Friday 24 June 2022

आलेख

 

आधुनिक कविता और उसका प्रभाव

1850 के बाद लिखी गई कविताओं को आधुनिक कविता कहा जाता है।वह दौर परिवर्तनों से भरा हुआ दौर था।प्रथम स्वतंत्रता संग्राम,संचार के साधनों का विकास,आवागमन के साधनों द्वारा संपूर्ण भारत को एक इकाई के रूप में जोड़ा जाना क्रन्तिकारी परिवर्तन था।छापेखाने के आविष्कार से पत्र पत्रिकाएं व समाचार पत्र की पहुँच घर घर में होने लगी,इसी तरह रेडियो टीवी ,शिक्षा आदि के द्वारा भी सोच में सकारात्मक परिवर्तन हुए जिसने आधुनिक कविता के प्रादुर्भाव में महत्वपूर्ण योगदान दिया।आधुनिक कविता विभिन्न तरह के आंदोलनों से होकर गुजरी।सर्वप्रथम छायावादी युग,अज्ञेय युग,प्रगतिवादी युग,प्रयोगवादी युग,से होते हुए आधुनिक कविता नयी कविता के दौर में पहुंची जिसने अब तक के सभी प्रतिमानों को तोड़कर नवीन युग का प्रारंभ किया।छायावादी युग से पूर्व पद्य भारतेंदु युग व द्विवेदी युग में विभाजित था।
नयी कविता सर्वप्रथम 1953 में इलाहाबाद से प्रकाशित पत्रिका 'नए पत्ते' में दिखाई दी।
नई कविता की प्रमुख विशेषता ये है कि यह किसी विशेष शिल्प या वाद में बंधकर नहीं चलती।शिल्प को प्रधानता न देकर भावों को प्रमुखता दी गई है,परंपराओं से विलग नई कविता में नवीन बिम्बों,उपमाओं,उपमानों,प्रतीकों आदि का भरपूर प्रयोग दिखाई देता है जो नई कविता को ताजगी से ओतप्रोत करने में भी सहायक होता है।आधुनिक कविता में संप्रेषण के माध्यम से ज्यादा संप्रेषण को महत्व दिया गया है।आधुनिक कविता में भाषा का आकाश अनंत है यह किसी एक पद्धति में बंधा हुआ नहीं है,नई कविता विभिन्न बोलचाल के तद्भव,तत्सम,अंग्रेजी,संस्कृत आदि सभी शब्दों को चुनकर लोक जीवन की अनुभूतियों को सहजता से स्वीकार करती है।आधुनिक कवि यथार्थ जीवन से विभिन्न तथ्यों को उसी रूप में स्वीकार करता है जिस रूप में वह अनुभव करता है,किसी तरह का कोई बनावटीपन नहीं।
भवानीप्रसाद मिश्र के शब्दों में -
"जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख,और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।
कितनी सहजता व सारगर्भित तरीके से मिश्र जी नें अपनी बात संप्रेषित कर दी!कविता का मुख्य उद्देश्य अभिव्यक्ति होता है,बिना लाग लपेट का एक सरल व सहज वाक्य पाठक को कल्पना के अगले वाक्य तक ले जाता है,एक अटूट तारतम्य बंधता चला जाता है।आडंबर से पूर्ण पांडित्य भरी आलंकारिक कविताएं सुनने में व देखने में अवश्य अच्छी लगती हैं किन्तु कई बार ये आम पाठक की समझ से परे होती हैं ठीक जैसे पानी की अधिकता होने पर बाढ़ की स्थिति हो जाती है लेकिन रिमझिम फुहारों से न केवल मन भीगता है अपितु वह पानी धीरे धीरे जमीन में अवशोषित होकर लाभकारी भी होता है।आधुनिक कविता पर आक्षेप है कि यह पश्चिम की नकल पर आधारित है,इसी वजह से नई कविता में नकारात्मकता,जीवन के प्रति उदासीनता आदि भाव देखने को मिलते हैं किंतु यह आक्षेप पूर्णतः सत्य नहीं है अगर हम विभिन्न आधुनिक कवियों जैसे अज्ञेय,धर्मवीर भारती,भवानीप्रसाद मिश्र,रघुवीर सहाय,केदारनाथ सिंह,नेमीचंद जैन,केदारनाथ अग्रवाल ,गजानंद माधव मुक्तिबोध,नागार्जुन,रामदरश मिश्र,भारतभूषण अग्रवाल आदि को पढ़े तो पता चलता है कि नई कविता निषेध पर आश्रित न होकर जीवन के प्रति आस्थावान कविता है,जीवन की विभिन्न विसंगतियों के बावजूद जीवन में हर्षोल्लास है, इसी खोज को तरह तरह के प्रयोगों के माध्यम से कविता में लाना आधुनिक कविता की मुख्य विशेषता है।उपरोक्त सभी कवियों में जनसामान्य के जीवन को ,समाज के अभावग्रस्त व परित्यक्त व्यक्तियों की पीड़ा को अपनी कविता में चित्रित किया है,आधुनिक कविता जन सामान्य की उपेक्षा नहीं करती अपितु उनके साथ हुए सामाजिक अन्याय व परिणामतः अभावों की स्थिति के प्रति गहरी संवेदना प्रकट करती है व उन्हें सम्मानजनक,संतोषजनक स्थान दिलाने के लिए भी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करती है।नई कविता माँ के हाथ के खाने की तरह सहज व स्वाभाविक है,हम तमाम तरह के चटपटे विदेशी पकवान खाकर भी कई बार अतृप्त महसूस करते हैं किन्तु माँ के हाथ के बने साधारण खाने से विशेष किस्म का जुड़ाव महसूस करते हैं।नई कविता भी ऐसी ही है,एकदम सहज व सरल,जिसमें स्वाद यानि अनुभूति व बुद्धि को महत्व दिया गया है न कि विभिन्न मसालों यानि छन्द, वाद या विधान को।नई कविता मनुष्य व समाज को केंद्र में लेकर आयी है।कविता को रोचक व संप्रेषणीय बनाने के लिए विभिन्न तरह के प्रयोग भी आधुनिक कविता में किये गए हैं।मुक्तिबोध जी नें तो कविता में पौराणिक व वैज्ञानिक तथ्यों को भी प्रमुखता से स्थान दिया है।आधुनिक कविता की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि यह साधारण शब्दों में भी गहरे अर्थ संप्रेषित करने की क्षमता रखती है,कई बार कवि अपनी कविता में विभिन्न सन्दर्भों को डालते हैं जिसके लिए पाठक का वृहत ज्ञान होना आवश्यक हो जाता है किंतु इससे संप्रेषण में बाधा उपस्थित नहीं होती अपितु ज्ञान क्षेत्र में ही वृद्धि होती है।नई कविता यथार्थ व बौद्धिक होते हुए भी संवेदना से शून्य नहीं है,इसकी संभावनाएं अंतरिक्ष की भांति अपार व अनंत हैं।
आधुनिक कविता में जीवन की सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु के लिए भी जिज्ञासा है,नई कविता का दायरा सीमित नहीं है,यह अपनी उड़ान के लिए खुला नीला आसमान चाहती है जिसकी कोई सीमा नहीं,बंधनों से मुक्त अभिव्यक्ति चाहती है,जिसमें सहजता से अनुभूतियों को पाठक के हृदय तक संप्रेषित किया जा सके।उसकी सीमा में अणु से लेकर अनंत आकाश की गहराइयां समाहित हैं।नई कविता आज विश्व की समृद्ध कविताओं में गिनी जाती है।
आजादी के बाद की कविताओं में रघुवीर सहाय की कविताएं प्रमुख हैं जिनमें लोकतंत्र के ढीले तौर तरीकों से लेकर दंगों, हिंसा,बेरोजगारी,नव धनाढ्य संस्कृति आदि को प्रमुखता से दर्शाया गया है।उनकी एक कविता 'फूट' की कुछ पंक्तियां देखिये-
"हिन्दू और सिख में
बंगाली असमिया में
पिछड़े और अगड़े में
पर इनसे बड़ी फूट
जो मारा जा रहा और जो बचा हुआ
उन दोनों में है।"
हम देख सकते हैं कि कितनी सहजता से रघुवीर जी नें आम आदमी की पीड़ा को व्यक्त किया है।पाठक सोचने पर विवश हो जाता है और यही अच्छी कविता की विशेषता होती है,गहरे तक उतारना और समाहित हो जाना।
आधुनिक कविता का प्रभाव जनजीवन पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।समय के साथ तौर तरीके भी बदलते हैं,आधुनिक कविता नें गेयता व लयात्मकता की परंपरा को तोड़ा है,जिससे इसका कलापक्ष अवश्य प्रभावित हुआ है किंतु लय, छन्द आदि से विहीन होने पर भी इसका बौद्धिक पक्ष और भी मजबूत हुआ है।वर्तमान में जिस तरह की तेज रफ़्तार जीवन शैली है उसे देखते हुए आधुनिक कविता अपने उद्देश्य में पूर्णतः सफल है।आधुनिक कविताएं इसलिए भी लोकप्रिय होती जा रही हैं क्योंकि वे सीधी सादी भाषा के माध्यम से संप्रेषित होती हैं,उनमें किसी तरह का आडंबर या बनावटीपन नहीं होता,पाठक सहज रूप से स्वयं को कविता के साथ अनुभव करता है।लोक परिवेश से गहरा जुड़ाव व जनजीवन में अगाध विश्वास पाठकों को सहज ही लेखक से संबद्ध करता है,अनुभूति की कसौटी पर आधुनिक कविता खरी उतरती है।इसका अपना सौंदर्य ,आनंद व लालित्य है।

