड़ा वक़्त लगेगा,माँ है न आखिर लेकिन धीरे धीरे समझ जायेगी।पर एक बात कहना चाहता हूँ अचानक रिश्ते नहीं बदले जा सकते।अस्पताल प्रबंधन से जो गलती हुई उसकी सजा दोनों माँओं को क्यूँ दी जाये ! हम जानते हैं रहमान की तरह आपने भी रोहन को बेपनाह प्यार दिया है,ये सब आपके लिए भी आसान नहीं होगा।" आसिफ़ नें कहा।
"जी आसिफ जी ,रोहन हम सब का दुलारा,हमारी जान बन चुका है,अब ये हमारे लिए भी संभव नहीं होगा।लेकिन हम एक काम कर सकते हैं अगर आपको मंजूर हो तो.."।रमेश नें संकोच के साथ पूछा।"क्या हम दोनों परिवार अपने बच्चों की ख़ातिर हर महीने मिल सकते हैं?इससे बच्चों को भी दोनों माँओं का प्यार मिल सकेगा।"
"अरे भाईजान! इससे नेक ख्याल भला और क्या होगा! मैं भी यही सोच रहा था।दोनों परिवार जुड़ेंगे,भाईचारा बढेगा।अल्लाह रहम करम।"
कहकर आसिफ़ और रमेश एकदूसरे से गले मिलने लगे।उन दोनों के चेहरों पर अब सुकून के भाव तैर रहे थे।
शीतल और आबिदा दोनों नें एक दूसरे को देखा और मुस्कुराई।हिंदुओं से नफ़रत करने वाली आबिदा खुद चलकर शीतल को गले लगा रही थी।खून के रिश्ते पर इंसानियत का रिश्ता भारी पड़ रहा था।वर्षों से जमा हुआ नफ़रत का कोहरा छँटने लगा था।इंसान जन्म से किसी धर्म का पहरेदार नहीं होता है,अपितु उसे बनाया जाता है,इंसान रूपी कच्ची मिट्टी को धीरे धीरे तालीम और धर्म की थपकी देकर पक्के घड़े में परिवर्तित किया जाता है।आज की इस घटना नें दोनों परिवारों को प्रेम के धागे से जोड़ दिया था।
"अम्मी जान, क्या हिन्दू सचमुच हमारे दुश्मन हैं? रहमान नें मासूमियत से वही प्रश्न दोहराया।
"नहीं बेटा, हिन्दू मुस्लिम दोनों भाई भाई हैं।"आबिदा नें उत्तर दिया।
"अम्मी,फिर काला मन किसका होता है?"
"शहजादे, काला मन बुरा सोचने वाले का होता है।"
"तो क्या अब मैं अंकिता का टिफ़िन शेयर कर सकता हूँ!"गोल गोल आँखें मटकाता हुआ रहमान बोला।
"बिल्कुल कर सकते हो,मेरी बनाई मीठी सेवइयां खिलाना कल उसे।"आबिदा नें हँसते हुए कहा।
अल्पना नागर