Saturday 31 October 2020

चाँद की बातें

 चाँद की बातें


धूल धक्कड़ और धुंध के इस दौर में

जबकि आधी दुनिया

लपेट कर घूम रही है

बेरुखी का आवरण/

तुम उतर आये जमीन पर

किसी नाविक की तरह

धुंध की नदी को चीरते हुए

चांदनी की खीर हाथों में लिए

फीके मन को मीठा करने..!

कल शरद पूर्णिमा थी

मेरी जुबां पर ठहर गई है

वही तुम्हारी

मद्धिम मिठास !


कल देखा 

आसमां में आधे थे तुम

आधे बह रहे थे जमीन पर !

तुम्हारी दूधिया झिलमिल रोशनी में

प्रेम की लहरें कर रही थी नर्तन

कितना अलौकिक !

तुम हर तरफ से झाँक रहे थे

खिड़कियों से..पत्तों की ओट से,

बंद दरवाजे की दरारों से/

हर चेहरे पर खिला था बस

तुम्हारा प्रतिबिम्ब !


कमाल है मगर !

तुम्हारे मद्धिम प्रकाश में

सुनाई दे रही थी

मृत त्वचा के नीचे सांस लेती

नीली नसों की जिंदा धड़कनें/


मन की सीली सीढ़ियों पर 

गीले पाँव

चढ़ते उतरते तुम

रात की अंधेरी बावड़ी में

देर तक पैर लटकाए

मना रहे थे

अपने होने का उत्सव/


ये सच है

बेइंतहा रोशनी लेकर आती है

चौंधियाता अँधेरा !

भयंकर रोशनी के इस दौर में मगर

मुझे तलब होती है

बित्ति भर रोशनी की

बस उतनी ही

चांदनी जितनी..!


-अल्पना नागर




Monday 19 October 2020

प्रवासी यात्रा

 *प्रवासी यात्रा*

*विधा- छंदमुक्त*


प्रवासी यात्रा


आसान न था इस बार

पुनः स्थापित होना

चैत्र से अब तक की दूरी

अनंत मीलों को समेटे हुए थी/

शीशे की दीवारों से झाँकते 

तुम सुरक्षित लोग

मुझे देख रहे थे 

स्वयं को विसर्जित होते..


एक नदी उमड़ी थी

आँखों के कोर से

मन के तटबंधों को तोड़

मुझे समूचा समाहित करने को/

तुम्हारे चारों ओर

सुरक्षा के ठोस इंतज़ामात के बाद

मुझे डूबना था !

और यक़ीनन मैं डूब गई

असुरक्षा के अथाह समंदर में/

अनेकानेक अदृश्य हाथों नें

धकेला था मुझे..!


एक बार पुनः मेरे समक्ष हैं

करबद्ध समूह और

सजी हुई चौकी..

मन खिन्न है/

आपादमस्तक उद्विग्न है

पर..माँ हूँ न !

ठोस अस्तित्व और

संतति के भार को

कछुए की तरह

ढोती आयी हूँ/

हर बार दौड़ी चली आयी हूँ,


बस एक निवेदन है

इस बार मत देखना मेरे तलवे

कंजक भोज के समय/

कि महावर की जगह

रक्त बहता दिखेगा !

मत ओढ़ाना मुझे

गोटे लगी लाल चुनरी/

कि मेरी झुलसी आत्मा को

ये ढक नहीं पाएगी..


मुझे भय है

तलवों पर चिपकी

दुत्कार की पिघली डामर

और सदी जितने प्रवासी ज़ख्म

तुम्हारे हाथ मैले कर देंगे

इतने मैले कि

नहीं ठीक कर पायेगा

मंहगे से महंगा 

सेनेटाइजर भी..

-अल्पना नागर

Friday 16 October 2020

थका हुआ दिन

 थका हुआ दिन


थका हुआ दिन 

आँखें मूंदे

पीठ करके बैठा है

पश्चिम की नौका पर

किसी अंजान नाविक के भरोसे/

पनीला आसमान 

छिड़कता है चंद बूँदें

शरारत की

दिन के क्लांत चेहरे पर/


उनींदा दिन मुस्कुराता है

और घुलने लगता है

पनीले आसमान में सिंदूरी रंग

दिन के कपोल से छूटकर..

थोड़ी और फैल जाती है

सूरज की बिंदी 

आसमान के शुभ्र ललाट पर/


ये जानते हुए भी कि

पश्चिम की नौका

डूबा देगी उसे अंततः

किसी अंधेर गुफा में/

वो चुनता है भरोसा 

उसी अदृश्य नाविक पर!


अंधेर गुफा

जहाँ एक एक कर इक्कट्ठे होते हैं

अधूरी इच्छाओं के टूटते तारे

प्रार्थनाओं के जुगनू

आस्थाएं और

चमकीले शब्द/

गुफा की छत पर

उल्टे टंगे होते हैं

किसी चमगादड़ की तरह


इस सबके बावजूद

थका हुआ दिन

जारी रखता है अपनी

एकांत यात्रा/

वो तोड़ता है गुफा से चिपके 

टूटे हुए तारे..

प्रार्थनाएं..

आस्थाएं..

एक एक कर भरता है

अपनी नौका में/

न जाने क्यों 

ठीक उसी वक्त बेनूर नौका

जगमगा उठती है..

निशा के अंतिम छोर पर

बिखरा होता है

दूधिया उजाला/


थका हुआ दिन 

अब नहीं है थका हुआ

वो लगाता है डुबकी 

समर्पण की झील में..

अर्घ्य देता है

नए जीवन को

हर सुबह/

वो दोहराता है

यही क्रम हर रोज

पश्चिम की नौका के

ठीक सामने..!


-अल्पना नागर






कहानी

 


कहानी

मम्मी कहीं चली गई


"पापा..मम्मी कहीं चली गई है..!"एक हड़बड़ाई मासूम आवाज नें समूचे स्टाफ का ध्यान आकर्षित किया।

पांच साल की मंटू की गोल मटोल आँखों में बूँदी के लड्डू जितने बड़े आँसू थे।

सभी हैरान परेशान अध्यापकगण मंटू के अध्यापक पिता की तरफ देखने लगे।अब बारी उन्हीं के बोलने की थी।

"क्या..मम्मी चली गई?कहाँ गई होगी,वहीं होगी घर पे ही..ठीक से देखा तुमने?अध्यापक पिता नें मंटू से पूछा।

"नहीं..सब मेरी ही गलती है।मैं खाना नहीं खाती न ठीक से इसीलिये गुस्सा होकर चली गई।मम्मी नें बोला भी था कि ऐसे ही परेशान करती रही तो एक दिन सबको छोड़ के चली जाऊंगी।"इतना कहकर मंटू दहाड़े मार मारकर रोने लगी।

स्टाफरूम में ठहाके गूंजने लगे।बेचारे अध्यापक पिता का चेहरा देखने लायक था।वो तुरन्त मंटू से बोले,"चलो बाहर,मम्मी को ढूंढने चलते हैं।"