अल्पना नागर

Sunday 19 June 2022

पिता के लिए

 

पिता के लिए

पिता वो जो
संतान की शिक्षा दीक्षा और
विकास के लिए
बन जाता है
कोरा पन्ना..
जिसपर अंकित होता रहता है
समय का महाजनी ब्याज/

पिता वो जो
दुनिया के मेले में कसकर थामता है
संतान की उँगली
भले ही देख न पाती हो
उसकी आँखें
मेले के रंग/
वो बिठाता है संतान को
अपने काँधे पर
महसूस करता है
मेले की रंगीनियां
संतान की उत्साही उँगलियों से/

पिता वो जो
सांझ ढले घर लौटने पर
बाहर पायदान पर ही छोड़ आता है
थकन और उदासी की धूल और
भरकर लाता है झोले में
खुशियों के मीठे फल/

पिता वो जो
रक्तिम आँखों से
पीठ मोड़ लेता है..
बिटिया की विदाई पर
ताकि कमजोर न होने पाए
रिवाजों की कड़ी/

पिता वो जो
जिंदगी भर धूल फांकता फिरता है
संघर्षों की सड़क पर..
उठाता है कंकड़ पत्थर रास्ते के
ताकि सुगम हो सके
संतान का जीवन परिपथ..!

-अल्पना नागर

Saturday 18 June 2022

बारिशें नहीं जानती दुनियावी सलीके

 

चलो अच्छा है,
कम से कम बारिशें नहीं जानती
दुनियावी सलीके

ये करती है
कहीं से भी घुसपैठ
मानो घूम रहा हो
हाथ फैलाये
शरारती कोई रॉकेट बच्चा/
खिड़की के इस पार
सांकल तोड़
भीगने लगता है तरल मन
छूट जाती है
सूखी देह
खिड़की के उस पार ही कहीं..!

बारिश के बादल
घुमड़ने लगते हैं
उम्रदराज़ आँखों में/
मन की दरकती ज़मीन पर
भरने लगती हैं दरारें
नम होने लगते हैं
धरती की कोख में
अलसाये पड़े
बंजर स्वप्न..
न जाने क्या क्या उगने लगता है
आँखों की कोरों में
और ये सब होता है
बारिश के जमीन पर पांव रखने से
बहुत पहले..!

-अल्पना नागर

बारिश

 

बारिश बचपन की स्वरलिपि है

हाँ,मेरा बचपन बसता है
इन बारिशों में
झंकृत हो उठती हैं
हजारों पायलें
और एक बार फिर
चलाई जाती हैं
फुरसत के लम्हों पर
कागज़ की नावें
और चहकते चप्पू..
पहुँच जाती हूँ
मासूम सवालों की
टोलियों के बीच
जो कौतूहल भरी निगाहों से
देखती हैं हर चीज़
ये आसमां के उस सिरे से
ज़मीन तक टंगी
लम्बी पनीली झालरें
किसने बनाई !
या सरोवर में गिरती
टुपुक टुपुक
बूँदों की जलेबियाँ
कौन बना रहा है !
बूँदें गिरते ही
मिट्टी से
इत्र का ढक्कन
किसने खोला !
किसने उकेरे बादलों में
ढेर सारे सुनहरे चित्र!!
बिजली से कौंधते
सवालों के जवाब
चाहती हूँ कभी न मिले
इन्ही सवालों की उँगली थामे
लौट आता है बचपन
और जिंदा हो उठती हैं
मुझमें छुपी हुई बारिशें...

-अल्पना नागर

Friday 17 June 2022

हमसाया

 हमसाया


ठहरा हुआ समय 

उस रोज़ जरा रिसते हुऐ गुजरा ,


रुधिर से

शिराओं तक 

गुजरते वक़्त को महसूस 

करता हुआ अवचेतन 

जानता है सृष्टि का नियम 

विगत कब लौट कर आता है..

सिवाय क्षणिक स्मृतियों के !!


इंतजार में बोझिल दिन को 

पलकों से उतारनें की

कोशिश में ओढ़ के बैठी थी 

कुछ धुंधले लम्हों की

गरम शॉल,

कुछ लम्हे अभी भी 

बालकनी में धूल सनी टेबल पर

टिके हुऐ थे..


नज़रें देर तक दिनकर को 

ओझल होते देख रही थी 

शून्य को निहारती निर्निमेष नज़रें..

लालिमा घिर आई थी 

आसमां में ,

आँखों के कोरों में...!


उस रोज़ शाम जरा देर से आई ,

स्मृतियों के उठते भँवर में 

सिनेमा के फ्लैशबैक की तरह 

तैरने लगे 

कुछ ब्लैक एंड व्हाईट दृश्य 

आँखों के सामने,

अवसाद के बेहिसाब टुकड़ों की 

आवाजाही के बीच 

मौन से भिड़ती हुई चेतना 

चुभते हुऐ अलंकारों को उतार

तैरने लगी शब्दों की नदी में,

किनारे तक पहुँचने की 

जद्दोजहद में 

निःशब्द,संवेगशून्य सी 

दूर तक बह निकली..


तभी कलम नें हौले से 

हाथ थामा 

मानो कह रही हो 

"मैं तुम्हारी हमसाया हूँ 

मुझे खुद से दूर न किया करो "


-अल्पना नागर


Thursday 28 April 2022

उड़ान - कविता

 उड़ान


अक्सर ये देखा गया है

ऊँची उड़ान रखने का माद्दा रखने वाले पंख

रोक दिए जाते हैं..

"बाहर कड़ी धूप है,पंख झुलस जाएंगे,

तूफ़ान की आहट है,पंख भीग जाएंगे,

ऊँचाई पर मंडराते हैं गिद्ध,नोच डालेंगे..!"

ठीक उसी वक्त ठहराव की पीड़ा

होने लगती है घनीभूत,

पीड़ा जो झुलसने,भीगने या नुच जाने के खौफ से कहीं अधिक कष्टकारी है..!


ठहराव के उन मौत समान क्षणों में ही

भीतर ही कहीं जन्म लेती है

शक्तिशाली प्रेरणा

प्रेरणा जो पूरी ताकत के साथ

धकेलती है जंग खाये खौफ़जदा पंखों को

बाहर की ओर,

भारीपन छूटने लगता है

पंख महसूस करते हैं स्वयं को

बेहद हल्का..

और क्यों न करें..यही उनकी प्रकृति है

नियति है,स्वभाव है..!


घने बादलों के बीचोंबीच गुजर कर भी

पंख भीगते नहीं,

अनंत ऊंचाइयों के सूरज को स्पर्श करते पंख

न झुलसते हैं न टकराते हैं,

और गिद्ध..!

वो तो दूर दूर तक दिखाई नहीं देते,

अद्भुत नजारे का साक्षी व्योम

गुंजायमान हो उठता है,

आनंद के वो क्षण आकार लेने लगते हैं

सुंदरतम शाश्वत सुरीले गीतों का..

गीतों में खुलते हैं रहस्य

उन्मुक्त उड़ान की अनंत गाथाओं के

हर गाथा जैसे दोहराती है एक ही बात

उड़ानें पंखों से अधिक

हौसलों से उड़ी जाती हैं,

और आसमान ये बात जानता है..!


-अल्पना नागर


Thursday 21 April 2022

दबाव

 दबाव


हर कोई बचता है

दबाव से

ज़ाहिर है..क्यों न बचें !


एक युग तक दबती रही स्त्रियां

घूँघट,चारदीवारी और संस्कार के दबाव तले,

किसान दबता रहा

अंगूठे और महाजनी बहीखातों के दबाव तले,

साहित्य दबता रहा

भावविहीन अलंकृत क्लिष्ट भाषा के दबाव तले,

इंसान दबता रहा

रंगभेद,जातपात और दकियानूसी बंधनों के दबाव तले..!


