Wednesday 23 March 2022

ढलता सूरज

 सूरज ढल रहा है


बहुत से ऐसे मौके आएंगे

जब जीवन के आकाश में

दुविधाओं के घने बादल छाएंगे...

सुख का वो सूरज

जो अब तलक था

ऊर्जा का असीम पिटारा..

धीरे धीरे ढलता जाएगा


ढलता जाएगा

पिघलता जाएगा/


ठीक उसी वक्त

मेरे मित्र..

तुम देखना आकाश में

उन्हीं बादलों से निकलती 

आंखमिचौली करती

इंद्रधनुषी झिलमिल किरणें/


तुम देखना

थोड़ा मन्द पड़ा

निस्तेज हुआ ढलता सूरज 

किंतु वही तो है

जो दमकता है सुर्ख रोली सा

सांझ के माथे पर..!

कभी देखना

उसके ढलने पर ही

नहाती है रात

शुभ्र शीतल चांद की चांदनी में..!


थोड़ा हाथ बढ़ाकर

बस एक बार पलट देना सूरज..!

सांझ के उस पार

तुम्हें नज़र आएगा 

हंसता मुस्कुराता भोर का सूरज..


मित्र..

ये सच है

जीवन की सांझ में

सूरज ढलने लगता है

किंतु

सूर्यास्त के बिना

सूर्योदय संभव नहीं...!

-अल्पना नागर

Tuesday 15 March 2022

कवि

 *छंदमुक्त रचना*

*कवि*


"कवि "


कवि कौन है ?

एक स्वादविहिन 

नितांत एकाकी मनुज 

जिसकी अन्यमनस्कता 

हताश करती है 

नज़दीकी लोगों को !!


आक्षेप यहाँ तक हैं कि 

समय का अकाल सर्वथा रहता है 

कवि के पास 

एक ही समय में घोर आशावादी 

और निराशावादी के 

चोले बदलता हुआ !!


चलिये मिलते हैं किसी कवि से ,

वो मिल जायेंगे आपको 

एक छोटे मकान के 

दालान में 

विचारों की भूमि 

तैयार करते हुऐ/

कुछ क्यारियों में

बीज डालते हुऐ 

अंदर ही अंदर पनपते 

छोटे बड़े पौधों से

मौन वार्तालाप करते हुऐ/


देखना वो मिल जायेंगे आपको ,

आकाश की ओर

टकटकी लगाकर देखते हुऐ 

नैराश्य के रिक्त आकाश में 

घने बादलों की 

संकल्पना लिये...


तो कभी 

घने बादलों के पार 

आदित्य के रमणीय 

स्वरूप की 

परिकल्पना लिये हुऐ 

वो मिल ही जायेंगे/


वो भी उस समय 

जब तुम और मैं 

उम्मीदों के बाँध टूटने पर 

हताश निराश हो 

किनारे पर ठहर गये हों..!!

-अल्पना नागर

जानती हूँ

 जानती हूँ


जानती हूँ !

ये वसंत का समय नहीं..

वृक्ष हो रहे हैं

पुष्प और पत्रविहीन/

किन्तु फिर भी

मैं चुन रही हूँ

मुरझाए हुए पुष्प

रिक्त हो चुकी टोकरी में

वसंत का स्वप्न आँखों में लिए/


कुंज गलियों में 

पत्तों का गिरना जारी है

किन्तु फिर भी प्रिय,

तुम्हें पता है न!

मन की बगिया में कभी

पतझड़ नहीं होता..!


-अल्पना नागर



Sunday 13 March 2022

लघुकथा

 लघुकथा

कर्ज का बोझ


'बेटी,मुझे तेरे फैसले पर कोई संदेह नहीं..पर जो तू कर रही है..ठीक है! सोच लिया तूने अच्छे से..?'

