Sunday 7 January 2018

कहानी- विलायती बहू

कहानी
विलायती बहू

होने को तो वो पूरे पैंसठ साल की थी लेकिन चुस्त दुरुस्त इतनी कि कभी पचपन से ज्यादा की लगी ही नहीं! नाम था उसका 'धापूड़ी' देवी।हिंदी में अगर कहें तो धापूड़ी यानि संतोषी स्वभाव की महिला।खैर! वो कितनी संतोषी थी ये आगे आगे पढ़ते जाएंगे।उस ज़माने में बहुत कम उम्र में शादी हो जाती थी,फिर बच्चे,उनके बच्चे,कुल मिलाकर वो नानी और दादी,और अब पड़दादी भी बन चुकी थी।उनके पति हृदयाघात से दस वर्ष पूर्व ही परलोक सिधार गए थे,तब से धापूड़ी देवी का पूरे घर पर एकछत्र राज था।धापूड़ी देवी के कुल तीन लड़के थे,लड़की एक भी नहीं।कभी कभी तो उन्हें अपनी किस्मत पर यक़ीन नहीं होता था,जरूर पिछले जन्म में मोती दान किये होंगे उसी के परिणामस्वरूप तीन पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई!
तीनों बेटे 'आज्ञाकारी' थे,कह सकते हैं कि आज के ज़माने के श्रवण कुमार! क्या मज़ाल तीनों में से कोई भी बेटा उनकी आज्ञा का उल्लंघन करे,बहुएं भी उनकी हुंकार दूर से ही सुनकर अलर्ट हो जाया करती थी,घर की हर चीज व्यवस्थित होना उनके लिए अनिवार्य था।धापूड़ी देवी नें बेटों की शादी में खूब छक कर दान दहेज़ लिया,पूरी प्रश्नोत्तरी के साथ ठोक बजाकर बहुओं को चुना।
"घर का काम करना पड़ेगा पूरा..बोल करेगी?"
"हां मांजी"।होने वाली बहू नें सिर झुकाकर कहा।
"सुबह जल्दी उठना पड़ेगा सबके उठने से पहले,बोल उठेगी?"
"जी मांजी"
"मैं जो कहूँ वो ही तेरे लिए पत्थर की लकीर होगी...हम्म?"
"जी मांजी"
"कोई भी बात की शिकायत मायके वालों को नहीं करेगी।"
"जी,नहीं करुँगी।"
इस तरह पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद ही धापूड़ी देवी नें बहुएं चुनी।ईश्वर की मेहर से दो बेटों से खूब दहेज़ घर आया,धापूड़ी देवी का पूरा घर भर गया।गाड़ी,पैसा,सोना,लग्ज़री सामान,क्या कुछ नहीं था अब घर में।लेकिन धापूड़ी देवी को हर चीज कम ही लगती,उन्हें हमेशा यही लगता कि इससे बेहतर चीज मेरे पास होनी चाहिए।एक और विशेष बात थी जो उनके व्यक्तित्व को सबसे अलग बनाती थी,सब कुछ होते हुए भी वो निहायती कृपण स्वभाव की थी,इतनी कृपण कि ख़राब रास्ता आने पर अपनी चप्पलें भी हाथ में उठा ले,इस डर से कि कहीं चप्पलें ख़राब न हो जाये,फिर चाहे पांव ही ख़राब हो जाये! घर में काजू बादाम की गिरियां विशेष ताले लगे डिब्बों में रखे जाते,और जब त्यौहारों पर जरुरत होती,वो सोने की तरह तोल कर,गिनकर काजू निकाल कर देती।घर के अहाते में एक आम का पेड़ था, जिसपर पचासों आम लगते,जो पूरी निगरानी में एहतियात के साथ तोड़े जाते,एक एक आम गिनकर।धापूड़ी देवी दिनभर बरामदे में बैठकर पेड़ पर लगे आम की गणना करती रहती।अगर गलती से भी कोई पड़ोसी या रिश्तेदार उनसे आम मांग लेते तो उनके चेहरे पर ऐसे भाव प्रकट होते जैसे कि सामने वाले नें आम नहीं बल्कि उनकी किडनी मांग ली हो!