हाँ,मगर सच है

दबाव की अधिकतम सीमा के बाद

शुरू होती है मुक्ति की दास्तान..!


बिल्कुल जैसे जल से भरे मेघ

मुक्त कर देते हैं स्वयं को

एक निश्चित दबाव के उपरांत..!

मिट्टी में सोया पड़ा नन्हा बीज

मुक्त कर देता है स्वयं को

और दरारों से फूटने लगते हैं

सृजनधर्मी विद्रोह के अंकुरण..


दबाव मस्तिष्क में उपजता है और

पन्नों पर उतरता है बेखौफ़,

कलम का दबाव न हो तो

कहाँ सम्भव है प्रगतिशील विचारों का सृजन !


आविष्कार हुए 

आवश्यकता के दबाव तले,

दबाव ही लेकर आता है

मेघ,बीज,आविष्कार या शिशु को जीवन मंच पर..

दबाव उचित है और बेहतर भी

किंतु एक हद तक..!


-अल्पना नागर



Wednesday 20 April 2022

तथागत

 तथागत


अक्सर 

कभी कभी

जीवन्मृत अवचेतन

चाहता है 'तथागत' होना,

स्वयं से बाहर निकल

स्वयं के सम्मुख होना!

वो चाहता है कि

उठे,और मुक्त कर ले

स्वंय को इंद्रियों के जंजाल से,

बस,इतना ही!!

बुद्ध के पथ का अनुसरण

कितना सरल

कितना सहज

मध्यम मार्ग का अनुकरण!

आह!किन्तु एक समस्या है,

आवश्यकता है

'अवगत' होने की,

तुच्छ एषणाओं से विलग होकर

अन्तर्विकारों के

'महाभिनिष्क्रमण' की!


-अल्पना नागर


Tuesday 12 April 2022

गड्डमड्ड कथा

 गड्डमड्ड कथा


देख कर चलिये जनाब

जीवन की राह में

गड्ढे बहुत हैं,

ऊँचे नीचे

सतही गहरे

हर तरह के गड्ढे !


रखो आँखों में 

आसमान

मगर पैरों तले जमीन है

भूल न जाना..!

गर भूले तो

लड़खड़ा कर 

गिर पड़ोगे,

हँसी का पात्र बनोगे,

तुम असहाय देखोगे 

नजर उठाकर कि

कोई हाथ बढ़े 

तुम्हारी ओर

मगर आह..!

लोग गुजर जायेंगे

तुम्हारे इर्द गिर्द से..

ठीक वैसे ही जैसे

गुजरती है

आम जन की

फरियाद

मंत्री जी के 

अगल बगल से..!


देखना जरा

कुछ खोदे जाते हैं

जानबूझकर

तुम्हारे अपनों द्वारा ही..!

कुछ अपने द्वारा भी..!

दोनों ओर से 

निस्संदेह

गिरना तुम्हें ही है..!

ये जो कई परतों का

काला चश्मा 

लगाये रहते हो

चेतना पर हरदम

उतारना होगा..!

वरना तैयार बैठे हैं गड्ढे

पलकें बिछाए

बची खुची जिंदगी को

गड्डमड्ड करने के लिए..!


- अल्पना नागर

फंदे

 फंदे


शहर आ गया है दूर तक

लंबे डग भरता हुआ

किसी दैत्य की तरह..

उसकी गिरफ्त में आते जा रहे हैं

खेत खलिहान

खुले मैदान

गांव के गांव/


दैत्य शहर की भुजाओं पर

झूल रहे हैं अनगिनत फंदे

जिनमें फंसी हुई है

किसान की गर्दन/


बिल्डर को हमदर्दी है

अत्यधिक हमदर्दी

उन झूलते हुए ढीले फंदों से !


चांदी की सीढ़ी पर चढ़

वो लगा रहा पूरा जोर

कर रहा हाड़ तोड़ मेहनत

फंदों को और जोर से कसने में..!


-अल्पना नागर


Saturday 9 April 2022

कभी कभी

 कभी कभी


कभी कभी 

दिल चाहता है

दिल न रहे सीने में

कभी कोई बुरी न लगे बात/

रोबोटिक दुनिया में

भावों का न रहे कोई काम..

उधड़े जज़्बात

बेक़ाबू ख़यालात

कहीं न रहे कोई विरोधाभास/


और अगर दिल रहे तो

रहे पूरी दृढ़ता से

कि दिमाग की चालाकियां

न कर पाएं अतिक्रमण रत्ती भर भी/


दिल चाहता है

मुक्त हो जाये पृथ्वी

सभी तरह के कलुषित संक्रमण से..

कंटीली सरहदें मिट जाएं

मानवता की फसल लहलहाए/

कोई स्थान न रहे

तुष्टिकरण और हठधर्मिता के लिए..

नेस्तनाबूद हो जाये

हिटलर मुसोलिनी या जिन्ना के

उत्तराधिकारी संक्रमित विचार/

आकाश की ओर नजर जाए तो

सिर्फ नजर आएं

सूरज चांद सितारे या

बादलों की कलाकृतियां/

खूब झमाझम बरसे 

खुशियों की हरियाली सौगात

कि स्वप्न में भी दिखाई न दे

विनाश की आतिशबाजियां


दिल चाहता है

संक्रमण अगर फैले तो सिर्फ

संवेदना और इंसानियत का

कि जहाँ भी नजर जाए

संक्रमित दिखे धरती गगन और जलवायु

उन्मुक्त हँसी और खुशी के फव्वारों से..!

कभी कभी दिल चाहता है

बिना किसी कृत्रिम उपकरण की बैसाखी के

दिल से दिल तक सीधी पहुँचे बात

अहम की दीवारें ढह जाएं

बिचौलिए पूर्वाग्रहों का न रहे कोई काम/

आपका दिल क्या चाहता है..?

-अल्पना नागर





Friday 8 April 2022

सफेद चादर के लाल फूल

 सफेद चादर के लाल फूल


मंडप पर फूल बरसाए जा रहे हैं

दूल्हा दुल्हन सदा के लिए एक होने जा रहे हैं

मगर रुकिए..!!

एक होने की प्रकिया पर अभी लगनी है मोहर

प्रतीक्षा में खड़े सामाजिक ठेकेदारों की/

दुल्हन बीए पास है

मगर असली इम्तेहान तो अभी बाकी है..

दुल्हन का चेहरा फक्क

कलेजा धोंकनी सा धक्क..!


कुछ ही क्षणों में लगेगी प्रदर्शनी..

निहायती अंतरंग बनाम सार्वजनिक पलों में

उसे अंकित करने होंगे

रिवाजों की सफेद कोरी चादर पर

कौमार्य के लाल चटख फूल..!!

मानो उसका अब तक का जीवन कुछ नहीं

सिवाय सफेद चादर के..!

उसके आने वाले जीवन में

रंग भरे जाने हैं या नहीं

इसका फैसला करेगी 

यही सफेद चादर और उस पर अंकित

लाल फूल..!


कहीं मैली न हो जाये

धब्बों से बचाया होगा/

न जाने कितनों से छुपाया होगा

अपनों से परायों से

आवारा घूमती धर दबोचती गिद्ध नजरों से/

कितने ही जतन से संभाले रखा होगा

वर्षों तक यौवन की सफेद चादर को

प्रदर्शनी के इस खास दिन के लिए..!


दौड़ रही होंगी लड़कियां

दुनिया के किसी कोने में या फिर

बगल के ही किसी दूसरे छोटे मोटे गांव में/

वो लहरा रही होंगी परचम

दिखा रही होंगी मैदान में दमखम

मगर दुनिया के इस कोने में अभी

वो व्यस्त है

स्वयं को 'खरा माल' सिद्ध करने में..!!


बिल्कुल..एक निर्जीव माल से इंच मात्र भी अधिक जिसकी उपयोगिता नहीं..!

माल 'खरा' तो दी जाएगी उसे इज्जत

आग में तपकर निखरे सोने जितनी/

वरना जलाया जाएगा 'खोटे सिक्के' को

समाज की नैतिक भट्टी में

उड़ेला जाएगा उसके कानों में

हर रोज बदचलन औरत के तानों का

पिघला शीशा..!


दौड़ती भागती 

जमाने संग क़दमताल करती लड़कियों से इतर

उस खोटी लड़की के कदम वहीं रुके हैं/

उसे दिखाई दे रही है

अपने बदन पर लिपटी बेड़ियों सी सफेद चादर/

दूर दूर तक अनेकानेक मंडप

और मंडप के इर्द गिर्द फंदा बनी

अनगिनत सफेद चादर..!