पास की दुकान से मंटू की फेवरेट रंग बिरंगी पॉपिंस खरीदी गई।मंटू का ध्यान अब मम्मी से हटकर दुकान की चीजों पर जा चुका था।स्कूल बैग में ढेर सारी टॉफी चॉकलेट आ चुकी थी।मंटू खुश।अब मम्मी के गुम हो जाने का खास अफसोस नहीं रहा।

अध्यापक पिता सीधे अपने करीबी मित्र के घर पहुँचे।वो जानते थे मंटू की मम्मी वहीं मिलेगी।वहाँ पहुंचकर देखा मंटू की मम्मी के हाथ में बड़ा सा पुदीने के ज्यूस का गिलास था और करीबी मित्र की पत्नी के साथ गप्पे शप्पें हो रही थी।मंटू और उसके पिता को एकसाथ देख दोनों को थोड़ी हैरानी हुई।गप्पें बीच में ही कहीं अधूरी जो लटक गई थी।

"अरे आप..! अचानक..क्या हुआ सब ठीक है?"मंटू की मम्मी की आँखें विस्मय से थोड़ी और बड़ी हो गई थी।

"पूछो अपनी लाडो से..मैडम साहिबा सीधे स्कूल पहुँच गई वो भी स्टाफरूम में..पहुंचते ही क्या गजब का गॉसिप टॉपिक छोड़ के आयी है..अब देखना कितने दिन तक वो लोग मुझे अपनी किस्सागोई का हिस्सा बनाएंगे..'मम्मी कहीं चली गई पापा'..!!"अध्यापक पिता एक ही सांस में सब बोल गए।

मंटू की 'गुम' हुई मम्मी और उसकी सहेली पेट पकड़ कर हँसने लगी।अध्यापक पिता का गुस्सा सातवें आसमान पर।

"पर ये आज इतने जल्दी कैसे आ गई।अभी तो इंटरवेल भी नहीं हुआ होगा!"मंटू की मम्मी नें कलाई घड़ी देखते हुए पूछा।

दोनों माता पिता मंटू को घूरने लगे।

मंटू अचकचाकर बोली,"पापा वो आज जल्दी छुट्टी हो गई।"

"जल्दी छुट्टी..यूँ अचानक ही..कोई जयंती या खास दिन भी नहीं..!"दिमाग पर जोर डालते हुए अध्यापक पिता नें कहा।

"अजी अब छोड़िए भी..चलिए घर चलते हैं।मंटू को भूख लगी होगी।"मंटू की मम्मी नें एलान किया।पुदीने का ज्यूस आधा छूटा रह गया साथ ही गॉसिप भी।

बमुश्किल मंटू का ये पांचवा दिन था स्कूल में।पांच दिनों में क्या क्या हुआ देखते हैं..

मंटू को स्कूल भेजने के लिए राजी करना आसान न था।अध्यापक पिता नें कई दिन पहले ही उसे मनाने की तैयारियां शुरू कर दी थी।या यूँ कहिए छोटी मोटी रिश्वत मंटू मैडम को रिझाने के लिए।

मंटू नें कहा जूते चाहिए तभी स्कूल जाएगी।

शहर की सबसे अच्छी जूतों की दुकान पर उसे ले जाया गया।

रैक में रखी सभी जूतों की जोड़ी का सिंहावलोकन करने के बाद मंटू की नजर एक जोड़ी जूते पर ठहर गई।बहुत ही खूबसूरत जूते थे किसी प्रसिद्ध ब्रांड के।जूतों पर उसके फेवरेट मिनी और मिकी माउस बने हुए थे।यक़ीनन जूते शानदार थे मगर ये पूरा अंदेशा था कि दाम भी बहुत शानदार होंगे!

अध्यापक पिता की अनुभवी आँखों में खौफ के बादल तैरने लगे।सर्दी में भी माथे पर पसीने की बूँदें झलक आयी।ये उन दिनों की बात है जब अध्यापकों की तनख्वाह चार अंकों तक ही सीमित थी।और गली मोहल्ले में अध्यापक मक्खीचूस नाम से ज्यादा जाने जाते थे।खैर इतने कम वेतन में कंजूस बन जाना स्वाभाविक था।

"बेटा ये देखो..कैनवास के कितने प्यारे जूते,कितना चटख लाल रंग है..हरे फीते..वाह इससे बेहतरीन जूते कहीं नहीं होंगे।"अध्यापक पिता मंटू की नजर मिकी और मिनी वाले जूतों से हटाने का भरसक प्रयास कर रहे थे।

लेकिन मंटू को जैसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था।जिन जूतों पर उसकी निगाह अटकी पड़ी थी उसमें बने मिनी और मिकी चीख चीखकर मंटू से कह रहे थे,"प्लीज हमें घर ले चलो..तुम्हे दुनियाभर की सैर कराएंगे।"

मंटू नें एलान कर दिया।जूता अगर चाहिए तो बस यही वरना कोई नहीं..वो सीधे दुकान की जमीन पर धरना डाल के बैठ गई।

अध्यापक पिता की जुबान पे ताला लग गया था पर फिर भी पूछना तो था ही।दबी जुबान से जूते के दाम पूछे।

"सौ रुपया मात्र!" मौके की नजाकत पर चौका मारते दुकानदार नें कहा।

"क्या !!! सौ रुपया..? इतने में तो कई जोड़ी जूते आ जाएंगे।बच्ची ही तो है।सही सही लगाओ दाम।"माथे से पसीना पोंछते अध्यापक पिता नें कहा।

हाँ,तो दूसरा पीस ले लो न..!ये लीजिए कैनवास के बढ़िया जूते मात्र चालीस रुपया।"

अध्यापक पिता कातर निगाहों से मंटू को देखने लगे कि अब कर्ता धर्ता यही है।

लेकिन मंटू तो भई मंटू है..एक बार कोई चीज पसंद आ गई तो अंगद के पांव की तरह इंच मात्र भी नहीं हिलती।

"पूरी अपनी माँ पे गई है.."।मन ही मन बड़बड़ाते हुए अध्यापक पिता नें कहा।

"ठीक है वही दे दो जो बिटिया को पसंद आ रहे हैं।"

मंटू खुश।मिनी और मिकी उससे भी ज्यादा खुश।

"और कुछ?" अध्यापक पिता नें ठंडी सांस भरते हुए पूछा।

"एक घड़ी भी.."

"क्या!!..तुझे टाइम देखना तक ठीक से नहीं आता।घड़ी का क्या करेगी।"

"पापा.. आप स्कूल जाते हो तब घड़ी पहनते हो न..?"