इसी तरह रसोई घर में भी उनका पूरा हस्तक्षेप था,घी भी पीले सोने की तरह सात तालों के भीतर रखा जाता था,वो अक्सर बहुओं को हिदायत देती नजर आती कि सबसे अंत वाली रोटी मेरे बेटों को न खिलाये,उनके अनुसार सबसे अंत वाली रोटी खाने से 'पिछली' बुद्धि आती है।ये रोटी तो बस बहुएं ही खाएंगी,वैसे भी औरतों को क्या करना है 'अगली' बुद्धि लेकर!! इस पर तो सदियों से सिर्फ और सिर्फ आदमियों का विशेषाधिकार है! खैर उनकी ये हिदायत उनके रसोई से बाहर जाते ही कूड़ेदान में दाल दी जाती।मंझली बहू थोड़ी ज्यादा पढ़ी लिखी थी,वो अपनी 'अगली' बुद्धि का इस्तेमाल कर चुपके से जानबूझकर 'पिछली' रोटी अपनी सास यानि धापूड़ी देवी को ही खिलाती!
लेकिन ऐसी बात नहीं है कि धापूड़ी देवी हर बात में कंजूस हो।उन्हें एक चीज का बहुत शौक था,वो था सोने के गहने बनवाने का।किसी भी अवसर विशेष पर वो ऊपर से लेकर नीचे तक सोने के गहनों में रहना पसंद करती,शादी ब्याह के अवसरों पर सोने के गहने पहनकर इठलाती हुई जब वो शान के साथ निकलती तो कइयों के दिलों से धुंआ निकलता दिखाई देता!और फिर दिखाई देती उनके चेहरे पर विजयी मुस्कान।
अब उन्हें इंतज़ार था अपने सबसे छोटे नवाबजादे की शादी का।छोटा बेटा ढलती उम्र में ',एक्सिडेंटली' हुआ था,तो कहानी कुछ यूँ है कि धापूड़ी देवी उस दिन अपनी नई नवेली बड़की बहु के साथ करवाचौथ का उत्सव मना रही थी,तो बड़की बहू नें अपनी सास यानि धापूड़ी देवी का शौक शौक में नखशिख श्रृंगार कर दिया।हमेशा सादी बेरंग सी रहने वाली धापूड़ी देवी उस रोज किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थी! और बस यहीं फिसल गए उनके प्राणनाथ मोहिनी रूप पर और नवें महीने ही घर में पोते के साथ साथ छोटे नवाब भी आ गए,इधर बड़की बहू को पुत्र रत्न मिला और उधर धापूड़ी देवी को तियालीस वर्ष की उम्र में एक और रत्न की प्राप्ति हुई ! खैर,कुछ दिन शर्म महसूस हुई लेकिन था तो वो पुत्र ही..इसलिए मन ही मन लड्डू भी बन रहे थे। सबसे छोटा बेटा उन्हें सबसे प्रिय था,छोटे बेटे की शक्ल हूबहू अपने पिता से मिलती थी,शायद ये कारण भी हो उनके विशेष लाड दुलार का।छोटे नवाब की हर ख्वाहिश ,हर फरमाइश पूरी की जाती।लाड प्यार नें नवाब को बहुत जिद्दी बना दिया था।
