लोक साहित्य और प्रेम के विविध आयाम-
लोक साहित्य को साधारण भाषा में लोक श्रुति भी कहा जाता है,कारण लोक साहित्य लेखनी पर आश्रित न होकर श्रुति परम्परा पर आधारित है यानी लोक में प्रचलित ऐसे किस्से कहानियां गीत लोकोक्तियां गाथाएं जिन्हें हम हमारे दादा नाना परनानी से सुनते आ रहे हैं जिनके उद्गम के बारे में किसी को ज्ञात नहीं।अधिकांशतः लोक साहित्य का कोई एक ज्ञात लेखक नहीं है।हो सकता है जंगल में बकरियां चराते गड़रिये नें आसमान में उमड़ते घुमड़ते बादलों को देखकर कुछ गुनगुनाया होगा,या फिर परिवार की उदरपूर्ति के लिए अनाज पीसती किसी गृहणी नें मन में उमगते विचारों को गीत का आकार दिया हो या फिर बारह महीने से परदेस गए अपने पति के इंतज़ार में राह देखती किसी पत्नी नें विरह में कोई विरहगीत गाया हो,कारण जो भी हो लोक साहित्य के अस्तित्व में आने के पीछे कोई एक कारण या कोई निश्चित व्यक्ति नहीं है यह व्यक्तिगत तौर पर भी सृजित हो सकता है और सामूहिक तौर पर भी!लेकिन इतना है कि पीढ़ी दर पीढ़ी ये साहित्य एक मुख से दूसरे मुख तक पहुंचते पहुंचते न जाने कितने रूप आकार से गुजरा होगा। हम सिर्फ कल्पना कर सकते हैं कि सभ्यता की शुरुआत में जब इंसान के लिए जीवन संघर्ष का ही दूसरा नाम था,जब प्रकृति में मौजूद मूर्त व अमूर्त तत्व जिनसे एक सरल व सहज जीवन जीने में आसानी रहती थी उन्हें सर्वेसर्वा मानकर पूजना शुरू हुआ व उन्हीं तत्वों के बिगड़ने पर (अकाल,अतिवृष्टि,अनावृष्टि,भूकम्प,बाढ़ आदि) इंसान में भय की उत्पत्ति हुई और प्रकृति पूजा पशु पूजा आदि की शुरुआत हुई।यही कारण है कि लोक साहित्य में प्राकृतिक तत्वों पशु पक्षियों आदि का भरपूर उल्लेख किया गया है और एक तरह से यह सांस्कृतिक धरोहर बन गई जिन्हें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को किस्से कहानियों लोकोक्तियों के माध्यम से स्थानांतरित कर दिया गया।सभ्यता की शुरुआत में इंसान को अधिकतर जीव जंतुओं आदि के मध्य रहकर ही गुजारा करना होता था ऐसे में समुदाय की जहरीले जीवों से रक्षा करने वाला या जान की बाजी लगाकर पशु धन सुरक्षित रखने में योगदान देने वाला हर वो इंसान चमत्कृत रूप से पूजनीय माना जाने लगा,उसपर वीरगाथाएं लोकगीत बनाये जाने लगे ताकि आने वाली पीढ़ियों तक वो अनुभव सुरक्षित रहे।लोक साहित्य के फलने फूलने की सर्वाधिक अनुकूल जगह गांव की चौपाल मानी जा सकती है जहाँ जीवन का सारा निचोड़ लोक गाथाओं कहावतों व गीतों के माध्यम से लोक में प्रचलित हुआ।कुछ इसी तरह लोक साहित्य का उद्भव हुआ जिसमें ज्यादातर को लेखनीबद्ध नहीं किया गया,हालांकि कोई भी साहित्य जब लेखनीबद्ध हो जाता है तो उसकी आयु बढ़ जाती है वो चिरकाल के लिए सुरक्षित माना जाता है किन्तु लोक साहित्य के विषय में यह बात एकदम उल्टी कही जाएगी।लोक साहित्य जंगल की किसी आदिम जनजाति की भांति अपने शुद्धतम रूप में तब तक ही जीवित रह सकती है जब तक उसके वास्तविक रूप के साथ छेड़छाड़ न की जाए उसे समाज की आधुनिक मुख्यधारा में सम्मिलित करने के प्रयास न किये जाए।लोक साहित्य को बोतलबंद नहीं किया जा सकता यह जंगल की खुली हवा है।इसे जीवित रखना है तो इसे इसके प्रचलित रूपाकार के साथ ही स्वीकार करना होगा।
अब बात करते हैं लोक साहित्य में प्रचलित प्रेम के विविध आयामों की।सभ्यता की शुरुआत से ही रोष भय वीरता प्रेम आदि ऐसे भाव हैं जिन्होंने साहित्य सृजन में मजबूती से अपना योगदान दिया है।भारत जैसे विशाल देश में अनेक प्रांत हैं जिनका लोक साहित्य भी उतना ही विविधतापूर्ण है।किसी भी प्रांत में चले जाइये हर एक प्रांत में एक से बढ़कर एक लोक संस्कृति के परिचायक साहित्य मौजूद हैं जिनमें प्रेम विशेष स्थान रखता है।मैं शुरुआत करती हूँ अपने प्रांत राजस्थान से जहाँ के कण कण में प्रेम में पूरित लोक साहित्य विद्यमान है।प्रेम के विविध रूपों में गार्हस्थ्य प्रेम,पिता पुत्र प्रेम,माता का संतान के प्रति प्रेम,प्रकृति प्रेम,ईश्वर के प्रति प्रेम व देश प्रेम सम्मिलित किये जा सकते हैं।विरह गीत भी प्रेम की पराकाष्ठा कहे जा सकते हैं।राजस्थान प्रांत में मधुर लोक गीतों के माध्यम से प्रेम को सिंचित किया गया है।यहाँ प्रेम के संदेशवाहक के रूप में पशु पक्षियों तक नें भूमिका निभाई है।फिर वो चाहे कुरजां पक्षी हो या रेत के धोरों में बड़ा हुआ रेगिस्तान का जहाज ऊँट!
