तुम भी थोड़े चुप हो
मैं भी थोड़ी चुप हूँ..
ये थोड़ा थोड़ा जुड़ जुड़कर
कितना अधिक हो जाता है
जानते हो न..!
चुप्पियों के इस वीराने में
आजकल बातें कर रही हैं
दीवारें..
ताकाझांकी कर रही हैं
दीवार पर टंगी
मुस्कुराती तस्वीरें
मेरी तुम्हारी/
तस्वीर के पास रुक रुक कर
चलने का प्रयास कर रही है
एक दीवार घड़ी/
मानो कह रही हो
समय हमेशा आगे की ओर
बढ़ता है..
मुड़ मुड़ कर
पीछे लौटना भ्रम के अतिरिक्त
कुछ नहीं..!
ये वही घड़ी है
जिसे खरीदा था हम दोनों नें कभी
बेहतर समय की ख़्वाहिश में!
जाने क्यों हमें देखकर इन दिनों
फुसफुसा रही हैं
घड़ी की वो अधमरी सुइयां..!
तुम भी चुप हो
मैं भी थोड़ी चुप हूँ..!!
मुखर होते सन्नाटे में
चुप्पियों का बढ़ता शोर
कहीं बहरा न कर दे/
इससे पहले कि
आदत हो जाये
चुप्पियों को घेराबंदी करने की/
चलो न चुप्पी तोड़ दी जाए
बेजान पड़ी दीवारें सजाई जाएं..
तस्वीरों की धूल झाड़ी जाए..
बंद पड़ी घड़ी में
विश्वास की मरम्मत से
बेहतर समय को
हरी झंडी दिखाई जाए/
मैं चाहती हूँ
तुम्हे भी अखरे
हमारी चुप्पियां
और किसी रोज मेरे कानों में पड़े
तुम्हारे शब्द
'बोलो न..आखिर चुप क्यों हो..!'
-अल्पना नागर
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