सबसे बड़े वाले बेटे का बेटा यानि धापूड़ी देवी का पड़पोता भी इक्कीस साल का होते होते परिणय सूत्र में बाँध दिया गया, और फिर बाइस वर्ष की उम्र में 'खुशखबरी' भी सुना दी।लेकिन हाय री किस्मत! हमेशा लड़का पैदा होने की परंपरा आख़िरकार टूट गई,इस बार पड़पोते की बहू को लड़की हुई।धापूड़ी देवी को मानो काटो तो खून नहीं!दुधमुंही बच्ची को अभी नजऱ भर देखा भी नहीं कि घोर चिंता में पड़ गई,अबकि बार तो दान दहेज़ देना पड़ेगा,यही सोच सोच कर धापूड़ी देवी का लगभग तीन -चार किलो वज़न कम हो गया!सारे घर में नन्ही की किलकारियां गूंजती रहती लेकिन धापूड़ी देवी को वो शोर शराबा सुनाई पड़ता,कभी गोद में उठाकर दुलार भी नहीं किया।
मंझली बहू को पिछले कई सालों से कोई संतान नहीं थी।महीने के पंद्रह दिन उपवास में जाते,उसपर झाड़फूंक,टोने टोटके न जाने क्या क्या..लेकिन मामला जैसे का तैसा! बस यही दुःख धापूड़ी देवी को खाये जा रहा था कि मंझले बेटे को कोई संतान नहीं..और बड़के बेटे के बेटे को संतान भी हुई तो वो भी लड़की !अब धापूड़ी देवी की सारी उम्मीदें अपने सबसे छोटे बेटे पर जा टिकी।
छोटा बेटा पढ़ने में कुशाग्र बुद्धि था,ये देख देखकर धापूड़ी देवी मन ही मन हर्षित होती।लेकिन वो इसके 'साइड इफेक्ट' यानि आने वाले खतरे से अंजान थी। छोटे नवाब को आगे की पढाई के लिए विलायत जाना था,हालांकि धापूड़ी देवी अपने कलेजे के टुकड़े को अपने से दूर भेजने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी,निश्चित रूप से उन्होंने इसका विरोध किया।लेकिन छोटे नवाब की जिद नें धापूड़ी देवी की एक नहीं चलने दी।एक यही बेटा था,जिसकी बात वो पूरे मनोयोग से सुनती थी और मानती भी थी,बाकि दोनों बेटों को जिद करना तो दूर सामने नजर मिलाकर बात करने में भी झुरझुरी पैदा हो जाती थी।
तो कहानी कुछ यूँ आगे बढ़ती है,छोटे नवाब विलायत में गए तो थे पढ़ाई करने लेकिन वहाँ कुछ और ही कर बैठे! वहीं की एक विलायती लड़की से शादी कर ली और अगले साल तक 'डैडी' भी बन गए।बेटा हुआ था,इसलिए एक बार घर जाकर प्यारी माँ का आशीर्वाद लेना तो बिल्कुल बनता था।
इधर धापूड़ी देवी नें छोटे बेटे की शादी के न जाने कितने अरमान संजो लिए थे,चूंकि ये आखिरी शादी थी इसलिए सभी में उत्साह भी जबरदस्त था।धापूड़ी देवी नें दौड़ भाग कर सुनार से पचास तोले तक सोने के गहने भी बनवा लिए थे।और हां,छोटे नवाब साहब के लिए एक सलोनी सी दुल्हन भी ढूंढ ली गई थी।साथ ही लेन देन, मोल भाव, दान दहेज़ सब कुछ सुनिश्चित कर लिया था।शहर के नामी सेठ की बेटी थी,सेठ विलायत पढ़े दामाद के लिए सेवन सीटर बड़ी वाली लग्ज़री कार,एक बंगला,जमीन जायदाद का हिस्सा,और अस्सी तोला सोना देने को तैयार था।धापूड़ी देवी रिश्तेदारों में एक बार फिर धमाके के साथ अपनी धाक ज़माने के सपने भी देख चुकी थी!सही है,धमाका तो होगा,जरूर होगा!