यहाँ बारहमासा,मूमल,पणिहारी,कुरजां आदि लोकगीतों में पग पग पर प्रेम का बड़ी ही कुशलता से प्रयोग किया गया है।उदाहरण के लिए कुरजां गीत में व्यक्त भाव देखिए जिसमें एक स्त्री परदेस गए अपने पति को कुरजां पक्षी के माध्यम से संदेश देना चाहती है,कुरजां को उसने धर्म की बहन कहकर संबोधित किया है-
"तूं छै कुरजां म्हारे गाँव की, लागे धर्म की भान,
कुरजां ऐ राण्यो भँवर मिला द्यो ऐ,
संदेशो म्हारे पिया ने पुगा द्यो ऐ.."
दूसरी ओर वीर भोग्या वसुंधरा में देश प्रेम भी बहुत अच्छे से व्यक्त किया गया है।
राजस्थान एक ऐसा प्रांत रहा है जहाँ विदेशी आक्रमकारी बार बार आकर यहाँ की एकाग्रता को भंग करने का प्रयास करते रहे हैं।अंग्रेजी राज के दौरान भी जब अंग्रेजों नें यहाँ के राजाओं की आपसी फूट का लाभ उठाते हुए अपनी संस्कृति थोपने का प्रयास किया तब जगह जगह लोक साहित्य का सृजन हुआ।
कोटा बूंदी के कवि सूरजमल मीसण नें वीर सतसई में अपने देश प्रेम को व्यक्त किया-
"इळा न देणी आपणी , हालरिये हुलराय।
पूत सिखावे पालणे, मरण बड़ाई माय।।"
ये वो भूमि है जहाँ माताएं पालने में ही अपने नवजात को झुलाते हुए शिक्षा देती हैं कि अपनी भूमि शत्रुओं को कभी नहीं देनी चाहिए।
यहाँ के निष्क्रिय सोये हुए राजाओं में देशभक्ति जगाने का कार्य स्थानीय कवियों ने बखूबी किया।कवि बाँकीदास नें भी अपने देश प्रेम को व्यक्त किया है-
‘‘आयौ इंगरेज मुलक रे उपर, आहस लीधा खैंचि उरा।
घणियाँ मरे न दीधी धरती, धणियाँ उभा गई धरा।।”
राजस्थान की ही मीरा बाई का कृष्ण के प्रति प्रेम अतुलनीय है।वो संतों के बीच रहकर गीतों के माध्यम से कृष्ण के प्रति भक्ति प्रेम को व्यक्त करती थी।उनके द्वारा रचित गीत "पायो जी मैनें राम रतन धन पायो"आज भी जनमानस की जुबान पर चढ़ा हुआ है।
"
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो !
वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु किरपा करि अपनायो। पायो जी मैंने…
जनम जनम की पूंजी पाई जग में सभी खोवायो। पायो जी मैंने…
खरचै न खूटै चोर न लूटै दिन दिन बढ़त सवायो। पायो जी मैंने…
सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो। पायो जी मैंने…
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर हरष हरष जस गायो। पायो जी मैंने…"
इसी प्रकार पूर्वोत्तर लोक साहित्य की बात करें तो असम लोक साहित्य के लिहाज से समृद्ध माना जाता है।असम के लोक साहित्य के पीछे महान शंकर देव जी का योगदान अविस्मरणीय है।इन्होंने नृत्य नाटिका,भाओना आदि की रचना करके स्थानीय लोक साहित्य को जन जन तक पहुंचाया।असम में देवरी समुदाय का नृत्य गिरा एंव गिरासी यानी शिव व पार्वती के परस्पर प्रेम पर आधारित उपासना नृत्य है।इसी तरह बिहू नृत्य के माध्यम से भी भावनाओं का इजहार किया जाता रहा है।बिहू कृषि प्रधान नृत्य है लेकिन इसका मुख्य विषय प्रेम है-
"प्रथमे ईश्वरे सृष्टि सरजिले, तार पासत सरजिले जीव
तेनेजन ईश्वरे पीरिति करिले, आमि बा नकरिम किय।
अर्थात् ईश्वर ने सबसे पहले इस सृष्टि की रचना की। उसके बाद जीवों का सृजन किया। उसी ईश्वर ने प्रेम किया है तो हमें भी करना चाहिए।
यहाँ पर अनेक जनजातियां पाई जाती हैं उन्हीं में से एक मिरी या मिसिंग जनजाति के लोकगीतों को 'ओई निटोम' कहा जाता है।चूंकि ब्रह्मपुत्र नदी असम की जीवनरेखा मानी जाती है अतः यहाँ के अधिकांश लोक साहित्य का प्राण भी यही नदी है।नदी किनारे खड़े युवा जोड़े प्रेम में पूरित खूबसूरत प्रणय गीत गाते हैं।
पूर्वोत्तर का ही एक और प्रांत है अरुणाचल प्रदेश जिसे विविधता के कारण लघु भारत की उपमा दी जाती है।अरुणाचल प्रदेश भी लोक साहित्य की दृष्टि से समृद्ध माना जाता है।लोक साहित्य में यहाँ लोकगीतों के प्रति विशेष स्नेह देखा गया है।संयोग से व्यक्तिगत तौर पर इस प्रदेश में कई बार जाना हुआ है अतः नजदीक से यहाँ की लोक संस्कृति को जानने का अवसर मिला।यहाँ एक मलिनीथान नामक प्राचीन मंदिर है।कहा जाता है कि भगवान कृष्ण जब रुक्मिणी को हरण करने जा रहे थे तब इसी स्थान पर एक रात्रि के लिए रुके थे।कहा जाता है कि रुक्मिणी अरुणाचल प्रदेश की ही इदु मिसमी जनजाति से थी।इनका विवाह इनके पिता द्वारा शिशुपाल नामक राजा के साथ तय कर दिया गया था किंतु रुक्मिणी को यह मंजूर नहीं था।उन्होंने कृष्ण की वीरता के किस्से सुन रखे थे और वो मन ही मन उन्हें पति स्वीकार कर चुकी थी अतः लोक मान्यताओं के अनुसार रुक्मिणी नें ही कृष्ण को संदेश भिजवाया कि उन्हें यहाँ से ले जाएं।मालिनीथान मंदिर में आज भी यही मान्यता है व भारत भर से लोग यहाँ आते हैं।
इस प्रदेश के निवासी बहुत धार्मिक हैं व ईश्वर के प्रति प्रेम को गीतों व लोकनृत्य के माध्यम से व्यक्त करते रहते हैं।'दोनयी पोलो' यहाँ सर्वशक्तिमान ईश्वर का प्रतीक रूप माना जाता है।अपने इष्ट को खुश करने के प्रयास में बहुत से लोक गीतों की रचना हुई।दरअसल लोकगीतों के रूप में सदियों पुराने अनुभव ही होते हैं।
इसी तरह प्रणय गीतों के लिए अरुणाचल के ही तिरप जिले की वांचो व नोकते जनजाति प्रमुख है।स्थानीय भाषा में बहुत ही मधुर प्रणय गीत यहाँ सुने जा सकते हैं।यहाँ युवक युवतियां स्वतंत्रतापूर्वक गीतों के माध्यम से अपने प्रेम का इजहार करते हैं,गीतों में प्रेम पूरित कल्पनाओं व मधुर मनोभावों का योग देखते ही बनता है।
उत्तराखंड के लोक साहित्य की बात करें तो यहाँ भी समृद्ध लोक साहित्य की भरमार है।कुमायूंनी लोक साहित्य में गीत नृत्य आदि के माध्यम से लोक साहित्य को सुरक्षित रखा गया है।अनेक प्रकार के नृत्यों में से एक छपेली नृत्य
मुख्यतः प्रेम पर आधारित नृत्य है जिसमें स्त्री पुरुष जोड़ा बनाकर नृत्य करते हैं।इसी तरह न्योली नामक वन गीत जंगल में स्त्री पुरुषों द्वारा गाया जाने वाला गीत है।इसी तरह लोक कथाओं में राजुली मालूशाही की प्रेम कथा पूरे कुमायूं में उसी तरह चाव से कही सुनी जाती है जैसे प्रसिद्ध हीर रांझा और लैला मजनूं की कहानियां सुनी जाती हैं।
कह सकते हैं कि सम्पूर्ण भारत में विविधता होते हुए भी लोक साहित्य के मामले में एक समरूपता दिखाई देती है।कहने का अंदाज बदल सकता है भाषा बदल सकती है किंतु मनोभाव कमोबेश हर जगह एक जैसे ही हैं।सभी प्रान्तों के लोक गीत,नृत्य व कथाएं बेहद मनमोहक व संस्कृति की धरोहर के रूप में चिरकाल तक जीवित रहने का माद्दा रखती हैं।
-अल्पना नागर
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