"हाँ.. पर मेरी बात अलग है।"

"क्यों अलग है..मैं भी तो स्कूल जाऊंगी न कल से..सोच लो स्कूल भेजना है कि नहीं..!"कनखियों से देखते हुए मंटू नें अपनी बात रखी।

खैर,दोनों घर आ गए।मंटू की नन्ही कलाई में चमकीली रंग बिरंगी प्यारी सी घड़ी थी।और अध्यापक पिता के मुँह की घड़ी बारह बजा रही थी।

मंटू के स्कूल का पहला दिन।

मंटू से कोई बात नहीं कर रहा।मंटू भी किसी से बात नहीं कर रही।

"बड़ा ही बेकार होता है ये स्कूल विस्कुल..कमरे में बिठा दिया एक जगह।उठ के खड़े हो जाओ तो टीचर की डांट सुनो।ये भी कोई बात हुई।सब मेरी घड़ी की ओर ही देखे जा रहे हैं।चोरी हो गई तो..मम्मी नें बोला था संभाल के रखना।बैग में रख लेती हूँ अंदर बंद करके।फिर कोई नहीं ले पायेगा।"

घर पहुंचकर सब मंटू से पूछे जा रहे थे।घड़ी कहाँ रखी थी।किसने ली..वगैरह वगैरह।मंटू चुपचाप सुने जा रही थी।उसे याद नहीं उसने घड़ी निकाल कर बैग में रखी या ज्योमेट्री में।कहीं नहीं मिल रही थी।

मंटू को स्कूल बेकार लगा।

दूसरे दिन मंटू नें घर आकर अपने अध्यापक पिता को प्रवचन सुना दिया।वही प्रवचन जो वो अपने टीचर से सुनकर आयी थी।

अध्यापक पिता युवा थे।नया नया सिगरेट शुरू करने का सोचा ही था।अलमारी में दो सिगरेट रखी थी जो मंटू की खुफिया नजर से बच नहीं सकी।फौरन पापा को प्रवचन दे डाला।"पापा हमारी टीचर कहती है,सिगरेट पीना बुरी बात होती है,जिनके पापा सिगरेट पीते हैं वो गंदे होते हैं।और आप तो मेरे अच्छे पापा हो न..!"

इमोशनल प्रवचन से अध्यापक पिता द्रवित हो गए।अपनी गलती का एहसास हुआ।मंटू के सामने ही सिगरेट तोड़ के फेंक दी।और कभी न पीने का प्रॉमिस भी दिया।

पता नहीं क्यों उस दिन अध्यापक पिता को मंटू पर बहुत स्नेह आया।

तीसरा दिन।

मंटू स्कूल की सीढ़ियों पर धूप में काफी देर खड़ी रही।ये सोचकर कि कोई तो अंदर आने को बोलेगा मंटू को पर किसी नें नहीं बोला।सब ऐसे गुजर रहे थे आसपास से जैसे कि मंटू दिखाई ही नहीं दे रही थी।किसी को कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था।मंटू के पांव धूप में चमक रहे थे अब उनमें जलन होनी शुरू हो गई।हारकर मंटू को खुद ही अंदर जाना पड़ा।

चौथा दिन।

मंटू को एक दोस्त मिल ही गई आख़िरकार।हुआ यूं कि नई दोस्त के पास कुछ ऐसा था कि मंटू खुद को रोक न पाई।उसने अपना 'ईगो' तोड़कर खुद से चलकर नई दोस्त से बात की।दोस्ती का प्रस्ताव भी रखा।

अब वो आयी मुद्दे पर।

मंटू की नई दोस्त के पास एक बहुत ही आकर्षक पेंसिल थी जिसके पीछे वाले हिस्से पर एक छोटा सा चेहरा बना हुआ था।बिल्कुल टीवी में दिखने वाले शकालाका बूम बूम की पेंसिल जैसा।वही पेंसिल जिससे कुछ भी बनाओ कागज पर वो हुबहू कागज से निकल हमारे सामने आ जाता है।ऐसा टीवी प्रोग्राम में दिखाते थे।

मंटू नें कन्फर्म करने के लिए पूछा,"क्या ये वही पेंसिल है..शकालाका बूम बूम वाली ?"

"और नहीं तो क्या.."नई दोस्त नें आँखें मटकाते हुए कहा।

"विद्या कसम खाओ..।"किताब में रखे बुलबुल के पंख पर हाथ रखकर मंटू नें पूछा।

"अल्ला की कसम..।"

"अरे मैं विद्या की कसम बोल रही हूँ तू अल्ला की कसम खा रही है।"

"अल्ला ही तो विद्या देता है।"

"चल ठीक है..भगवान की कसम खा फिर..।"

"बोला न अल्ला और भगवान एक ही होते हैं।"

"अच्छा !! पापा से पूछुंगी शाम को।"मंटू नें कन्फ्यूज होकर कहा।

"अच्छा सुन,आज आज के लिए मुझे अपनी ये पेंसिल देगी,मेरे को कुछ चीजें बनानी है फिर मैं तुझे वापस दे दूँगी।"

"क्या बनाएगी..?"

"कुछ नहीं..बस तू दे दे एक दिन के लिए।"

"हम्म..मेरे पास घर पे गोल्डन कलर का स्केच पैन भी है।पापा कल ही लाये थे सूरत से।तू कहे तो वो भी मैं तुझे दे सकती हूँ।"

"क्या..!गोल्डन स्केच पैन ? मैनें तो कभी नहीं देखा।प्लीज ला देना..प्लीज।"मंटू की आँखें खुशी से चमक उठी।

"हम्म पर एक शर्त है।मैं जो कहूँ वो करना पड़ेगा।"नई दोस्त नें सिक्का उछाला।

"तू जो भी कहे मैं करने को तैयार हूँ।"

"तो ठीक है।स्कूल के बाहर जो कीचड़ वाला गड्ढा है न..उसमें सात बार पांव रखना होगा।"

"ये क्या है..सात बार कीचड़ में पांव ?"

"हाँ ये एक तरह का सीक्रेट है।इसी से वो मैजिक पेंसिल काम करेगी।"

दोनों स्कूल के बाहर गड्ढे के पास खड़ी थी।मंटू गौर से कीचड़ देखे जा रही थी।फिर उसे पेंसिल याद आयी और पेंसिल से बनने वाले उसके प्यारे दादू जो तीन महीने पहले ही गुजरे थे,याद आये।उसके बाद उसने ज्यादा नहीं सोचा।सीधे कीचड़ में पांव डाला।पहली बार अजीब सी बदबूदार झनझनाहट हुई जो पूरे बदन में बिजली की तरह कौंधी।लेकिन दादू से प्रेम सच्चा था।वो एक एक कर सातों बार कीचड़ में पांव रखती गई।

अंतिम पांव रखने के बाद कीचड़ से लतपथ जब मंटू नें पेंसिल देने को पूछा तो जोर का ठहाका सुनाई दिया।

"पागल,ऐसी वैसी कोई मैजिक पेंसिल सच में थोड़े ही होती है।कितनी बड़ी वाली बुद्धू है रे तू!उल्लू बनाया बड़ा मजा आया।"गाती गुनगुनाती ठहाके लगाती नई दोस्त वहाँ से चली गई।पीछे रह गई मंटू।कीचड़ में सनी हुई।उसे अबकि बार लगा जैसे किसी नें ऊपर से नीचे तक उसे कीचड़ में नहला दिया।मंटू को अपने दादू बहुत याद आये।