'जी,पिताजी..।' प्रतिभा के चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक थी।

प्रतिभा नें मुंबई के प्रसिद्ध कॉलेज से एमबीए की डिग्री हासिल की थी।बहुत अच्छे अंकों से सफलतापूर्वक उच्चतर व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण की थी।बहुराष्ट्रीय कंपनी में लाखों के पैकेज पर कार्यरत भी थी।किंतु एक दिन अचानक वो सब कुछ छोड़कर गांव आ गई।

'पिताजी,मैं वहाँ नौकरी नहीं कर सकती।अजीब सी घुटन होती है।आपने पुरखों की जमीन बेचकर कर्ज लेकर मेरी शिक्षा सम्पूर्ण कराई..लेकिन मुझे लगता है,मैं इन सब के लिए नहीं बनी हूँ..।' 

प्रतिभा नें गांव की ही जमीन पर ऑर्गेनिक कृषि की शुरुआत की।समस्त गांव के लिए ये बात किसी अजूबे से कम नहीं थी।एक तो लड़की ऊपर से गैर पारम्परिक कार्य..खेतीबाड़ी के प्रबंधन संबंधी कार्य को अब तक सिर्फ पुरुषों तक ही सीमित माना जाता था,हाँ महिलाएं सहयोग जरूर करा सकती थी।लेकिन इन सबसे अलग प्रतिभा नें ऑर्गेनिक खेती का विकल्प चुना।धीरे धीरे गांव के ही जरूरतमंद लोगों को सहयोग के लिए दैनिक नौकरी पर रख लिया।प्रतिभा के बुद्धि चातुर्य और व्यावसायिक शिक्षा के असर से ऑर्गेनिक खेती भरपूर फलने फूलने लगी।आसपास के सभी गांवों व कस्बों तक उसकी फल सब्जियां जाने लगी।खेत से सीधे घरों तक डिलीवरी के विचार का लोगों ने खुले दिल से स्वागत किया।इस छोटे से विचार से न केवल प्रतिभा को आत्मिक संतुष्टि मिली बल्कि गांव में रोजगार की राहें भी खुली।अब उसके गांव की विशिष्ट पहचान बन चुकी थी।ग्रामवासियों का जीवन स्तर सुधर रहा था।

'मैनें कहा था न पिताजी..मैं नौकरी के लिए नहीं बनी हूँ।'प्रतिभा नें पुरानी बात दोहराई।

'मुम्बई में काम के दौरान हर दिन मुझे लगता था कि कोई बहुत बड़ा बोझ मेरे सीने पर रखा है।मेरे गांव का मुझपर कर्ज बाकी था,जिसकी मिट्टी में बड़ी होकर मैं यहाँ तक पहुंची सिर्फ इसलिए कि विदेशी कम्पनियों को फायदा पहुंचा सकूँ..!नहीं पिताजी..अब समय आ गया कि गांव को सूद सहित उपहार लौटा सकूँ।'गर्वीली मुस्कान से प्रतिभा का चेहरा दमक रहा था।

प्रतिभा के पिता की आँखों में खुशी के आँसू थे।उन्हें भी लम्बे समय बाद काफी हल्का महसूस हो रहा था।


- अल्पना नागर

मोहलत

 मोहलत


एक अरसे बाद मिली है मोहलत सस्ती सी

भरे ट्रैफिक में फंसी गाड़ी जैसी

न आ सकें इधर 

न लौट सकें उधर..!

घूम रहे हैं स्मृति दृश्य नजरों के सामने

सिनेमा में चल रहा हो जैसे

चलचित्र कोई..!


तू गाड़ियों सी सरपट

दौड़ती भागती

मैं सड़क सी स्थिर

वक़्त की धूल धूप और 

मौसम की मार झेलती

किंकर्तव्यविमूढ़ सी..!


बस एक अहसान ही कर दे

थोड़ी मोहलत दे दे ज़िन्दगी..


अभी तो कोरे पड़े हैं

हिसाब किताब के पन्ने

कुछ जोड़ने और कुछ घटाने के फ़साने..

और देखते ही देखते

ख़त्म हो गई स्याही..!

चलो अच्छा हुआ..!!

हिसाब किताब और जोड़ घटा के उसूलों से दूर

मिलूँ तुझसे तेरे ही अंदाज में/

चाय की टपरी पर

बरसों पुराने किसी दोस्त की तरह

कुछ कहूँ अपनी

कुछ सुनूँ तेरी..

थोड़ी मोहलत तो दे ज़िन्दगी..!!


कि घुटने लगा है दम 

सजी धजी मेकअप पुती

दुल्हन भाषा का/

उसे सहजता की सादी ओढ़नी का उपहार दूँ!