आज बड़े दिनों बाद 

उसकी आँखों से बह निकले हैं

अंगार से सुलगते चटख लाल फूल..!


-अल्पना नागर












Thursday 7 April 2022

छोटी छोटी बातें

 छोटी छोटी बातें


बातों से निकलती बातें

बातों ही बातों में खूब बनती बातें

तिल से शुरू हुई

ताड़ पर ख़त्म होती बातें/

राई का पहाड़ बनती बातें

सुई सी दिखती

तलवार सी चुभती बातें..!


शब्दों की क्या मजाल कि

भावनाओं को तोड़ दे

बित्ति भर चिंगारी भरे पूरे जंगल को

राख बनाकर छोड़ दे..!

मगर ये होता है

अर्थ का अनर्थ कर देती हैं

जरा सी लगती निरर्थक बातें/

शब्द हो या चिंगारी

जितने लघु उतने ही भारी..!


आवेश का तूफान

घटनाओं का रुख मोड़ देता है

तरकश से निकला

छोटा सा तीर

समंदर के दर्प को तोड़ देता है


बात छोटी सी थी

मगर लग गई

रामबोला को तुलसीदास कर गई !!


छोटी हों या बड़ी बातें

तोल मोल कर निकलें तो

संसार बदल देती हैं बातें..!

अक्सर एक विचार से उपजी

महाकाव्य में तब्दील हो जाती हैं

छोटी छोटी बातें..!


-अल्पना नागर


सच्चरित्र औरतें

 सच्चरित्र औरतें


दुनियाभर की सच्चरित्र औरतों !

किसी भी हाल में लगने नहीं देना

चरित्र पर दाग/

मरते दम तक बनी रहना

आटे सी नरम और लचकदार

ढकी रहना ऊपर से नीचे तक/

ध्यान रहे लगने न पाए

बाहरी हवा..

नहीं तो पड़ जाएगी चरित्र पर

बदनुमा काली पपडियां..!

सच्चरित्र औरतों

ये सब तुम्हारे हित में ही तो है!


तुम्हे सीखने होंगे

पति को रिझाने के नित नए प्रयोग..

अगर नहीं आते ये तामझाम तो

चिंता न करो

दुनियाभर की किताबें भरी पड़ी हैं

तुम्हे कुशलतम पत्नी बनाने के नुस्खों से/

कि कसी हुई चोली और नोंकदार एड़ी की 

सैंडिल काफी नहीं है

तुम्हे आकर्षक दिखाने के लिए/

संस्कारों की घुटनों तक छूती 

लंबी काली चोटी भी बहुत जरूरी है

कि जरूरत पड़ने पर

घोड़े की लगाम सी संस्कारी चोटी

खींचकर सही रास्ते लाई जा सकती है/

खुले और छोटे कटे बाल यानी

घोर सर्वनाश..! विद्रोह की शुरुआत..!!


सच्चरित्र औरतों

ये बात गुँथी हुई चोटी में अटके

फीते की तरह गाँठ बांध लो

कानों के पर्दे हमेशा खुले किंतु

मुँह के दरवाजे सिले हों..!

आँखों में याचना और कमतरी का अहसास ही

गुरुमंत्र है सफल शादीशुदा जीवन का..!!


पति के हृदय तक पहुंचना है तो

खुद के तमाम मसलों को दरकिनार कर

गुजरना होगा तेल मसालों के तीखे छोंक से/

खुद को बनाना होगा

बेहद जायकेदार

एकदम झालमुरी के ठोंगे सा

जिसमें समाहित होती जाएं एक से बढ़कर एक

तमाम चटपटी 'स्किल्स'..!

अगर चाहती हो कि पकड़ में आएं

सफल शादी के गुर...

तो लेना होगा प्रशिक्षण

एक टांग पर खड़े रहकर

एकाग्र होने का

बिल्कुल बगुले की तरह..!


आखिर यही तो हैं वो टोटके

जिनसे बनी रहोगी तुम आखिर तक

सच्चरित्र औरत/

इन्हीं से पूर्ण होगी तुम्हारे जीवन की यात्रा

और तुम्हारे जन्म लेने का उद्देश्य..!

तुम उनके दिए चरित्र के तमगों को

सिर माथे लगा 

अगर धारण करती हो आजीवन तो

निस्संदेह तुम सौभाग्यवती हो..!

सच्चरित्र औरतों

आखिर और क्या चाहिए 

जीवन को जीवन कहलाने के लिए..!


-अल्पना नागर


Tuesday 5 April 2022

तारीखें

 

तारीखें

क्या कभी महसूस किया है
चलते चलते पृथ्वी का यूँ अचानक रुक जाना
जैसे टूट गया हो घूमता हुआ चाक
कुम्हार के हाथों से ही..!
और रह गई हो पृथ्वी
एक बार पुनः अधूरी/
पृथ्वी का बनना सम्पूर्ण नहीं होता कभी
वो बनती है बिगड़ती है हर रोज!
जिस रोज सम्पूर्ण हो जाएगा उसका निर्माण
हम तुम भी हो जाएंगे पूर्ण/
सर्पिलाकार आकाशगंगा में
असंख्य नक्षत्रों के बीच
मौजूद होगा हमारा भी शाश्वत अस्तित्व
उस रोज मुक्त हो जाएंगे हम तुम
जन्म मरण के चिरकालिक चक्र से/

मगर तब तक लौटना होगा हमें
दीवार पर टंगे कैलेंडर की ओर!
कैलेंडर जो मात्र तारीखों की शरणस्थली नहीं
और न ही नीली स्याही का महाजनी खाता/
यहाँ तारीखें अनंतकाल से यूँ चिपकी हैं
गोया तारीख न हों,शाश्वत सितारे हों !
सितारे जो घूमते घामते
यूँ ही कभी
आकाश से टपककर
टंग जाते हैं
ललाट के बीचोंबीच बनी
आड़ी टेढ़ी रेखाओं में/
और घिस जाती हैं जूतियां
उन्हीं रेखाओं की भूलभुलैया के बीच
स्वयं को खोजते हुए..!

तारीख के सितारे
लगाते हैं चक्कर उम्रभर
जनवरी से दिसंबर तक/
मानो ऊष्मा की तलाश में
अलसुबह निकला कोई मुसाफ़िर
शाम को फिर वहीं आकर
धोता हो हाथ मुँह
बर्फ सी ठंडी उम्मीद को अंजुरी में भर/

न जाने कितनी बार बदली है
इन महीनों की तासीर!
चौसर नें कहा था "अप्रैल मधुर महीना है..!"
इलियट नें कहा "अप्रैल निर्दयतम महीना है..!"
चौसर से लेकर इलियट तक
बस इतना ही हेर फेर हुआ है..!!

मगर ये हृदय
थोड़ा पुराना है..
शायद चौसर के जमाने का!
तमाम मसलों के बावजूद
ये इत्तेफ़ाक नहीं रखता
इलियट की कही उस बात से/
इसे मालूम है तो बस इतना कि
"मधुरतम है अप्रैल का महीना.."!!

-अल्पना नागर

Saturday 2 April 2022

अनचाही कोशिश

 अनचाही कोशिश 


खिलंदड़

वाचाल 

बेबाक...,

खिले फूल सी 

एक खूबसूरत लड़की/


एक अरसे बाद देखा उसे 

नुक्कड़ वाले पीपल के नीचे 

किसी अनचाही कोशिश में थी 

शायद मुस्कुराने की...!


सोने के गहनों में लिपटी 

बेहद चुप चुप..

क्या हुआ इसे ?

ये छुईमुई तो नहीं थी कभी !

चेहरा आज भी चाँद..

मगर इस चाँद की चमक फीकी कैसे !!


ध्यान से देखा आँखों को 

गहरे काले घेरे/

घेरों में घिरे बेहिसाब सवाल 

अधूरी नींदें और कुछ 

अधूरे ख्वाब 

ढुलक आये थे 

चाँदी जैसी गोल बूँदों में/

गहनों की चमक से पीला पड़ा शरीर 

सचमुच पीला फक्क चेहरा !

नज़र पड़ी रक्तिम सिंदूरी ललाट और 

एक वजनी मंगलसूत्र पर..

हाँ, सचमुच वजनी !!


कुछ और भी देखा..

सिंदूर की लालिमा 

आँखों तक उतर आई थी 

अलाव सी शून्य को ताकती 

काले बादलों से घिरी 

बरसने को आतुर 

सिंदूरी आँखें..!

एक अरसे बाद देखा उसे 

नुक्कड़ वाले पीपल के नीचे 

मन्नत के धागे उतारते हुऐ...