पांचवा दिन।

मंटू नें दिमाग लगाया।स्कूल नाम की बला से बचने का बस यही एक उपाय रह गया।

मंटू का स्कूल घर से चंद कदम ही दूर था।लेकिन इन चंद कदमों से पहले उसकी दोस्त का घर बीच में आता था।जिसके घर के बाहर बरामदे में बनी कॉर्नर की एक छोटी सी खुफिया जगह में मंटू को एक आइडिया मिला।

"मैं अब यहीं छुप जाया करूँगी।और जब स्कूल की छुट्टी का टाइम होगा तब घर चली जाऊंगी।"

मंटू नें खुद से कहा।

मंटू नें यही किया।उस खुफिया जगह में मुश्किल से आधा घंटा बिताया होगा उसे लगा कितना ज्यादा समय हो गया अभी तक कोई बच्चा स्कूल से बाहर क्यों नहीं आ रहा!

अब मंटू के लिए रुक पाना नामुमकिन था।उसे लग रहा था इससे अच्छा तो स्कूल था यहाँ तो बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा।

और इस तरह मंटू मम्मी की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने पापा के स्कूल आयी थी।


-अल्पना नागर



Sunday 11 October 2020

कहानी- नानी

 कहानी

नानी


उनकी खूबसूरत आँखों पर अब उम्र का चश्मा लगा था।काले घेरों नें दूर तक जगह घेर ली थी।चेहरे की रौनक मुरझा गई थी।झुर्रियों नें हक़ के साथ घर बना लिया था।बड़ी देर तक मुझे निहारती रही।मिचमिची आँखों से मुझे पहचानने की कोशिश करती रही जैसे रेत में सुई ढूंढ रही हो।फिर अचानक उनके चेहरे के हावभाव बदल गए।बिस्तर के पास पड़ी अपनी छड़ी उठाकर चलने का प्रयास करने लगी।वो दौड़कर मेरे पास आना चाहती थी लेकिन पैरों नें साथ नहीं दिया।धीरे धीरे क़दम बढ़ा कर आगे आने की कोशिश में थी।मैंने अपना सामान का बैग आँगन में ही छोड़ दिया और दौड़कर उनके पास गई।पैर छुए।उन्होंने मेरा चेहरा अपने हाथों में लिया।खुरदुरे वक्त नें अपना असर उनके हाथों पर भी छोड़ दिया।मुझे उनकी वही बरसों पुरानी अपनेपन से भरी तपिश महसूस हुई।वो बहुत कुछ बोलना चाहती थी।आँखों की नमी से न जाने कितने शब्द झर रहे थे।मगर उस वक्त भावों के उफान में इतना ही बोल पाई, "मंजरी तू?इत्ते बरस बाद?"

मैंने उन्हें चारपाई पर बिठाते हुए कहा,"नहीं नानी,मैं मंजरी नहीं..कोमल हूँ..आपकी मंजरी की सबसे छोटी बेटी।"

"तू तो हूबहू मंजरी लगती है !"नानी का मुँह आश्चर्य से खुला था।

"हाँ,नानी.. सभी यही कहते हैं..कार्बन कॉपी मम्मी की।"

"इत्ती सी थी तू जब बरसों पहले यहाँ आयी थी मंजरी से चिपकी रहती थी..तब बड़ी गोलमटोल थी तू..अब तो सूख गई है मंजरी की जैसे।"

नानी छोटी सी रसोई में सामान ढूंढने लगी।सब कुछ आज भी व्यवस्थित था करीने से लगा हुआ।एक सरसरी नजर मैंने दौड़ाई।दीवारों का रंग धुँए से काला पड़ चुका था,जगह जगह पपड़ी पड़ी हुई थी।सीलन से अधिकांश प्लास्टर उतर गया था।उनपर अख़बार चिपकाया हुआ था वो भी समय के प्रभाव से काला पड़ चुका था।कभी रसोई में रौनक हुआ करती थी वो आज नानी की तरह जर्जर हाल में थी।

नानी के चेहरे से लग रहा था कुछ परेशान थी।"चाय पत्ती भी ख़तम..न चीनी है..सोचा आटे का हलवा ही बना के खिला दूँ तुझे इत्ते बरस बाद आयी है और यहाँ सामान ही ख़तम।"

"तो नानी,रिंकू मामा से बोल देती न.. ले आया करें सामान रसोई का।"मेरी एक नजर बाहर थी।घर के बाकी सदस्यों को ढूंढ रही थी।आँगन के दूसरी ओर मामा रहते थे,फ़िलहाल कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था।इससे पहले कि मैं उनके बारे में पूछती,नानी नें मुझे हाथ मुँह धोकर आने का आदेश दे डाला।

"हैं री.. तू अकेली आयी है..मंजरी क्यूँ नहीं आयी?"

नानी के हाथ में चाय का कप था।कहीं से गुड़ का इंतज़ाम कर चाय बनाई मेरे लिए।स्वाद आज भी वही था।चाय बिल्कुल नानी जैसी थी अपनेपन के स्वाद से भरी।

"ना..मम्मी नहीं आयी।आप तो जानती है न नानी..बड़े वाले मामा से झगड़े के बाद मम्मी सदमे में आ गई।चार साल पहले जब मम्मी यहाँ आयी थी तब बड़े मामा नें कसम दी थी कि कभी इस घर की देहरी नहीं चढ़े।बस तभी से.."

मैं अपनी बात पूरी कर पाती इससे पहले ही नानी का दनदनाता सवाल आया," तो क्या मैं मर गई तेरी माँ के लिए।भाई ही सब कुछ है उसका जो उसकी दी हुई बेसिरपैर की कसम खुदा हो गई?"

मैं नानी का गुस्से में लाल चेहरा देखती ही रह गई।आज से चार साल पहले मम्मी नानी से मिलने आयी थी।मैं होस्टल में थी इसलिए आना नहीं हो पाता था,ऊपर से मामा मामी का रुखा व्यवहार।मम्मी जब भी अपने मायके जाकर आती,हमेशा किसी न किसी बात पर कई दिनों तक परेशान रहती।मम्मी और मैं सहेली ज्यादा थे इसलिए अधिकतर बातें मुझसे ही साझा करती थी।मुझे याद है किस तरह पिछली बार बड़े मामा नें मम्मी से बदतमीजी की थी।संपत्ति खून के रिश्ते तक भुला देती है।

"कह देना तेरी माँ से..मेरे ऊपर जाने का इंतज़ार न करे।कम से कम एक बार तो आकर मिले।"मेरी चुप्पी को ताड़ते हुए नानी नें कहा।