दिखाऊँ उसे कड़ी धूप का आकाश..

ले जाऊं बारिश के बीचोंबीच/

कि होते हैं वसंत के अलावा भी

कई और मौसम..!

जाड़े की सर्द हवाओं और

गर्मी की तपन का अहसास दूँ..!


वो अँधेरा कोना 

जहाँ दम तोड़ देता है प्रकाश

तगारी ढोता बचपन..वो लोहे का बना लुहार..

मजबूरी की धूल में आकंठ सनी मजदूरिन..

वो चतुर्थ श्रेणी का फॉर्म भरते

पीएचडी धारी युवाओं की कतार/

रेड लाईट एरिया के अनचाहे कुकुरमुत्ते..

वो पेट को पीठ पर बांधकर घूमती

कचरा बीनती भूख/

बस उन्हीं के आसपास

उन्हीं की भाषा में

संवाद कर आऊँ/

ओढ़ लूँ कविता का सादा लिबास

थोड़ा उनकी सुनूँ

थोड़ा अपनी कह आऊँ..!


उन तमाम सीलन भरी मानसिकताओं को

खुले विचारों की धूप दिखा दूँ/

गर मिल जाये थोड़ी मोहलत

ए ज़िन्दगी..

अनुभव के धागों से बुनी

अक्षरों की चादर

तुझे लौटा दूँ..!


-अल्पना नागर


Tuesday 8 March 2022

लघुकथा

 लघुकथा

महिला सशक्तिकरण


"आपको महिला सशक्तिकरण पुरस्कार देते हुए हमें अत्यंत हर्ष की अनुभूति हो रही है।निस्संदेह आप इसकी हकदार हैं।" फोन के दूसरी ओर से आवाज आयी।"

"बस मैं थोड़ी देर में ही निकल रही हूँ..

हाँ..हाँ समय पर पहुँच जाऊंगी..।" दर्पण में स्वयं को निहारती सुमित्रा नें फोन पर उत्तर दिया।

"ये तो मेरा सौभाग्य है कि महिलाओं के हित में कार्य करने का अवसर मिल पा रहा है।विशेष रूप से निचले तबके की महिलायें जो बराबरी से सम्मानपूर्वक जीने की उतनी ही हकदार हैं जितने कि पुरुष..!"

मेकअप का फाइनल टच देते हुए फोन पर मधुर और विनीत आवाज में सुमित्रा नें कहा।

"दीदी जी..एक बात कहूँ..।"रसोई में काम करती कामवाली बाई नें झिझकते हुए पूछा।

"हम्म..मैं थोड़ा जल्दी में हूँ.. जल्दी कह जो भी कहना है..।"

"वो दीदी जी..आप ना आज बहुत ही सुंदर लग रही हो..बिंदी काजल में आपको कम ही देखती हूँ ना।आप रोज लगाया करो।"एक ही सांस में बात खत्म करती बाई नें कहा।

"अपनी औकात में रहा कर..ये तुम जैसे छोटे लोगों के साथ यही दिक्कत है जरा सी छूट दो तो सर पे बैठने को तैयार रहते हो तुम लोग..।"झल्लाते हुए सुमित्रा नें कहा।"और सुन शाम को थोड़ा जल्दी आ जाना,मेरी कुछ सहेलियां आ रही हैं..पिछली बार की तरह नमक ज्यादा मत कर देना..वरना जानती है ना सैलेरी काट लूंगी.. समझी!"

-अल्पना नागर

स्त्रियां

 स्त्रियां 


कभी गौर से देखना

आकाश की ओर उन्मुख होकर भी

जड़ें जमीन से जुड़ी होती हैं

कुछ ऐसी ही होती हैं

स्त्रियां..

आंधी बारिश और झंझावतों में

यकीन की तरह दृढ़ होती जाती हैं

स्त्रियां..

गिराती हैं ग़लतियों के सूखे पात

क्षमाशील नित नए पत्तों से 

पल्लवित होती जाती हैं

स्त्रियां..


पल्लू में बांधकर रखती आयी हैं

नमक संस्कार और हिदायतें

मगर अब चाहती हैं कि 

रिहा हो जाये

सदियों से सलवट पड़ी गांठें..