-अल्पना नागर







Friday 1 April 2022

मन

 मन


तेरा मन या मेरा मन

चाहे बस ये अपनापन


तन की नाव में

मन इक नाविक/

जाने कौन दिशा ये जाए..!


तन का पिंजरा

मन न जाने/

दूर कहीं ये उड़ना चाहे


तन कठपुतली

मन बाजीगर/

करतब रोज दिखाता जाए


सुलझे शांत धीर धरे मन में

दुनियादारी की उलझन


तहखाने से मन के भीतर

जाने कितने और हैं मन..!


मिट्टी सा कच्चा

निर्मल और सच्चा/

बना रहे ताउम्र

मन तो इक बच्चा..


मन अतरंगी

मन सतरंगी/

इसके वश में दुनिया सारी


मन को जो वश में कर पाए

वही संत और बुद्ध कहलाये..!


-अल्पना नागर



Wednesday 23 March 2022

ढलता सूरज

 सूरज ढल रहा है


बहुत से ऐसे मौके आएंगे

जब जीवन के आकाश में

दुविधाओं के घने बादल छाएंगे...

सुख का वो सूरज

जो अब तलक था

ऊर्जा का असीम पिटारा..

धीरे धीरे ढलता जाएगा


ढलता जाएगा

पिघलता जाएगा/


ठीक उसी वक्त

मेरे मित्र..

तुम देखना आकाश में

उन्हीं बादलों से निकलती 

आंखमिचौली करती

इंद्रधनुषी झिलमिल किरणें/


तुम देखना

थोड़ा मन्द पड़ा

निस्तेज हुआ ढलता सूरज 

किंतु वही तो है

जो दमकता है सुर्ख रोली सा

सांझ के माथे पर..!

कभी देखना

उसके ढलने पर ही

नहाती है रात

शुभ्र शीतल चांद की चांदनी में..!


थोड़ा हाथ बढ़ाकर

बस एक बार पलट देना सूरज..!

सांझ के उस पार

तुम्हें नज़र आएगा 

हंसता मुस्कुराता भोर का सूरज..


मित्र..

ये सच है

जीवन की सांझ में

सूरज ढलने लगता है

किंतु

सूर्यास्त के बिना

सूर्योदय संभव नहीं...!

-अल्पना नागर

Tuesday 15 March 2022

कवि

 *छंदमुक्त रचना*

*कवि*


"कवि "


कवि कौन है ?

एक स्वादविहिन 

नितांत एकाकी मनुज 

जिसकी अन्यमनस्कता 

हताश करती है 

नज़दीकी लोगों को !!


आक्षेप यहाँ तक हैं कि 

समय का अकाल सर्वथा रहता है 

कवि के पास 

एक ही समय में घोर आशावादी 

और निराशावादी के 

चोले बदलता हुआ !!


चलिये मिलते हैं किसी कवि से ,

वो मिल जायेंगे आपको 

एक छोटे मकान के 

दालान में 

विचारों की भूमि 

तैयार करते हुऐ/

कुछ क्यारियों में

बीज डालते हुऐ 

अंदर ही अंदर पनपते 

छोटे बड़े पौधों से

मौन वार्तालाप करते हुऐ/


देखना वो मिल जायेंगे आपको ,

आकाश की ओर

टकटकी लगाकर देखते हुऐ 

नैराश्य के रिक्त आकाश में 

घने बादलों की 

संकल्पना लिये...


तो कभी 

घने बादलों के पार 

आदित्य के रमणीय 

स्वरूप की 

परिकल्पना लिये हुऐ 

वो मिल ही जायेंगे/


वो भी उस समय 

जब तुम और मैं 

उम्मीदों के बाँध टूटने पर 

हताश निराश हो 

किनारे पर ठहर गये हों..!!

-अल्पना नागर

जानती हूँ

 जानती हूँ


जानती हूँ !

ये वसंत का समय नहीं..

वृक्ष हो रहे हैं

पुष्प और पत्रविहीन/

किन्तु फिर भी

मैं चुन रही हूँ

मुरझाए हुए पुष्प

रिक्त हो चुकी टोकरी में

वसंत का स्वप्न आँखों में लिए/


कुंज गलियों में 

पत्तों का गिरना जारी है

किन्तु फिर भी प्रिय,

तुम्हें पता है न!

मन की बगिया में कभी

पतझड़ नहीं होता..!


-अल्पना नागर



Sunday 13 March 2022

लघुकथा

 लघुकथा

कर्ज का बोझ


'बेटी,मुझे तेरे फैसले पर कोई संदेह नहीं..पर जो तू कर रही है..ठीक है! सोच लिया तूने अच्छे से..?'

'जी,पिताजी..।' प्रतिभा के चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक थी।

प्रतिभा नें मुंबई के प्रसिद्ध कॉलेज से एमबीए की डिग्री हासिल की थी।बहुत अच्छे अंकों से सफलतापूर्वक उच्चतर व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण की थी।बहुराष्ट्रीय कंपनी में लाखों के पैकेज पर कार्यरत भी थी।किंतु एक दिन अचानक वो सब कुछ छोड़कर गांव आ गई।

'पिताजी,मैं वहाँ नौकरी नहीं कर सकती।अजीब सी घुटन होती है।आपने पुरखों की जमीन बेचकर कर्ज लेकर मेरी शिक्षा सम्पूर्ण कराई..लेकिन मुझे लगता है,मैं इन सब के लिए नहीं बनी हूँ..।' 

प्रतिभा नें गांव की ही जमीन पर ऑर्गेनिक कृषि की शुरुआत की।समस्त गांव के लिए ये बात किसी अजूबे से कम नहीं थी।एक तो लड़की ऊपर से गैर पारम्परिक कार्य..खेतीबाड़ी के प्रबंधन संबंधी कार्य को अब तक सिर्फ पुरुषों तक ही सीमित माना जाता था,हाँ महिलाएं सहयोग जरूर करा सकती थी।लेकिन इन सबसे अलग प्रतिभा नें ऑर्गेनिक खेती का विकल्प चुना।धीरे धीरे गांव के ही जरूरतमंद लोगों को सहयोग के लिए दैनिक नौकरी पर रख लिया।प्रतिभा के बुद्धि चातुर्य और व्यावसायिक शिक्षा के असर से ऑर्गेनिक खेती भरपूर फलने फूलने लगी।आसपास के सभी गांवों व कस्बों तक उसकी फल सब्जियां जाने लगी।खेत से सीधे घरों तक डिलीवरी के विचार का लोगों ने खुले दिल से स्वागत किया।इस छोटे से विचार से न केवल प्रतिभा को आत्मिक संतुष्टि मिली बल्कि गांव में रोजगार की राहें भी खुली।अब उसके गांव की विशिष्ट पहचान बन चुकी थी।ग्रामवासियों का जीवन स्तर सुधर रहा था।

'मैनें कहा था न पिताजी..मैं नौकरी के लिए नहीं बनी हूँ।'प्रतिभा नें पुरानी बात दोहराई।

'मुम्बई में काम के दौरान हर दिन मुझे लगता था कि कोई बहुत बड़ा बोझ मेरे सीने पर रखा है।मेरे गांव का मुझपर कर्ज बाकी था,जिसकी मिट्टी में बड़ी होकर मैं यहाँ तक पहुंची सिर्फ इसलिए कि विदेशी कम्पनियों को फायदा पहुंचा सकूँ..!नहीं पिताजी..अब समय आ गया कि गांव को सूद सहित उपहार लौटा सकूँ।'गर्वीली मुस्कान से प्रतिभा का चेहरा दमक रहा था।

प्रतिभा के पिता की आँखों में खुशी के आँसू थे।उन्हें भी लम्बे समय बाद काफी हल्का महसूस हो रहा था।


- अल्पना नागर

मोहलत

 मोहलत


एक अरसे बाद मिली है मोहलत सस्ती सी

भरे ट्रैफिक में फंसी गाड़ी जैसी

न आ सकें इधर 

न लौट सकें उधर..!

घूम रहे हैं स्मृति दृश्य नजरों के सामने

सिनेमा में चल रहा हो जैसे

चलचित्र कोई..!


तू गाड़ियों सी सरपट

दौड़ती भागती

मैं सड़क सी स्थिर

वक़्त की धूल धूप और 

मौसम की मार झेलती

किंकर्तव्यविमूढ़ सी..!


बस एक अहसान ही कर दे

थोड़ी मोहलत दे दे ज़िन्दगी..


अभी तो कोरे पड़े हैं

हिसाब किताब के पन्ने

कुछ जोड़ने और कुछ घटाने के फ़साने..

और देखते ही देखते

ख़त्म हो गई स्याही..!

चलो अच्छा हुआ..!!