"कैसी अशुभ बातें कर रही हो नानी,आप कहीं नहीं जा रही हो,अभी तो मेरी शादी भी नहीं हुई।और सबसे बड़ी बात..अभी तो आपकी माँ भी दुरुस्त हैं।अरे हां,याद आया..बड़ी नानी कैसी हैं?बहुत मन कर रहा है उनसे मिलने का।"

बड़ी नानी यानी मेरी मम्मी की नानी अभी जीवित थी।उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता था कि उन्होंने इतनी उम्र ले ली है वो भी बड़ी कुशलता के साथ।चंपा नाम था उनका।जैसा नाम था वैसी ही वो थी सचमुच बहुत सुंदर..सादगी की देवी,गुणवती स्त्री।मुझे याद है बचपन में जब उनके घर मिलने जाया करते थे एक अलग ही तरह का चाव होता था,कारण था उनका छोटा लेकिन साफ़ सुथरा घर।घर की एक एक चीज किसी संग्रहालय में रखी बेशकीमती वस्तु की तरह बड़े यत्न के साथ रखी होती थी।नानी और बड़ी नानी एक ही कस्बे में रहते थे।बड़ी नानी का घर थोड़ा दूर था लेकिन पैदल भी जाया जा सकता था,रास्ते के मोहक दृश्य,हरियाली,कस्बे वासियों का रहन सहन बरबस ही अपनी ओर खींच लेता था।बड़ी नानी का घर थोड़ी ऊँचाई पर बना हुआ था।अंदर छत पर लकड़ी की शहतीरें,मिट्टी और गोबर से लीपा पुता एकदम साफ सुथरा आँगन बड़ी नानी के घर को अलग ही पहचान देते थे।मुझे याद है हम लोग बचपन में नानी के घर से ज्यादा बड़ी नानी के घर जाने को उतावले रहते थे।केरोसिन के स्टॉव पर नानी की बनाई बड़ी बड़ी रोटियों और अचार में न जाने कैसा स्वाद था,जो एक बार खाने बैठते थे तो उठने का नाम ही नहीं लेते थे।बड़ी नानी का वो ऐतिहासिक रेडियो जिसपर वो नियत समय पर गाने और समाचार सुनती थी।उस रेडियो के लिए भी उनके मन में इतना प्यार था कि सुनहरे गोटे की सुंदर सी झालर से उसे सजाया हुआ था।सच एक एक चीज जादुई थी।वो ननिहाल की विशेष गंध जब भी स्मृति में प्रवेश करती है हर एक निर्जीव वस्तु भी महकने लगती है सजीव हो उठती है।

बड़ी नानी के एक ही संतान थी और वो थी मेरी नानी।बड़े ही नाजों से नानी को पाला पोसा गया था।कोई हिस्सेदार जो नहीं था प्यार का !बड़े नाना एक उम्र के बाद चल बसे थे,अफीम के बेतहाशा शोक की वजह से उन्हें समय से पहले ही इस दुनिया से अलविदा कहना पड़ा।बड़ी नानी के लिए अकेले समय काटना अब बेहद मुश्किल था।वो जी तो रही थी लेकिन कोई उत्साह नहीं बचा..बस जैसे तैसे समय काट रही थी।

इधर नानी के पुत्र संतान होते हुए भी वो निरीह जीवन जीने को मजबूर थी।समाज का ये पूर्वाग्रह कि पुत्र बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती उस वक्त मुझे सबसे अधिक कचोट रहा था..नानी की फटेहाल आर्थिक स्थिति..वृद्धावस्था में नितांत अकेलापन ये सब देखकर लग रहा था कि क्या सचमुच जिस पुत्र संतान की अभिलाषा में समाज इतने वर्षों से एक ही ढर्रे पर चलने को मजबूर होता है..उसे मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र द्वार समझता है जिसके समुचित लालन पालन के लिए माता पिता जीवन पर्यन्त कड़ा संघर्ष करते हैं वही पुत्र वयस्क होने पर उन सब बातों पर पानी फेर देता है !लिंग आधारित दोहरापन कठोर अनुभव होने पर भी नहीं मिट पाता।लंबे समय से ऐसा होता आ रहा है फिर भी पुत्र मोह छूट नहीं पाता।ये सब बेहद अजीब है !

खैर ये सब सोचते सोचते कब मुझे झपकी आ गई कुछ पता नहीं चल पाया।शायद थकान का असर था।जब उठी तो पता लगा नानी नें एक पतला सा चादर मुझ पर डाल दिया था।

मुझे नानी के पास एक अलग ही सुकून का अनुभव हो रहा था।मुस्कुराते हुए नानी का चेहरा दिखा।वो मुझे बाजार चलने का आग्रह करने लगी।मुझे फिर से पुरानी यादों को जीने का अवसर मिल रहा था।फट से तैयार हो गई।नानी पुरानी संदूकची में कुछ ढूंढ रही थी।बहुत ही पुराने तुड़े मुड़े कुछ नोट रखे थे जिनमे कपूर की गोलियों की महक घुल गई थी।नानी नें उत्साह से मेरी ओर देखा।

बाज़ार जाने पर नानी में अंदर छुपा कोई बच्चा निकल कर बाहर आ रहा था।उनकी आँखों की चमक यकायक बढ़ गई।कभी कचोरी वाले के ठेले पर तो कभी मिठाई वाले के यहाँ..लग रहा था कि जैसे अरसे बाद नानी नें घर से बाहर कदम रखा था।वो जिद कर करके मुझे बहुत सी खाने की चीजें खिला रही थी।इस बहाने वो खुद भी मनपसंद चीजें खा रही थी।घर जाते जाते भी थैले में बहुत से फल ले लिए।रास्ते मे लौटते वक़्त एक पुराने मंदिर में भी हम कुछ देर ठहरे।बचपन की स्मृतियां जीवंत हो उठी।मंदिर परिसर के कबूतर आज भी उसी तरह बेख़ौफ घूम रहे थे।मम्मी के साथ परिक्रमा करते यादों के पदचिन्ह आज मेरे साथ पुनः चल रहे थे।नानी के चेहरे पर खुशी देखकर असीम तृप्ति का अनुभव हो रहा था।तभी एक विचार मन में उठा।

"नानी,क्या ये संभव नहीं कि आप और बड़ी नानी एकसाथ रहें..?"धीमे से मैनें कहा।

कुछ देर की चुप्पी के बाद नानी नें कहा।

"संभव तो है पर ऐसा कहाँ होता है बेटा.. विवाह के बाद स्त्री का घर परिवार ही उसका अपना होता है।यही परम्परा है।"

"और अगर उस घर परिवार की दीवारों में ही अंदर से सीलन और पपड़ियां पड़ गई हों तो..मरम्मत की कोई गुंजाइश न बची हो..क्या तब भी परम्परा का निर्वाह जरूरी होगा..!"नानी की आँखों में आँखें डाल मैनें पूछा।

इस बार नानी के पास कोई जवाब न था।नजर भर उन्होंने मुझे देखा,थोड़ी नमी झलक आयी थी जैसे कि उनकी आँखों में कैद कोई नदी तटबंध तोड़ आगे बढ़ना चाहती थी..