पल्लू को जरा आज़ाद और

हिदायतों को नई राह दिखाना चाहती है

स्त्रियां.. 


"सुनो,ये काम तुम्हारे हैं

तुम्हारी ही जिम्मेवारी है

संतान की शिक्षा दीक्षा और संस्कार.."

"तुम नौकरी करोगी तो कौन सम्हालेगा घर!

सब तुम्हारी ग़लती है..

तुम्हारे ही लाड़ प्यार का नतीजा है

संतान का आवारा होना..!"


उलाहनों के ऐसे ठीकरों को ठोकर मार

अब खुद के लिए भी जीना चाहती हैं

स्त्रियां..


समय आ गया कि 

पहचाने वो स्वयं को..

उसकी क्षमताओं के केश खुले हो या 

फिर हों जुड़े में बंद

ये फैसला भी उसी का हो..!

मानक दुनियादारी से दूर 

बसाये वो अपनी दुनिया

जिसे देखे वो अपनी निगाह से

जहाँ हस्तक्षेप न हो

किसी और की मनमानियों का/


वो चाहे तो कर सकती है अभ्यास

दे सकती है पटखनी 

कठिनाइयों को/

पीठ पर परिवार और संतान को लादे हुए भी..

मगर अभ्यस्त नहीं होना चाहती

अपने ही चारों ओर बनाई बेड़ियों का..

पराश्रय की पकड़ छोड़ वो

उड़ना चाहे या

दौड़ना चाहे 

ये फैसला भी उसी का हो/

समय आ गया कि

न बना जाए उसकी राह का रोड़ा बल्कि

दिया जाए उसे रास्ता

रास्ता जिसकी शिल्पकार भी वो हो

और रहगुज़र भी वो खुद हो..!


-अल्पना नागर



Sunday 6 March 2022

युद्ध

 युद्ध


*

गरजते हैं

युद्ध के नगाड़े

और बहरा हो उठता है

विवेक/

स्वार्थ के दो पाटों के बीच

हर बार आखिरकार 

पिसती है 

मानवता..!


**

आकाश में

रह रह कर चमकती हैं

रोशनियां..

जनाब,यहाँ आतिशबाजी नहीं

प्राणों की बाजी है/

चकाचौंध इतनी कि

चौंधिया जाए नजरें

इसे विज्ञान का करिश्मा कहूँ या

विनाश का घोर अंधकार..!


***

युद्ध के बादल

मंडराते हैं आकाश में

और बरसते हैं जमीं पर

आँखों से लहू बनकर/

इन बादलों से ऊसर हुई जमीन पर

बरसों बरस

लहराती है फसल

नफरत और प्रतिकार की../

ये सिलसिला कब और कैसे थमेगा

युद्ध के बादलों का इससे

कोई लेना देना नहीं..!

उन्हें तो बरसना है 

हर हाल में..!!


****

एक झटके में 

उड़ा दी गई इमारतें..

खाक कर दिए

इमारतों में बरसों से जमा सपने

सपने जिन्हें बुनने में लगा था 

आधा जीवन/

अब शेष जीवन

बीतेगा किसी भयानक सपने की तरह

मगर युद्ध के आकाओं का

इससे क्या लेना देना !

वो सोये हैं चैन की नींद

और बड़बड़ा रहे हैं नींद में भी

युद्ध..युद्ध और सिर्फ युद्ध..!


*****

लहराएगा विजय परचम

हर दिशा

महत्वकांक्षाओं के महल

जगमगाएंगे/

ये रोशनियों के जगमग महल

मुबारक हो तुम्हे..

मैं चितिंत हूँ तो बस

महल की नींव में दबी

टूटी हुई वॉटर बॉटल

रंगीन पेंसिल के चंद टुकड़े और

बूढ़ी बेंत के अवशेषों के लिए..!!


-अल्पना नागर




चुप्पियां

 तुम भी थोड़े चुप हो

मैं भी थोड़ी चुप हूँ..

ये थोड़ा थोड़ा जुड़ जुड़कर

कितना अधिक हो जाता है

जानते हो न..!


चुप्पियों के इस वीराने में

आजकल बातें कर रही हैं

दीवारें..