हिसाब किताब और जोड़ घटा के उसूलों से दूर

मिलूँ तुझसे तेरे ही अंदाज में/

चाय की टपरी पर

बरसों पुराने किसी दोस्त की तरह

कुछ कहूँ अपनी

कुछ सुनूँ तेरी..

थोड़ी मोहलत तो दे ज़िन्दगी..!!


कि घुटने लगा है दम 

सजी धजी मेकअप पुती

दुल्हन भाषा का/

उसे सहजता की सादी ओढ़नी का उपहार दूँ!

दिखाऊँ उसे कड़ी धूप का आकाश..

ले जाऊं बारिश के बीचोंबीच/

कि होते हैं वसंत के अलावा भी

कई और मौसम..!

जाड़े की सर्द हवाओं और

गर्मी की तपन का अहसास दूँ..!


वो अँधेरा कोना 

जहाँ दम तोड़ देता है प्रकाश

तगारी ढोता बचपन..वो लोहे का बना लुहार..

मजबूरी की धूल में आकंठ सनी मजदूरिन..

वो चतुर्थ श्रेणी का फॉर्म भरते

पीएचडी धारी युवाओं की कतार/

रेड लाईट एरिया के अनचाहे कुकुरमुत्ते..

वो पेट को पीठ पर बांधकर घूमती

कचरा बीनती भूख/

बस उन्हीं के आसपास

उन्हीं की भाषा में

संवाद कर आऊँ/

ओढ़ लूँ कविता का सादा लिबास

थोड़ा उनकी सुनूँ

थोड़ा अपनी कह आऊँ..!


उन तमाम सीलन भरी मानसिकताओं को

खुले विचारों की धूप दिखा दूँ/

गर मिल जाये थोड़ी मोहलत

ए ज़िन्दगी..

अनुभव के धागों से बुनी

अक्षरों की चादर

तुझे लौटा दूँ..!


-अल्पना नागर


Tuesday 8 March 2022

लघुकथा

 लघुकथा

महिला सशक्तिकरण


"आपको महिला सशक्तिकरण पुरस्कार देते हुए हमें अत्यंत हर्ष की अनुभूति हो रही है।निस्संदेह आप इसकी हकदार हैं।" फोन के दूसरी ओर से आवाज आयी।"

"बस मैं थोड़ी देर में ही निकल रही हूँ..

हाँ..हाँ समय पर पहुँच जाऊंगी..।" दर्पण में स्वयं को निहारती सुमित्रा नें फोन पर उत्तर दिया।

"ये तो मेरा सौभाग्य है कि महिलाओं के हित में कार्य करने का अवसर मिल पा रहा है।विशेष रूप से निचले तबके की महिलायें जो बराबरी से सम्मानपूर्वक जीने की उतनी ही हकदार हैं जितने कि पुरुष..!"

मेकअप का फाइनल टच देते हुए फोन पर मधुर और विनीत आवाज में सुमित्रा नें कहा।

"दीदी जी..एक बात कहूँ..।"रसोई में काम करती कामवाली बाई नें झिझकते हुए पूछा।

"हम्म..मैं थोड़ा जल्दी में हूँ.. जल्दी कह जो भी कहना है..।"

"वो दीदी जी..आप ना आज बहुत ही सुंदर लग रही हो..बिंदी काजल में आपको कम ही देखती हूँ ना।आप रोज लगाया करो।"एक ही सांस में बात खत्म करती बाई नें कहा।

"अपनी औकात में रहा कर..ये तुम जैसे छोटे लोगों के साथ यही दिक्कत है जरा सी छूट दो तो सर पे बैठने को तैयार रहते हो तुम लोग..।"झल्लाते हुए सुमित्रा नें कहा।"और सुन शाम को थोड़ा जल्दी आ जाना,मेरी कुछ सहेलियां आ रही हैं..पिछली बार की तरह नमक ज्यादा मत कर देना..वरना जानती है ना सैलेरी काट लूंगी.. समझी!"

-अल्पना नागर

स्त्रियां

 स्त्रियां 


कभी गौर से देखना

आकाश की ओर उन्मुख होकर भी

जड़ें जमीन से जुड़ी होती हैं

कुछ ऐसी ही होती हैं

स्त्रियां..

आंधी बारिश और झंझावतों में

यकीन की तरह दृढ़ होती जाती हैं

स्त्रियां..

गिराती हैं ग़लतियों के सूखे पात

क्षमाशील नित नए पत्तों से 

पल्लवित होती जाती हैं

स्त्रियां..


पल्लू में बांधकर रखती आयी हैं

नमक संस्कार और हिदायतें

मगर अब चाहती हैं कि 

रिहा हो जाये

सदियों से सलवट पड़ी गांठें..

पल्लू को जरा आज़ाद और

हिदायतों को नई राह दिखाना चाहती है

स्त्रियां.. 


"सुनो,ये काम तुम्हारे हैं

तुम्हारी ही जिम्मेवारी है

संतान की शिक्षा दीक्षा और संस्कार.."

"तुम नौकरी करोगी तो कौन सम्हालेगा घर!

सब तुम्हारी ग़लती है..

तुम्हारे ही लाड़ प्यार का नतीजा है

संतान का आवारा होना..!"


उलाहनों के ऐसे ठीकरों को ठोकर मार

अब खुद के लिए भी जीना चाहती हैं

स्त्रियां..


समय आ गया कि 

पहचाने वो स्वयं को..

उसकी क्षमताओं के केश खुले हो या 

फिर हों जुड़े में बंद

ये फैसला भी उसी का हो..!

मानक दुनियादारी से दूर 

बसाये वो अपनी दुनिया

जिसे देखे वो अपनी निगाह से

जहाँ हस्तक्षेप न हो

किसी और की मनमानियों का/


वो चाहे तो कर सकती है अभ्यास

दे सकती है पटखनी 

कठिनाइयों को/

पीठ पर परिवार और संतान को लादे हुए भी..

मगर अभ्यस्त नहीं होना चाहती

अपने ही चारों ओर बनाई बेड़ियों का..

पराश्रय की पकड़ छोड़ वो

उड़ना चाहे या

दौड़ना चाहे 

ये फैसला भी उसी का हो/

समय आ गया कि

न बना जाए उसकी राह का रोड़ा बल्कि

दिया जाए उसे रास्ता

रास्ता जिसकी शिल्पकार भी वो हो

और रहगुज़र भी वो खुद हो..!


-अल्पना नागर



Sunday 6 March 2022

युद्ध

 युद्ध


*

गरजते हैं

युद्ध के नगाड़े

और बहरा हो उठता है

विवेक/

स्वार्थ के दो पाटों के बीच

हर बार आखिरकार 

पिसती है 

मानवता..!


**

आकाश में

रह रह कर चमकती हैं

रोशनियां..

जनाब,यहाँ आतिशबाजी नहीं

प्राणों की बाजी है/

चकाचौंध इतनी कि

चौंधिया जाए नजरें

इसे विज्ञान का करिश्मा कहूँ या

विनाश का घोर अंधकार..!


***

युद्ध के बादल

मंडराते हैं आकाश में

और बरसते हैं जमीं पर

आँखों से लहू बनकर/

इन बादलों से ऊसर हुई जमीन पर

बरसों बरस

लहराती है फसल

नफरत और प्रतिकार की../

ये सिलसिला कब और कैसे थमेगा

युद्ध के बादलों का इससे

कोई लेना देना नहीं..!

उन्हें तो बरसना है 

हर हाल में..!!


****

एक झटके में 

उड़ा दी गई इमारतें..

खाक कर दिए

इमारतों में बरसों से जमा सपने

सपने जिन्हें बुनने में लगा था 

आधा जीवन/

अब शेष जीवन

बीतेगा किसी भयानक सपने की तरह

मगर युद्ध के आकाओं का

इससे क्या लेना देना !

वो सोये हैं चैन की नींद

और बड़बड़ा रहे हैं नींद में भी

युद्ध..युद्ध और सिर्फ युद्ध..!


*****

लहराएगा विजय परचम

हर दिशा

महत्वकांक्षाओं के महल

जगमगाएंगे/

ये रोशनियों के जगमग महल

मुबारक हो तुम्हे..

मैं चितिंत हूँ तो बस

महल की नींव में दबी

टूटी हुई वॉटर बॉटल

रंगीन पेंसिल के चंद टुकड़े और

बूढ़ी बेंत के अवशेषों के लिए..!!


-अल्पना नागर




चुप्पियां

 तुम भी थोड़े चुप हो

मैं भी थोड़ी चुप हूँ..

ये थोड़ा थोड़ा जुड़ जुड़कर

कितना अधिक हो जाता है

जानते हो न..!