घर पहुँचने पर देखा दोनों मामा बरामदे में इधर से उधर चक्कर लगा रहे थे।हमें दरवाज़े पर देखते ही चिल्लाना शुरू कर दिया जैसे कि आसमान फट गया हो।बड़े मामा नानी की तरफ मुँह करके पूछने लगे," कहाँ गई थी कम से कम सुगंधा को तो बताकर जाती !"मामा की आँखों में नानी के लिए चिंता कम अकड़ ज्यादा दिख रही थी।

"गई थी सुगंधा को बोलने।वापस लौट आयी कमरे के बाहर से ही,अंदर उसकी सहेलियां थी,शायद कोई किटी चल रही थी।"नानी नें सहज भाव से उत्तर दिया।"और वैसे भी बेटा तेरे पिता के गुजर जाने के इतने वर्षों बाद आज पहली बार घर से बाहर गई थी।"कहकर नानी अपने कमरे में चली गई।

कमरे में जाकर नानी नें अटारी पर रखी संदूकची को टटोला।मेज पर रखी नाना की तस्वीर उसमें रखी।कुछ रोजमर्रा के जरूरी सामान भी रखे।मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था।मैं चुपचाप देखे जा रही थी।तभी नानी नें चुप्पी तोड़ते हुए कहा,"अब क्या खड़ी खड़ी सोचती ही रहेगी..! चलना नहीं है क्या तेरी बड़ी नानी के पास..!"

मुझे यक़ीन नहीं हो रहा था।एक पल को मुझे लगा ये कोई सपना है।मैं बस नानी के गले लग गई।

तटबंध टूट चुके थे।एक खिलखिलाती प्रवाहमान नदी अपने रास्ते थी..


अल्पना नागर



Sunday 4 October 2020

चैरेवेति

 चैरेवेति चैरेवेति


मैं जैसे निरर्थक के ढेर में

अर्थ खोज रही हूँ,

दौड़ रही हूँ बहुत तेज

मगर पाँव जैसे जम चुके हैं 

किसी अंजान भय की सांकलों से/

पसीने से तरबतर

मेरी आत्मा

खोज रही है 

उपनिषद के आख्यानों में

चैरेवेति का अर्थ..!


मैं महसूस कर सकती हूँ

मेरी उँगलियों में

रुके हुए रक्त का जमाव/

घड़ी की सुइयों का आगे बढ़ने से इंकार

मैं सुन सकती हूँ/

मेरी सुन्न आँखों के कोटर से

उड़ चुके हैं स्वप्न विहग

किसी सुरक्षित स्थान की तलाश में

मैं देख सकती हूँ उन्हें 

दूर जाते हुए..!


अधूरे स्वप्न होते जा रहे हैं विस्तृत

ब्रह्मांड के अज्ञात भाग की तरह..

न कोई छोर न कोई केंद्र

न कोई आदि न कोई अंत..!

अँधेरा युग है मगर

तलाशने हैं अभी

नए प्रकाश स्तंभ

ताकि जारी रहे

चैरेवेति की अनंत यात्रा..


भीतर और बाहर की

इन सब उथल पुथल के बीच

कोई फीनिक्स ले रहा है जन्म

राख हुए समय की ढेरी से/

मैनें देखा

अभी अभी गिरा है

आखिरी पेड़ की शाख से

एक पीला जर्द पत्ता

मिट्टी के रंग का पत्ता

मिट्टी में मिलने को आतुर !

वो जाएगा अंततः

मिट्टी बन रेंगता हुआ

पेड़ की जड़ों तक/

फिर दौड़ेगा पुनः इसी की नसों में..

पेड़ की शाख से

अभी अभी फूटी 

नन्ही कोंपलों से सुनाई दे रहे हैं

फिर वही शब्द..

चैरेवेति चैरेवेति !


अल्पना नागर





Saturday 3 October 2020

समाज और मुखौटा

 समाज और मुखौटे


समाज और मुखौटों का चोली दामन का साथ है।अगर आप सामाजिक हैं तो हर समय मुखौटा साथ रखना होगा,कभी किसी को संतुष्ट करने के लिए तो कभी स्वयं का कोई कारज सिद्ध करवाने के लिए।कई बार ऐसा भी होता है हर वक्त मुखौटे लादे रहने से मुखौटों की आदत सामान्य प्रतीत होने लगती है,जैसे आजकल के मास्क।शुरू में दम घुटता हुआ महसूस होता था लेकिन अब आदत हो गई है और अब तो नवीन शोध के मुताबिक मास्क प्रतिरक्षण तंत्र को मजबूत करने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं।खैर,हमें आज की चर्चा में मास्क का गुण दोष अवलोकन नहीं करना है बल्कि मास्क के ही पूर्वज मुखौटों के बारे में चिंतन करना है।

समाज में जिन मुखौटों का चिरकाल से उपयोग किया जाता रहा है,वो एक धरोहर की तरह हर बार अगली पीढ़ी को साबुत खिसका दिया जाता है,बिना एक भी धागा उधेड़े! पूरी एहतियात बरती जाती है इस कार्य में..लेकिन अब जो वर्तमान पीढ़ी है उसने उन तमाम पुराने मुखौटों के विरुद्ध विद्रोह खड़ा कर दिया है..नहीं नहीं आप गलत समझ रहे हैं।ऐसा नहीं है कि आज की पीढ़ी को मुखौटों से सख्त गुरेज है अपितु वो इसके कई 'वर्जन' लेकर आये हैं..पूरी तरह 'अपडेटेड' संस्करण ! अब जैसी मर्जी आये मुखौटे हाजिर हर मौके हर मौसम के हिसाब से..और तो और आज की पीढ़ी नें कुछ नवीन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भी ईजाद कर लिए हैं सुविधा के लिए वहाँ जैसे मर्जी आये मुखौटा पहनो,अभिनय करो।इतने सारे रंगीन 'फिल्टर' कि आत्मा हरी हो जाये! कोई रोकने टोकने वाला नहीं क्योंकि अधिकांश लोग वहाँ मुखौटाधारी हैं।एक जैसे लोगों के साथ अपनेपन की 'फील' आती है।कई बार आपको खुद को पता नहीं होता कि कौन आपके कंधे पर हाथ रखकर मन की सारी पीड़ाएँ बाहर निकलवा लेता है और कब उसे 'वायरल' कर देता है।

समाज में मुखौटों का बहुतायत में प्रयोग हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता रहा है।एक विशेष प्रकार के उतार चढ़ाव वाली चाशनी भाषा का प्रयोग इन मुखौटों के साथ करना अनिवार्य होता है।हमारे प्रतिनिधियों में ये गुण जन्मजात होता है।वो मुखौटा पहनकर किसी की भी आँख का काजल तक चुरा सकते हैं विश्वास तो बहुत छोटी बात है।