ताकाझांकी कर रही हैं

दीवार पर टंगी

मुस्कुराती तस्वीरें

मेरी तुम्हारी/

तस्वीर के पास रुक रुक कर 

चलने का प्रयास कर रही है

एक दीवार घड़ी/

मानो कह रही हो

समय हमेशा आगे की ओर

बढ़ता है..

मुड़ मुड़ कर 

पीछे लौटना भ्रम के अतिरिक्त

कुछ नहीं..!


ये वही घड़ी है

जिसे खरीदा था हम दोनों नें कभी

बेहतर समय की ख़्वाहिश में!

जाने क्यों हमें देखकर इन दिनों

फुसफुसा रही हैं

घड़ी की वो अधमरी सुइयां..!

तुम भी चुप हो

मैं भी थोड़ी चुप हूँ..!!


मुखर होते सन्नाटे में

चुप्पियों का बढ़ता शोर

कहीं बहरा न कर दे/

इससे पहले कि

आदत हो जाये

चुप्पियों को घेराबंदी करने की/

चलो न चुप्पी तोड़ दी जाए

बेजान पड़ी दीवारें सजाई जाएं..

तस्वीरों की धूल झाड़ी जाए..

बंद पड़ी घड़ी में

विश्वास की मरम्मत से

बेहतर समय को

हरी झंडी दिखाई जाए/


मैं चाहती हूँ

तुम्हे भी अखरे

हमारी चुप्पियां

और किसी रोज मेरे कानों में पड़े

तुम्हारे शब्द

'बोलो न..आखिर चुप क्यों हो..!'

-अल्पना नागर


लोक साहित्य और प्रेम के विविध आयाम

 लोक साहित्य और प्रेम के विविध आयाम-


लोक साहित्य को साधारण भाषा में लोक श्रुति भी कहा जाता है,कारण लोक साहित्य लेखनी पर आश्रित न होकर श्रुति परम्परा पर आधारित है यानी लोक में प्रचलित ऐसे किस्से कहानियां गीत लोकोक्तियां गाथाएं जिन्हें हम हमारे दादा नाना परनानी से सुनते आ रहे हैं जिनके उद्गम के बारे में किसी को ज्ञात नहीं।अधिकांशतः लोक साहित्य का कोई एक ज्ञात लेखक नहीं है।हो सकता है जंगल में बकरियां चराते गड़रिये नें आसमान में उमड़ते घुमड़ते बादलों को देखकर कुछ गुनगुनाया होगा,या फिर परिवार की उदरपूर्ति के लिए अनाज पीसती किसी गृहणी नें मन में उमगते विचारों को गीत का आकार दिया हो या फिर बारह महीने से परदेस गए अपने पति के इंतज़ार में राह देखती किसी पत्नी नें विरह में कोई विरहगीत गाया हो,कारण जो भी हो लोक साहित्य के अस्तित्व में आने के पीछे कोई एक कारण या कोई निश्चित व्यक्ति नहीं है यह व्यक्तिगत तौर पर भी सृजित हो सकता है और सामूहिक तौर पर भी!लेकिन इतना है कि पीढ़ी दर पीढ़ी ये साहित्य एक मुख से दूसरे मुख तक पहुंचते पहुंचते न जाने कितने रूप आकार से गुजरा होगा। हम सिर्फ कल्पना कर सकते हैं कि सभ्यता की शुरुआत में जब इंसान के लिए जीवन संघर्ष का ही दूसरा नाम था,जब प्रकृति में मौजूद मूर्त व अमूर्त तत्व जिनसे एक सरल व सहज जीवन जीने में आसानी रहती थी उन्हें सर्वेसर्वा मानकर पूजना शुरू हुआ व उन्हीं तत्वों के बिगड़ने पर (अकाल,अतिवृष्टि,अनावृष्टि,भूकम्प,बाढ़ आदि) इंसान में भय की उत्पत्ति हुई और प्रकृति पूजा पशु पूजा आदि की शुरुआत हुई।यही कारण है कि लोक साहित्य में प्राकृतिक तत्वों पशु पक्षियों आदि का भरपूर उल्लेख किया गया है और एक तरह से यह सांस्कृतिक धरोहर बन गई जिन्हें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को किस्से कहानियों लोकोक्तियों के माध्यम से स्थानांतरित कर दिया गया।सभ्यता की शुरुआत में इंसान को अधिकतर जीव जंतुओं आदि के मध्य रहकर ही गुजारा करना होता था ऐसे में समुदाय की जहरीले जीवों से रक्षा करने वाला या जान की बाजी लगाकर पशु धन सुरक्षित रखने में योगदान देने वाला हर वो इंसान चमत्कृत रूप से पूजनीय माना जाने लगा,उसपर वीरगाथाएं लोकगीत बनाये जाने लगे ताकि आने वाली पीढ़ियों तक वो अनुभव सुरक्षित रहे।लोक साहित्य के फलने फूलने की सर्वाधिक अनुकूल जगह गांव की चौपाल मानी जा सकती है जहाँ जीवन का सारा निचोड़ लोक गाथाओं कहावतों व गीतों के माध्यम से लोक में प्रचलित हुआ।कुछ इसी तरह लोक साहित्य का उद्भव हुआ जिसमें ज्यादातर को लेखनीबद्ध नहीं किया गया,हालांकि कोई भी साहित्य जब लेखनीबद्ध हो जाता है तो उसकी आयु बढ़ जाती है वो चिरकाल के लिए सुरक्षित माना जाता है किन्तु लोक साहित्य के विषय में यह बात एकदम उल्टी कही जाएगी।लोक साहित्य जंगल की किसी आदिम जनजाति की भांति अपने शुद्धतम रूप में तब तक ही जीवित रह सकती है जब तक उसके वास्तविक रूप के साथ छेड़छाड़ न की जाए उसे समाज की आधुनिक मुख्यधारा में सम्मिलित करने के प्रयास न किये जाए।लोक साहित्य को बोतलबंद नहीं किया जा सकता यह जंगल की खुली हवा है।इसे जीवित रखना है तो इसे इसके प्रचलित रूपाकार के साथ ही स्वीकार करना होगा।