आज धापूड़ी देवी को पहली बार अपने छोटे नवाब की विलायत जाने की जिद पर फ़ख्र महसूस हुआ।एक बार फिर लक्ष्मी देवी छप्पर फाड़ कर बरसने वाली थी।
खैर,हम लौटते हैं छोटे नवाब और उनकी विलायती बहू की ओर।नवाब साहब और उनकी विलायती बहू भारत आ चुके थे।दरवाज़े पर उनका छोटा बेटा खड़ा था,साथ ही खड़ी थी एक गोरी चिट्टी विलायती मैम, जिसने जींस पर बड़े ही बेढंगे तरीके से साड़ी लपेटी हुई थी।गोरी मैम नें अपने सीने पर एक गोर चिट्टे बच्चे को बांधा हुआ था।छोटे नवाब नें विलायती मेम को धीरे से कोहनी मारी,और मेमसाहिब नें तुरंत खुद को सँभालते हुए सर पर पल्लू रखा।एक बार फिर छोटे नवाब की कोहनी चली और विलायती मैम नें 'ओह यस' कहते हुए धापूड़ी देवी के पाँव छुए।
"ये कौन है ,छोरा??" धापूड़ी देवी का खुला मुँह बंद होना भूल गया था।
"माँ,ये आपकी सबसे छोटी बहू,मेरी पत्नी।"छोटे नवाब नें मुस्कुराते हुए कहा।
धापूड़ी देवी को जैसे कोबरा साँप आकर सूंघ गया,उन्होंने बार बार अपनी आँखें मली, लेकिन ये कोई बुरा सपना नहीं हक़ीक़त थी।वो बस बेहोश होते होते बची।अस्सी तोला सोना,बड़ी गाड़ी,जमीन जायदाद,बंगला सब सपने एक एक कर उसके सामने उसकी देहरी पर चूर चूर होते नजर आ रहे थे!
छोटे नवाब नें बुत बनी माँ को थोड़ा साइड में किया और विलायती बहू के साथ अंदर प्रवेश किया।
बड़की और मंझली बहू कनखियों से विलायती बहू को देख रही थी।पड़पोते की बहू भी आँखे फाड़ कर सदी की इस चौंकाने वाली घटना का 'लाइव' शो देख रही थी।"ये क्या..बड़ी मम्मी जी की सल्तनत में ऐसा खुलेआम विद्रोह,अब यहाँ बिरादरी के बाहर ही नहीं,समंदर पार परदेस की बहू आएगी!!"
धापूड़ी देवी नें अपने सबसे प्रिय पुत्र से इस घोर अनर्थ की कल्पना भी नहीं की थी! अब रिश्तेदारों में क्या शान रह जायेगी,न तो ये समाज की,न बिरादरी की,न अपने देश की..ऊपर से कोई दान दहेज़ नहीं..मामला एकदम ठनठन गोपाल !
अब घर में अजीब सी जंग छिड़ गई,शीतयुद्ध जैसी।सबकुछ जैसे बर्फ हो चुका था,संवाद लागभग ख़त्म।
"छोटू नें मान मर्यादा सब कुछ ताक पर रख दिया,एक बार भी मेरा ख़्याल नहीं आया।"सर पकड़कर बैठी धापूड़ी देवी के मन ही मन रोज तूफान चलते रहते।
इधर विलायती बहू को देखने पड़ोसी और रिश्तेदारों का हुजूम सा लग गया।सब कोई न कोई बहाना बना उसे देखने आते।
विलायती बहू की टूटी फूटी हिंदी सुनकर घर की तीनों बहुएं मन ही मन खूब खुश होती।अपनी सास के सामने 'नंबर' बनाने का ये सुनहरा मौका था।
विलायती बहू से पैदा हुआ बेटा घर भर में किलकारियां मारता,धीरे धीरे अपने घुटनों के बल चलकर घूमता रहता।वो दिखने में इतना प्यारा था कि धापूड़ी देवी भी बहुत दिन तक खुद को रोक नहीं पाई।कहते हैं मूल से ज्यादा सूद प्यारा होता है,और फिर अगर 'सूद' लड़का हो तो फिर कहना ही क्या!! धापूड़ी देवी रोज अपने पोते को छुप छुप कर किसी न किसी बहाने से देखती रहती,मन ही मन उसकी बलैया लेती।एक रोज आँगन में खेलते हुए पोते नें यूँ ही धापूड़ी देवी का पल्ला पकड़ लिया,बस फिर क्या था,जमी हुई बर्फ़ अपने पोते पर आकर पिघल गई,धापूड़ी देवी नें आंव देखा न तांव..पोते को गोद में उठाया और बीसियों चुम्बन एकसाथ चिपका डाले उसके गोरे मुख पर।और फिर चुपचाप अपने पोते की नज़र उतारने लगी।
इस अद्भुत नज़ारे की साक्षी उनकी तीनों बहुएं थी,जो ये देखकर तुरंत जलकर ख़ाक हो गई, हालांकि मन तो उनका भी करता था बच्चे को खिलाने का,लेकिन मामला यहाँ 'नंबर' बनाने का भी था!