बीते कुछ दशकों में देखा गया है मुखौटों से इतना लगाव हो गया है कि एक से बढ़कर एक मुखौटे सामने आ रहे हैं।बाजार भर गया है तरह तरह के प्रसाधनों के मुखौटों से।ये लाली पाउडर इतने 'नैचुरल' लगते हैं कि त्वचा कौनसी है और मुखौटा कौनसा ये फर्क करना मुश्किल हो जाता है।नतीजा ये कि नव पूंजीवाद के इस सुनहरे दौर में हमारा मुखौटा प्रेम भी बचा रह गया और दुकानें भी चल पड़ी।वैसे मन में अगर दृढ़ आस्था हो,समर्पण हो तो कोई रोक नहीं सकता,मुखौटों के प्रति अतिशय प्रेम के बीज हमारे अंदर युगों से हैं।बाजार नें तो बस हल्की फुल्की मदद की है।

सामाजिक मुखौटे थोड़े गंभीर होते हैं।इनमें हास्य के पुट के लिए जरा भी जगह नहीं।स्त्रियों के पास आजीवन मुखौटे होते हैं चाहे जरूरत हो या न हो उन्हें रखने पड़ते हैं।कई बार किरदार बदलने पर तो कई बार परिस्थिति बदलने पर।कभी बच्चों की खातिर तो कभी पति की खातिर।उनके अभिनय का प्रशिक्षण समाज से ही शुरू होता है।

मसलन सास का मुखौटा थोड़ा खींचा हुआ और सपाट होना चाहिए।मन के भाव मुखौटा चीरकर बाहर प्रदर्शित नहीं होने चाहिए।अन्यथा सामाजिक किरकिरी होने के पूरे पूरे योग बन सकते हैं।इसके अलावा समय समय पर डेली सोप के प्रशिक्षण केंद्रों से नवीनतम विचार ग्रहण करते रहने चाहिए।

बहू के मुखौटे में आँख और मुँह वाला हिस्सा बंद रहना चाहिए,इनका कोई विशेष काम नहीं,सिर्फ हल्की सी मुस्कुराहट मुखौटे पर स्थाई रूप से बनी हुई होनी चाहिए।इसके अलावा नाक वाला हिस्सा खुला हुआ होना चाहिए ताकि सांस चलती रहे।और सबसे जरूरी बात उसे उम्दा अभिनय भी आना चाहिए।

समाज में इस दिनों मुखौटों का काम जोरों शोरो से चल रहा है।अब हर घर में आधुनिक मशीनों  से बच्चे बूढ़े सभी स्वयं का मुखौटा तैयार कर लेते हैं।पहले बच्चे इन मुखौटों के जंजाल से मुक्त थे।लेकिन हमें जल्दी थी शीघ्रातिशीघ्र इन्हें बड़ा करने की।भगवान नें जल्द ही सुन ली।अब बच्चों के पास भी एक से एक मुखौटे मौजूद हैं हर जरूरत के मुताबिक।कुछ समय पूर्व तक पड़ोसी देश की मेहरबानी से टॉक टिक पर धड़ल्ले से मुखौटे बिक रहे थे हर गली मोहल्ले में नए नए अभिनेता मुखौटा धारियों की जैसे बहार आ गई थी।अंदर का अभिनय प्रेम हिलोरें मार मार कर मुखौटों संग ताल से ताल मिला रहा था,खैर उसपर फिलहाल शनि की वक्र दृष्टि पड़ी हुई है।टॉक टिक न सही हम अब अपने घरों में ही मुखौटे पहनकर उस दौर को जीवित रखने में पूरा योगदान देंगे।

खैर,मुखौटे कितने ही आकर्षक हों,वो हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं बन सकते।इनकी भी एक वैध सीमा होती है।एक समय बाद ये भी जीर्ण शीर्ण हो जाते हैं,दम घुटना शुरू हो जाता है।शायद पश्चाताप इसी का 'साइड इफेक्ट' है।जब मुखौटा उतरता है तब नजरिया भी बदलता है।समाज का रूप भी बदलता है।दिनभर कितने भी मुखौटे में रहें लेकिन एक समय होता है जब आप मुखौटा उतार फेंकते हैं,चैन की सांस लेते हैं।अकेले में आत्मावलोकन करते हैं,अपनी अच्छाई और बुराई को किसी तटस्थ व्यक्ति की तरह दूर बैठकर देखते हैं।कोशिश करें कि वो समय जीवन में स्थाई हो..न कि उधार लिया हुआ मुखौटा..ताकि सुकून की सांस अनवरत जारी रहे।


स्वरचित एंव मौलिक

अल्पना नागर



Friday 2 October 2020

*कालजयी सत्याग्रही मोहनदास करमचंद गांधी*

 *कालजयी सत्याग्रही मोहनदास करमचंद गांधी*


गांधीजी की भारत और समस्त विश्व को देन अगर गिनने बैठें तो बहुत सी हैं मसलन आजादी दिलाने के लिए दिन रात एक करना।दक्षिण अफ्रीका की गिरमिटिया प्रथा का अंत ,चंपारण की तीन कठिया प्रथा का अंत,भारत छोड़ो आंदोलन को गति दी,सविनय अवज्ञा आंदोलन के माध्यम से बिना हिंसक हुए  शांति से किस तरह प्रशासन से अपनी बात मनवाई जा सकती है इसका पाठ पढ़ाया।दांडी यात्रा कर नमक कानून तोड़ा,जो उस समय की स्थिति पर सटीक बैठता था।असहयोग आंदोलन एकदम नवीन प्रयोग था जिसने प्रशासन की नींद उड़ा दी थी।न केवल सामान्य नागरिक अपितु बड़ी संख्या में महिलाएं विद्यार्थी मजदूर आदि आजादी की इस पावन आहूति का हिस्सा बनने कूद पड़े थे।स्वयं गाँधीजी नें आजीवन फकीरों जैसा जीवन व्यतीत किया क्योंकि उन्हें भारत की दुर्दशा पर सचमुच क्षोभ था।वो मात्र सूती धोती में काम चलाते थे क्योंकि देश की अधिकतर जनता के पास पहनने को वस्त्र नहीं थे।क्या आज के समय में हमारे प्रतिनिधियों द्वारा ऐसा सोचा जाना भी संभव है !