अब बात करते हैं लोक साहित्य में प्रचलित प्रेम के विविध आयामों की।सभ्यता की शुरुआत से ही रोष भय वीरता प्रेम आदि ऐसे भाव हैं जिन्होंने साहित्य सृजन में मजबूती से अपना योगदान दिया है।भारत जैसे विशाल देश में अनेक प्रांत हैं जिनका लोक साहित्य भी उतना ही विविधतापूर्ण है।किसी भी प्रांत में चले जाइये हर एक प्रांत में एक से बढ़कर एक लोक  संस्कृति के परिचायक साहित्य मौजूद हैं जिनमें प्रेम विशेष स्थान रखता है।मैं शुरुआत करती हूँ अपने प्रांत राजस्थान से जहाँ के कण कण में प्रेम में पूरित लोक साहित्य विद्यमान है।प्रेम के विविध रूपों में गार्हस्थ्य प्रेम,पिता पुत्र प्रेम,माता का संतान के प्रति प्रेम,प्रकृति प्रेम,ईश्वर के प्रति प्रेम व देश प्रेम सम्मिलित किये जा सकते हैं।विरह गीत भी प्रेम की पराकाष्ठा कहे जा सकते हैं।राजस्थान प्रांत में मधुर लोक गीतों के माध्यम से प्रेम को सिंचित किया गया है।यहाँ प्रेम के संदेशवाहक के रूप में पशु पक्षियों तक नें भूमिका निभाई है।फिर वो चाहे कुरजां पक्षी हो या रेत के धोरों में बड़ा हुआ रेगिस्तान का जहाज ऊँट!

यहाँ बारहमासा,मूमल,पणिहारी,कुरजां आदि लोकगीतों में पग पग पर प्रेम का बड़ी ही कुशलता से प्रयोग किया गया है।उदाहरण के लिए कुरजां गीत में व्यक्त भाव देखिए जिसमें एक स्त्री परदेस गए अपने पति को कुरजां पक्षी के माध्यम से संदेश देना चाहती है,कुरजां को उसने धर्म की बहन कहकर संबोधित किया है-


"तूं छै कुरजां म्हारे गाँव की, लागे धर्म की भान,

कुरजां ऐ राण्यो भँवर मिला द्यो ऐ,

संदेशो म्हारे पिया ने पुगा द्यो ऐ.."