चुप्पियों के इस वीराने में

आजकल बातें कर रही हैं

दीवारें..

ताकाझांकी कर रही हैं

दीवार पर टंगी

मुस्कुराती तस्वीरें

मेरी तुम्हारी/

तस्वीर के पास रुक रुक कर 

चलने का प्रयास कर रही है

एक दीवार घड़ी/

मानो कह रही हो

समय हमेशा आगे की ओर

बढ़ता है..

मुड़ मुड़ कर 

पीछे लौटना भ्रम के अतिरिक्त

कुछ नहीं..!


ये वही घड़ी है

जिसे खरीदा था हम दोनों नें कभी

बेहतर समय की ख़्वाहिश में!

जाने क्यों हमें देखकर इन दिनों

फुसफुसा रही हैं

घड़ी की वो अधमरी सुइयां..!

तुम भी चुप हो

मैं भी थोड़ी चुप हूँ..!!


मुखर होते सन्नाटे में

चुप्पियों का बढ़ता शोर

कहीं बहरा न कर दे/

इससे पहले कि

आदत हो जाये

चुप्पियों को घेराबंदी करने की/

चलो न चुप्पी तोड़ दी जाए

बेजान पड़ी दीवारें सजाई जाएं..

तस्वीरों की धूल झाड़ी जाए..

बंद पड़ी घड़ी में

विश्वास की मरम्मत से

बेहतर समय को

हरी झंडी दिखाई जाए/


मैं चाहती हूँ

तुम्हे भी अखरे

हमारी चुप्पियां

और किसी रोज मेरे कानों में पड़े

तुम्हारे शब्द

'बोलो न..आखिर चुप क्यों हो..!'

-अल्पना नागर


लोक साहित्य और प्रेम के विविध आयाम

 लोक साहित्य और प्रेम के विविध आयाम-


लोक साहित्य को साधारण भाषा में लोक श्रुति भी कहा जाता है,कारण लोक साहित्य लेखनी पर आश्रित न होकर श्रुति परम्परा पर आधारित है यानी लोक में प्रचलित ऐसे किस्से कहानियां गीत लोकोक्तियां गाथाएं जिन्हें हम हमारे दादा नाना परनानी से सुनते आ रहे हैं जिनके उद्गम के बारे में किसी को ज्ञात नहीं।अधिकांशतः लोक साहित्य का कोई एक ज्ञात लेखक नहीं है।हो सकता है जंगल में बकरियां चराते गड़रिये नें आसमान में उमड़ते घुमड़ते बादलों को देखकर कुछ गुनगुनाया होगा,या फिर परिवार की उदरपूर्ति के लिए अनाज पीसती किसी गृहणी नें मन में उमगते विचारों को गीत का आकार दिया हो या फिर बारह महीने से परदेस गए अपने पति के इंतज़ार में राह देखती किसी पत्नी नें विरह में कोई विरहगीत गाया हो,कारण जो भी हो लोक साहित्य के अस्तित्व में आने के पीछे कोई एक कारण या कोई निश्चित व्यक्ति नहीं है यह व्यक्तिगत तौर पर भी सृजित हो सकता है और सामूहिक तौर पर भी!लेकिन इतना है कि पीढ़ी दर पीढ़ी ये साहित्य एक मुख से दूसरे मुख तक पहुंचते पहुंचते न जाने कितने रूप आकार से गुजरा होगा। हम सिर्फ कल्पना कर सकते हैं कि सभ्यता की शुरुआत में जब इंसान के लिए जीवन संघर्ष का ही दूसरा नाम था,जब प्रकृति में मौजूद मूर्त व अमूर्त तत्व जिनसे एक सरल व सहज जीवन जीने में आसानी रहती थी उन्हें सर्वेसर्वा मानकर पूजना शुरू हुआ व उन्हीं तत्वों के बिगड़ने पर (अकाल,अतिवृष्टि,अनावृष्टि,भूकम्प,बाढ़ आदि) इंसान में भय की उत्पत्ति हुई और प्रकृति पूजा पशु पूजा आदि की शुरुआत हुई।यही कारण है कि लोक साहित्य में प्राकृतिक तत्वों पशु पक्षियों आदि का भरपूर उल्लेख किया गया है और एक तरह से यह सांस्कृतिक धरोहर बन गई जिन्हें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को किस्से कहानियों लोकोक्तियों के माध्यम से स्थानांतरित कर दिया गया।सभ्यता की शुरुआत में इंसान को अधिकतर जीव जंतुओं आदि के मध्य रहकर ही गुजारा करना होता था ऐसे में समुदाय की जहरीले जीवों से रक्षा करने वाला या जान की बाजी लगाकर पशु धन सुरक्षित रखने में योगदान देने वाला हर वो इंसान चमत्कृत रूप से पूजनीय माना जाने लगा,उसपर वीरगाथाएं लोकगीत बनाये जाने लगे ताकि आने वाली पीढ़ियों तक वो अनुभव सुरक्षित रहे।लोक साहित्य के फलने फूलने की सर्वाधिक अनुकूल जगह गांव की चौपाल मानी जा सकती है जहाँ जीवन का सारा निचोड़ लोक गाथाओं कहावतों व गीतों के माध्यम से लोक में प्रचलित हुआ।कुछ इसी तरह लोक साहित्य का उद्भव हुआ जिसमें ज्यादातर को लेखनीबद्ध नहीं किया गया,हालांकि कोई भी साहित्य जब लेखनीबद्ध हो जाता है तो उसकी आयु बढ़ जाती है वो चिरकाल के लिए सुरक्षित माना जाता है किन्तु लोक साहित्य के विषय में यह बात एकदम उल्टी कही जाएगी।लोक साहित्य जंगल की किसी आदिम जनजाति की भांति अपने शुद्धतम रूप में तब तक ही जीवित रह सकती है जब तक उसके वास्तविक रूप के साथ छेड़छाड़ न की जाए उसे समाज की आधुनिक मुख्यधारा में सम्मिलित करने के प्रयास न किये जाए।लोक साहित्य को बोतलबंद नहीं किया जा सकता यह जंगल की खुली हवा है।इसे जीवित रखना है तो इसे इसके प्रचलित रूपाकार के साथ ही स्वीकार करना होगा।

अब बात करते हैं लोक साहित्य में प्रचलित प्रेम के विविध आयामों की।सभ्यता की शुरुआत से ही रोष भय वीरता प्रेम आदि ऐसे भाव हैं जिन्होंने साहित्य सृजन में मजबूती से अपना योगदान दिया है।भारत जैसे विशाल देश में अनेक प्रांत हैं जिनका लोक साहित्य भी उतना ही विविधतापूर्ण है।किसी भी प्रांत में चले जाइये हर एक प्रांत में एक से बढ़कर एक लोक  संस्कृति के परिचायक साहित्य मौजूद हैं जिनमें प्रेम विशेष स्थान रखता है।मैं शुरुआत करती हूँ अपने प्रांत राजस्थान से जहाँ के कण कण में प्रेम में पूरित लोक साहित्य विद्यमान है।प्रेम के विविध रूपों में गार्हस्थ्य प्रेम,पिता पुत्र प्रेम,माता का संतान के प्रति प्रेम,प्रकृति प्रेम,ईश्वर के प्रति प्रेम व देश प्रेम सम्मिलित किये जा सकते हैं।विरह गीत भी प्रेम की पराकाष्ठा कहे जा सकते हैं।राजस्थान प्रांत में मधुर लोक गीतों के माध्यम से प्रेम को सिंचित किया गया है।यहाँ प्रेम के संदेशवाहक के रूप में पशु पक्षियों तक नें भूमिका निभाई है।फिर वो चाहे कुरजां पक्षी हो या रेत के धोरों में बड़ा हुआ रेगिस्तान का जहाज ऊँट!

यहाँ बारहमासा,मूमल,पणिहारी,कुरजां आदि लोकगीतों में पग पग पर प्रेम का बड़ी ही कुशलता से प्रयोग किया गया है।उदाहरण के लिए कुरजां गीत में व्यक्त भाव देखिए जिसमें एक स्त्री परदेस गए अपने पति को कुरजां पक्षी के माध्यम से संदेश देना चाहती है,कुरजां को उसने धर्म की बहन कहकर संबोधित किया है-


"तूं छै कुरजां म्हारे गाँव की, लागे धर्म की भान,

कुरजां ऐ राण्यो भँवर मिला द्यो ऐ,

संदेशो म्हारे पिया ने पुगा द्यो ऐ.."