गाँधीजी द्वारा दी हुई अमूल्य देनों में सबसे अधिक कीमती देन है सत्याग्रह।सत्याग्रह यानी सत्य के प्रति आग्रह।ब्रिटिश काल में जो अन्याय भारत वासियों के साथ हो रहा था उसके खिलाफ गाँधीजी नें एकदम अनूठा तरीका खोज निकाला जो कि युगों युगों तक याद रखा जाएगा,अमल किया जाएगा।सत्याग्रह की लड़ाई के दौरान ही गाँधीजी नें देश की आय एंव स्वावलम्बन की प्रक्रिया को सुचारू करने के लिए रचनात्मक कार्यों का तरीका निकाला जिसमें हथकरघा,लघु उद्योग प्रमुख हैं।सत्याग्रह शब्द कैसे बना इसके पीछे भी एक रुचिकर तथ्य है।गाँधीजी द्वारा चलाये जा रहे कार्यक्रमों को एक निश्चित सार्थक नाम देने के उद्देश्य से आंदोलन के मुख्य समाचार पत्र 'इंडियन ओपिनियन' में एक विज्ञापन निकाला गया साथ ही सटीक नाम सुझाने वाले को पुरस्कृत करने की भी योजना बनाई।इसका मुख्य उद्देश्य आंदोलन से अधिक से अधिक स्वयंसेवी सक्रिय लोगों को जोड़ना भी था।गाँधीजी के एक चचेरे भाई के पुत्र थे मगनलाल गांधी वो गाँधीजी के साथ ही उनके फीनिक्स आश्रम में रहते थे।मगनलाल जी नें जो शब्द सुझाया था वो 'सदाग्रह' था।जिसका शाब्दिक अर्थ है सद के प्रति आग्रह।वस्तुतः यह शब्द आंदोलन की मूल भावना के निकट था लेकिन पूर्णतः सटीक न था।केवल अच्छी वस्तु के लिए आग्रह आंदोलन की मूल आत्मा को संकुचित कर सकता था।अतः उसे और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए गाँधीजी नें जो नाम सुझाया वो था' सत्याग्रह'।उस दिन के बाद से ये शब्द गाँधीजी के आदर्शों व सिद्धांतो का दूसरा पर्याय बन गया।

सत्याग्रह का प्रयोग गाँधीजी नें सर्वप्रथम दक्षिण अफ्रीका में ही कर लिया था एक प्रयोग के तौर पर अन्याय के खिलाफ पहली जंग।जब रंगभेद के लिए उन्हें जिंदगी का सबसे कड़वा अनुभव हुआ।प्रथम श्रेणी की टिकट होने के बावजूद गोरी चमड़ी वाले अंग्रेजों नें उन्हें धक्का मारकर पीटरमारिट्जबर्ग स्टेशन पर उतार दिया।गाँधीजी की आत्मा लहूलुहान थी।इस तरह पराए देश में अपमानित होना उनके लिए अविस्मरणीय कटु अनुभव था।लेकिन उन्होंने वापस घर लौटने की प्रबल इच्छा होने के बावजूद भी उस प्रचलित अमानवीय प्रथा के खिलाफ आवाज उठाने की ठानी।बस उसी दिन से सूट बूट वाले मोहनदास करमचंद गाँधी के अंदर एक नए व्यक्ति का प्रवेश हुआ जो भारतीयों की तत्कालीन स्थिति को परिलक्षित करता था।वो हमारे बापूजी बनकर सामने आये।उस घटना के बाद एक और झकझोरने वाली घटना पुनः हुई।जब बग्घी में उनकी आरक्षित सीट के लिए भी उन्हें गोरे खलासी से मार खानी पड़ी।इस प्रकार दक्षिण अफ्रीका के उनके समूचे अनुभव में सत्याग्रह के शुरुआती लक्षण दिखाई देने लग गए थे।सत्याग्रह का अनुभव उन्हें अपने स्वयं के बचपन से सीखने को बहुत पहले ही मिल गया था।जब गाँधीजी नें पहली बार परिवार से छुपकर माँस भक्षण किया था जिसके पश्चाताप में उन्होंने अपने पिता को चिट्ठी लिखकर क्षमायाचना की थी।उस समय उनके पिता नें दुःखी होकर चिट्ठी पढ़ी,उनकी आँखों में आँसू थे।उन्होंने अपने पुत्र को न तो डाँटा न फटकारा और न ही एक शब्द भी कहा अपितु चिट्ठी फाड़कर फेंक दी।ये सामने वाले को अपने किये का अपरोध बोध कराने का नवीन किन्तु प्रभावकारी तरीका था।उनके पिता को मोहनदास द्वारा किये कृत्य पर अत्यधिक आघात पहुँचा किन्तु उन्होंने अपने पुत्र को दंडित न कर एक तरह से स्वयं को दंडित किया।मन ही मन कष्ट सहन किया।गाँधीजी नें सत्याग्रह का पाठ यहीं से सर्वप्रथम पढ़ा।गाँधीजी नें जितनी बार भी सत्याग्रह को अपनाया व जीवन में प्रयोग किया हर बार उस पर गहनता से चिंतन मनन किया।यह 'सत्य के साथ उनका प्रयोग' था।उन्होंने बहुत ही प्रभावशाली तरीके से सत्य प्रेम व अहिंसा की ताकत को दुनिया के सामने रखा।यह एक असरकारी तरीका सिद्ध हुआ।1920-22 के असहयोग आंदोलन के समय जब आंदोलन चरम उफान पर था,तभी चौरी चौरा कांड की घटना से आहत गाँधीजी नें आंदोलन स्थगित करने का निर्णय किया।ये गाँधीजी के अपने उसूल थे,सिद्धांत थे जिनके खिलाफ वो स्वयं भी नहीं जा सकते थे।1930-34 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय विनयपूर्वक बिना किसी हिंसा के जिस तरह कानून की अवज्ञा की गई वो इतिहास बन गया।एक बड़ी संख्या में स्त्री पुरुष विद्यार्थियों,चिंतकों नें इसमें भाग लिया।इस समय धारसना,बारडोली,पेशावर आदि जगहों पर इसका विराट रूप देखने को मिला।

गाँधीजी द्वारा अपनाए गए सत्याग्रह सिद्धान्त को निम्न बिंदुओं में देखा जा सकता है-

1- सत्याग्रह के लिए कायरता का परित्याग आवश्यक है।

2-सत्याग्रह में अन्याय की जड़ पर प्रहार करना बुद्धिमता है न कि अन्याय करने वाले पर।अन्याय करने वाला मात्र प्रचलित व्यवस्था का निमित है।

3- किसी भी देश व काल में अच्छे बुरे सभी लोग हो सकते हैं।पूर्वग्रहों से मुक्त होकर ही कार्य को समुचित रूप से अंजाम दिया जा सकता है।

4- ये बिल्कुल आवश्यक नहीं कि आप अन्यायी व्यक्ति को कष्ट दे।अपितु स्वयं कष्ट सहकर उसे अहसास दिलाना सबसे बड़ा दंड साबित हो सकता है।यही सत्याग्रह की ताकत थी।

5- किसी भी तरह का अन्याय बर्दाश्त करना अन्याय को बढ़ावा देना है।

6- सत्याग्रह का उद्देश्य प्रतिकार लेना या किसी को कष्ट देना कदापि नहीं हो सकता।

7- अन्यायी व्यवस्था के खिलाफ जाने का सबसे सही तरीका है असहयोग।

8- तरह तरह के छोटे बड़े उचित अनुचित कर न भरकर व्यवस्था के साथ असहयोग किया जा सकता है।


अल्पना नागर