दूसरी ओर वीर भोग्या वसुंधरा में देश प्रेम भी बहुत अच्छे से व्यक्त किया गया है।

राजस्थान एक ऐसा प्रांत रहा है जहाँ विदेशी आक्रमकारी बार बार आकर यहाँ की एकाग्रता को भंग करने का प्रयास करते रहे हैं।अंग्रेजी राज के दौरान भी जब अंग्रेजों नें यहाँ के राजाओं की आपसी फूट का लाभ उठाते हुए अपनी संस्कृति थोपने का प्रयास किया तब जगह जगह लोक साहित्य का सृजन हुआ।

कोटा बूंदी के कवि सूरजमल मीसण नें वीर सतसई में अपने देश प्रेम को व्यक्त किया-


"इळा न देणी आपणी , हालरिये हुलराय।

पूत सिखावे पालणे, मरण बड़ाई माय।।"


ये वो भूमि है जहाँ माताएं पालने में ही अपने नवजात को झुलाते हुए शिक्षा देती हैं कि अपनी भूमि शत्रुओं को कभी नहीं देनी चाहिए।


यहाँ के निष्क्रिय सोये हुए राजाओं में देशभक्ति जगाने का कार्य स्थानीय कवियों ने बखूबी किया।कवि बाँकीदास नें भी अपने देश प्रेम को व्यक्त किया है-


‘‘आयौ इंगरेज मुलक रे उपर, आहस लीधा  खैंचि उरा।

घणियाँ मरे न दीधी धरती, धणियाँ उभा गई धरा।।”

राजस्थान की ही मीरा बाई का कृष्ण के प्रति प्रेम अतुलनीय है।वो संतों के बीच रहकर गीतों के माध्यम से कृष्ण के प्रति भक्ति प्रेम को व्यक्त करती थी।उनके द्वारा रचित गीत "पायो जी मैनें राम रतन धन पायो"आज भी जनमानस की जुबान पर चढ़ा हुआ है।

"

पायो जी मैंने राम रतन धन पायो !

वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु किरपा करि अपनायो। पायो जी मैंने…

जनम जनम की पूंजी पाई जग में सभी खोवायो। पायो जी मैंने…

खरचै न खूटै चोर न लूटै दिन दिन बढ़त सवायो। पायो जी मैंने…

सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो। पायो जी मैंने…

मीरा के प्रभु गिरिधर नागर हरष हरष जस गायो। पायो जी मैंने…"


इसी प्रकार पूर्वोत्तर लोक साहित्य की बात करें तो असम लोक साहित्य के लिहाज से समृद्ध माना जाता है।असम के लोक साहित्य के पीछे महान शंकर देव जी का योगदान अविस्मरणीय है।इन्होंने नृत्य नाटिका,भाओना आदि की रचना करके स्थानीय लोक साहित्य को जन जन तक पहुंचाया।असम में देवरी समुदाय का नृत्य गिरा एंव गिरासी यानी शिव व पार्वती के परस्पर प्रेम पर आधारित उपासना नृत्य है।इसी तरह बिहू नृत्य के माध्यम से भी भावनाओं का इजहार किया जाता रहा है।बिहू कृषि प्रधान नृत्य है लेकिन इसका मुख्य विषय प्रेम है-

"प्रथमे ईश्वरे सृष्टि सरजिले, तार पासत सरजिले जीव

तेनेजन ईश्वरे पीरिति करिले, आमि बा नकरिम किय।

अर्थात् ईश्वर ने सबसे पहले इस सृष्टि की रचना की। उसके बाद जीवों का सृजन किया। उसी ईश्वर ने प्रेम किया है तो हमें भी करना चाहिए।


यहाँ पर अनेक जनजातियां पाई जाती हैं उन्हीं में से एक मिरी या मिसिंग जनजाति के लोकगीतों को 'ओई निटोम' कहा जाता है।चूंकि ब्रह्मपुत्र नदी असम की जीवनरेखा मानी जाती है अतः यहाँ के अधिकांश लोक साहित्य का प्राण भी यही नदी है।नदी किनारे खड़े युवा जोड़े प्रेम में पूरित खूबसूरत प्रणय गीत गाते हैं।

