युद्ध
*
गरजते हैं
युद्ध के नगाड़े
और बहरा हो उठता है
विवेक/
स्वार्थ के दो पाटों के बीच
हर बार आखिरकार
पिसती है
मानवता..!
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आकाश में
रह रह कर चमकती हैं
रोशनियां..
जनाब,यहाँ आतिशबाजी नहीं
प्राणों की बाजी है/
चकाचौंध इतनी कि
चौंधिया जाए नजरें
इसे विज्ञान का करिश्मा कहूँ या
विनाश का घोर अंधकार..!
***
युद्ध के बादल
मंडराते हैं आकाश में
और बरसते हैं जमीं पर
आँखों से लहू बनकर/
इन बादलों से ऊसर हुई जमीन पर
बरसों बरस
लहराती है फसल
नफरत और प्रतिकार की../
ये सिलसिला कब और कैसे थमेगा
युद्ध के बादलों का इससे
कोई लेना देना नहीं..!
उन्हें तो बरसना है
हर हाल में..!!
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एक झटके में
उड़ा दी गई इमारतें..
खाक कर दिए
इमारतों में बरसों से जमा सपने
सपने जिन्हें बुनने में लगा था
आधा जीवन/
अब शेष जीवन
बीतेगा किसी भयानक सपने की तरह
मगर युद्ध के आकाओं का
इससे क्या लेना देना !
वो सोये हैं चैन की नींद
और बड़बड़ा रहे हैं नींद में भी
युद्ध..युद्ध और सिर्फ युद्ध..!
*****
लहराएगा विजय परचम
हर दिशा
महत्वकांक्षाओं के महल
जगमगाएंगे/
ये रोशनियों के जगमग महल
मुबारक हो तुम्हे..
मैं चितिंत हूँ तो बस
महल की नींव में दबी
टूटी हुई वॉटर बॉटल
रंगीन पेंसिल के चंद टुकड़े और
बूढ़ी बेंत के अवशेषों के लिए..!!
-अल्पना नागर
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