Sunday, 13 March 2022

मोहलत

 मोहलत


एक अरसे बाद मिली है मोहलत सस्ती सी

भरे ट्रैफिक में फंसी गाड़ी जैसी

न आ सकें इधर 

न लौट सकें उधर..!

घूम रहे हैं स्मृति दृश्य नजरों के सामने

सिनेमा में चल रहा हो जैसे

चलचित्र कोई..!


तू गाड़ियों सी सरपट

दौड़ती भागती

मैं सड़क सी स्थिर

वक़्त की धूल धूप और 

मौसम की मार झेलती

किंकर्तव्यविमूढ़ सी..!


बस एक अहसान ही कर दे

थोड़ी मोहलत दे दे ज़िन्दगी..


अभी तो कोरे पड़े हैं

हिसाब किताब के पन्ने

कुछ जोड़ने और कुछ घटाने के फ़साने..

और देखते ही देखते

ख़त्म हो गई स्याही..!

चलो अच्छा हुआ..!!

हिसाब किताब और जोड़ घटा के उसूलों से दूर

मिलूँ तुझसे तेरे ही अंदाज में/

चाय की टपरी पर

बरसों पुराने किसी दोस्त की तरह

कुछ कहूँ अपनी

कुछ सुनूँ तेरी..

थोड़ी मोहलत तो दे ज़िन्दगी..!!


कि घुटने लगा है दम 

सजी धजी मेकअप पुती

दुल्हन भाषा का/

उसे सहजता की सादी ओढ़नी का उपहार दूँ!

दिखाऊँ उसे कड़ी धूप का आकाश..

ले जाऊं बारिश के बीचोंबीच/

कि होते हैं वसंत के अलावा भी

कई और मौसम..!

जाड़े की सर्द हवाओं और

गर्मी की तपन का अहसास दूँ..!


वो अँधेरा कोना 

जहाँ दम तोड़ देता है प्रकाश

तगारी ढोता बचपन..वो लोहे का बना लुहार..

मजबूरी की धूल में आकंठ सनी मजदूरिन..

वो चतुर्थ श्रेणी का फॉर्म भरते

पीएचडी धारी युवाओं की कतार/

रेड लाईट एरिया के अनचाहे कुकुरमुत्ते..

वो पेट को पीठ पर बांधकर घूमती

कचरा बीनती भूख/

बस उन्हीं के आसपास

उन्हीं की भाषा में

संवाद कर आऊँ/

ओढ़ लूँ कविता का सादा लिबास

थोड़ा उनकी सुनूँ

थोड़ा अपनी कह आऊँ..!


उन तमाम सीलन भरी मानसिकताओं को

खुले विचारों की धूप दिखा दूँ/

गर मिल जाये थोड़ी मोहलत

ए ज़िन्दगी..

अनुभव के धागों से बुनी

अक्षरों की चादर

तुझे लौटा दूँ..!


-अल्पना नागर


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