पूर्वोत्तर का ही एक और प्रांत है अरुणाचल प्रदेश जिसे विविधता के कारण लघु भारत की उपमा दी जाती है।अरुणाचल प्रदेश भी लोक साहित्य की दृष्टि से समृद्ध माना जाता है।लोक साहित्य में यहाँ लोकगीतों के प्रति विशेष स्नेह देखा गया है।संयोग से व्यक्तिगत तौर पर इस प्रदेश में कई बार जाना हुआ है अतः नजदीक से यहाँ की लोक संस्कृति को जानने का अवसर मिला।यहाँ एक मलिनीथान नामक प्राचीन मंदिर है।कहा जाता है कि भगवान कृष्ण जब रुक्मिणी को हरण करने जा रहे थे तब इसी स्थान पर एक रात्रि के लिए रुके थे।कहा जाता है कि रुक्मिणी अरुणाचल प्रदेश की ही इदु मिसमी जनजाति से थी।इनका विवाह इनके पिता द्वारा शिशुपाल नामक राजा के साथ तय कर दिया गया था किंतु रुक्मिणी को यह मंजूर नहीं था।उन्होंने कृष्ण की वीरता के किस्से सुन रखे थे और वो मन ही मन उन्हें पति स्वीकार कर चुकी थी अतः लोक मान्यताओं के अनुसार रुक्मिणी नें ही कृष्ण को संदेश भिजवाया कि उन्हें यहाँ से ले जाएं।मालिनीथान मंदिर में आज भी यही मान्यता है व भारत भर से लोग यहाँ आते हैं।

इस प्रदेश के निवासी बहुत धार्मिक हैं व ईश्वर के प्रति प्रेम को गीतों व लोकनृत्य के माध्यम से व्यक्त करते रहते हैं।'दोनयी पोलो' यहाँ सर्वशक्तिमान ईश्वर का प्रतीक रूप माना जाता है।अपने इष्ट को खुश करने के प्रयास में बहुत से लोक गीतों की रचना हुई।दरअसल लोकगीतों के रूप में सदियों पुराने अनुभव ही होते हैं।

इसी तरह प्रणय गीतों के लिए अरुणाचल के ही तिरप जिले की वांचो व नोकते जनजाति प्रमुख है।स्थानीय भाषा में बहुत ही मधुर प्रणय गीत यहाँ सुने जा सकते हैं।यहाँ युवक युवतियां स्वतंत्रतापूर्वक गीतों के माध्यम से अपने प्रेम का इजहार करते हैं,गीतों में प्रेम पूरित कल्पनाओं व मधुर मनोभावों का योग देखते ही बनता है।

उत्तराखंड के लोक साहित्य की बात करें तो यहाँ भी समृद्ध लोक साहित्य की भरमार है।कुमायूंनी लोक साहित्य में गीत नृत्य आदि के माध्यम से लोक साहित्य को सुरक्षित रखा गया है।अनेक प्रकार के नृत्यों में से एक छपेली नृत्य 

मुख्यतः प्रेम पर आधारित नृत्य है जिसमें स्त्री पुरुष जोड़ा बनाकर नृत्य करते हैं।इसी तरह न्योली नामक वन गीत जंगल में स्त्री पुरुषों द्वारा गाया जाने वाला गीत है।इसी तरह लोक कथाओं में राजुली मालूशाही की प्रेम कथा पूरे कुमायूं में उसी तरह चाव से कही सुनी जाती है जैसे प्रसिद्ध हीर रांझा और लैला मजनूं की कहानियां सुनी जाती हैं।

कह सकते हैं कि सम्पूर्ण भारत में विविधता होते हुए भी लोक साहित्य के मामले में एक समरूपता दिखाई देती है।कहने का अंदाज बदल सकता है भाषा बदल सकती है किंतु मनोभाव कमोबेश हर जगह एक जैसे ही हैं।सभी प्रान्तों के लोक गीत,नृत्य व कथाएं बेहद मनमोहक व संस्कृति की धरोहर के रूप में चिरकाल तक जीवित रहने का माद्दा रखती हैं।

-अल्पना नागर