इधर विलायती बहू भी एड़ी चोटी का जोर लगाकर हिंदी बोलना सीख रही थी,भारतीय रसोई बनाने का प्रयास भी करती।नीली आँखों और सुनहरे बालों वाली लंबी चौड़ी अप्सरा जैसी बहू को देखकर धापूड़ी देवी का मन भी अब शांत होने लगा था।बाहर से कोई रिश्तेदार या सगा संबंधी धापूड़ी देवी के घर आता तो विलायती बहू दौड़कर उसके पाँव छूने आती।सारा सत्कार वैसे ही करती जैसा धापूड़ी देवी अपनी बहू से उम्मीद करती।किसी भी फंक्शन में विलायती बहू के संस्कार देखकर तारीफ़ ही सुनने को मिलती।
"अजी, आजकल बहुएं कहाँ इतनी संस्कारी होती हैं ! न सर पर पल्लू न मान सम्मान..और आपकी छोटी बहू विलायती होकर भी पूरे संस्कार निभा रही है,बहुत भाग्यशाली हैं आप धापूड़ी जी।"सुनकर धापूड़ी देवी का दिल बल्लियों उछलने लगता लेकिन वो कभी अपनी खुशी प्रदर्शित नहीं करती।
सारी दुर्भावनाएं अब गायब होने लगी थी।वैसे भी शरीर से हाथ कब तक अलग रह सकता है!
एक रोज रसोई घर में विलायती बहू जब चपातियां बनाने का प्रयास कर रही थी,धापूड़ी देवी आयीं और बड़े प्रेम से विलायती बहू का हाथ अपने हाथ में लेकर चपाती बेलना सिखाया।बाहर आंगन में खड़ी बहुएं एक दूसरे को कोहनी मारती रही!
"बहू, मैं सोच रही हूँ अभी पोते का नामकरण संस्कार और मुंडन कुछ नहीं हुआ,इस महीने की दस तारीख़ कैसी रहेगी?"थोड़ा नरम पड़ते हुए धापूड़ी देवी नें पूछा।
"मैनजी...मैं नहीं समझा..नामकर...मुंधन.."।अपनी टूटी फूटी हिंदी में विलायती बहू नें कहा।नामकरण और मुंडन जैसे भारतीय रीतीरिवाज अभी उसकी डिक्शनरी से बाहर ही थे।अचानक हुए इस परिवर्तन से वो हैरान जरूर थी।
"कुछ नहीं बहू, मैं छोटू से बात करती हूँ"।धापूड़ी देवी नें हँसते हुए कहा।
छोटे नवाब नें जो रसोई की खिड़की से सारा नज़ारा देख रहे थे,जमी हुई बर्फ को पिघलते हुए देख सुकून की साँस ली।! अब धापूड़ी
देवी की कमर के एक तरफ पड़पोती,और दूसरी तरफ विलायती पोता लटका नजर आता।वो दोनों बच्चों पर समान प्रेम लुटाने वाली देवी बन चुकी थी!और इस तरह धापूड़ी देवी सच्चे मायनों में 'धापूड़ी' यानी संतोषी स्वभाव वाली स्त्री बन गई!

अल्पना नागर

1 comment:

  1. Waaaah...youn pratit hota hai jaise hum bahot salon pahele jab hamari nani ma hamien kahani sunaya karti thi...bas wahan chale gaye...adbhut srujan!

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