दूसरी ओर वीर भोग्या वसुंधरा में देश प्रेम भी बहुत अच्छे से व्यक्त किया गया है।

राजस्थान एक ऐसा प्रांत रहा है जहाँ विदेशी आक्रमकारी बार बार आकर यहाँ की एकाग्रता को भंग करने का प्रयास करते रहे हैं।अंग्रेजी राज के दौरान भी जब अंग्रेजों नें यहाँ के राजाओं की आपसी फूट का लाभ उठाते हुए अपनी संस्कृति थोपने का प्रयास किया तब जगह जगह लोक साहित्य का सृजन हुआ।

कोटा बूंदी के कवि सूरजमल मीसण नें वीर सतसई में अपने देश प्रेम को व्यक्त किया-


"इळा न देणी आपणी , हालरिये हुलराय।

पूत सिखावे पालणे, मरण बड़ाई माय।।"


ये वो भूमि है जहाँ माताएं पालने में ही अपने नवजात को झुलाते हुए शिक्षा देती हैं कि अपनी भूमि शत्रुओं को कभी नहीं देनी चाहिए।


यहाँ के निष्क्रिय सोये हुए राजाओं में देशभक्ति जगाने का कार्य स्थानीय कवियों ने बखूबी किया।कवि बाँकीदास नें भी अपने देश प्रेम को व्यक्त किया है-


‘‘आयौ इंगरेज मुलक रे उपर, आहस लीधा  खैंचि उरा।

घणियाँ मरे न दीधी धरती, धणियाँ उभा गई धरा।।”

राजस्थान की ही मीरा बाई का कृष्ण के प्रति प्रेम अतुलनीय है।वो संतों के बीच रहकर गीतों के माध्यम से कृष्ण के प्रति भक्ति प्रेम को व्यक्त करती थी।उनके द्वारा रचित गीत "पायो जी मैनें राम रतन धन पायो"आज भी जनमानस की जुबान पर चढ़ा हुआ है।

"

पायो जी मैंने राम रतन धन पायो !

वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु किरपा करि अपनायो। पायो जी मैंने…

जनम जनम की पूंजी पाई जग में सभी खोवायो। पायो जी मैंने…

खरचै न खूटै चोर न लूटै दिन दिन बढ़त सवायो। पायो जी मैंने…

सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो। पायो जी मैंने…

मीरा के प्रभु गिरिधर नागर हरष हरष जस गायो। पायो जी मैंने…"


इसी प्रकार पूर्वोत्तर लोक साहित्य की बात करें तो असम लोक साहित्य के लिहाज से समृद्ध माना जाता है।असम के लोक साहित्य के पीछे महान शंकर देव जी का योगदान अविस्मरणीय है।इन्होंने नृत्य नाटिका,भाओना आदि की रचना करके स्थानीय लोक साहित्य को जन जन तक पहुंचाया।असम में देवरी समुदाय का नृत्य गिरा एंव गिरासी यानी शिव व पार्वती के परस्पर प्रेम पर आधारित उपासना नृत्य है।इसी तरह बिहू नृत्य के माध्यम से भी भावनाओं का इजहार किया जाता रहा है।बिहू कृषि प्रधान नृत्य है लेकिन इसका मुख्य विषय प्रेम है-

"प्रथमे ईश्वरे सृष्टि सरजिले, तार पासत सरजिले जीव

तेनेजन ईश्वरे पीरिति करिले, आमि बा नकरिम किय।

अर्थात् ईश्वर ने सबसे पहले इस सृष्टि की रचना की। उसके बाद जीवों का सृजन किया। उसी ईश्वर ने प्रेम किया है तो हमें भी करना चाहिए।


यहाँ पर अनेक जनजातियां पाई जाती हैं उन्हीं में से एक मिरी या मिसिंग जनजाति के लोकगीतों को 'ओई निटोम' कहा जाता है।चूंकि ब्रह्मपुत्र नदी असम की जीवनरेखा मानी जाती है अतः यहाँ के अधिकांश लोक साहित्य का प्राण भी यही नदी है।नदी किनारे खड़े युवा जोड़े प्रेम में पूरित खूबसूरत प्रणय गीत गाते हैं।

पूर्वोत्तर का ही एक और प्रांत है अरुणाचल प्रदेश जिसे विविधता के कारण लघु भारत की उपमा दी जाती है।अरुणाचल प्रदेश भी लोक साहित्य की दृष्टि से समृद्ध माना जाता है।लोक साहित्य में यहाँ लोकगीतों के प्रति विशेष स्नेह देखा गया है।संयोग से व्यक्तिगत तौर पर इस प्रदेश में कई बार जाना हुआ है अतः नजदीक से यहाँ की लोक संस्कृति को जानने का अवसर मिला।यहाँ एक मलिनीथान नामक प्राचीन मंदिर है।कहा जाता है कि भगवान कृष्ण जब रुक्मिणी को हरण करने जा रहे थे तब इसी स्थान पर एक रात्रि के लिए रुके थे।कहा जाता है कि रुक्मिणी अरुणाचल प्रदेश की ही इदु मिसमी जनजाति से थी।इनका विवाह इनके पिता द्वारा शिशुपाल नामक राजा के साथ तय कर दिया गया था किंतु रुक्मिणी को यह मंजूर नहीं था।उन्होंने कृष्ण की वीरता के किस्से सुन रखे थे और वो मन ही मन उन्हें पति स्वीकार कर चुकी थी अतः लोक मान्यताओं के अनुसार रुक्मिणी नें ही कृष्ण को संदेश भिजवाया कि उन्हें यहाँ से ले जाएं।मालिनीथान मंदिर में आज भी यही मान्यता है व भारत भर से लोग यहाँ आते हैं।

इस प्रदेश के निवासी बहुत धार्मिक हैं व ईश्वर के प्रति प्रेम को गीतों व लोकनृत्य के माध्यम से व्यक्त करते रहते हैं।'दोनयी पोलो' यहाँ सर्वशक्तिमान ईश्वर का प्रतीक रूप माना जाता है।अपने इष्ट को खुश करने के प्रयास में बहुत से लोक गीतों की रचना हुई।दरअसल लोकगीतों के रूप में सदियों पुराने अनुभव ही होते हैं।

इसी तरह प्रणय गीतों के लिए अरुणाचल के ही तिरप जिले की वांचो व नोकते जनजाति प्रमुख है।स्थानीय भाषा में बहुत ही मधुर प्रणय गीत यहाँ सुने जा सकते हैं।यहाँ युवक युवतियां स्वतंत्रतापूर्वक गीतों के माध्यम से अपने प्रेम का इजहार करते हैं,गीतों में प्रेम पूरित कल्पनाओं व मधुर मनोभावों का योग देखते ही बनता है।

उत्तराखंड के लोक साहित्य की बात करें तो यहाँ भी समृद्ध लोक साहित्य की भरमार है।कुमायूंनी लोक साहित्य में गीत नृत्य आदि के माध्यम से लोक साहित्य को सुरक्षित रखा गया है।अनेक प्रकार के नृत्यों में से एक छपेली नृत्य 

मुख्यतः प्रेम पर आधारित नृत्य है जिसमें स्त्री पुरुष जोड़ा बनाकर नृत्य करते हैं।इसी तरह न्योली नामक वन गीत जंगल में स्त्री पुरुषों द्वारा गाया जाने वाला गीत है।इसी तरह लोक कथाओं में राजुली मालूशाही की प्रेम कथा पूरे कुमायूं में उसी तरह चाव से कही सुनी जाती है जैसे प्रसिद्ध हीर रांझा और लैला मजनूं की कहानियां सुनी जाती हैं।

कह सकते हैं कि सम्पूर्ण भारत में विविधता होते हुए भी लोक साहित्य के मामले में एक समरूपता दिखाई देती है।कहने का अंदाज बदल सकता है भाषा बदल सकती है किंतु मनोभाव कमोबेश हर जगह एक जैसे ही हैं।सभी प्रान्तों के लोक गीत,नृत्य व कथाएं बेहद मनमोहक व संस्कृति की धरोहर के रूप में चिरकाल तक जीवित रहने का माद्दा रखती हैं।

-अल्पना नागर


Sunday 27 February 2022

नाराज

 नाराज क्यों हो?


जानते हो

जब कोई होता है नाराज तो

घुल जाती है नाराजगी

हवा के कण कण में/

घुटने लगता है दम

घर की चौखट से लेकर 

दफ़्तर की चारदीवारी का..

फीकी लगने लगती है

सुबह की चाय/

बोझिल संवाद

बेस्वाद जिंदगी..

क्या पूछ सकती हूँ तुमसे

आखिर नाराज़ क्यों हो?


चलो करते हैं 

कुछ ऐसा कि

न रहे बांस और न बजे बाँसुरी

न रहे कोई मित्र

सगे संबधी परिवार या

नाराजगी का एक भी कारण..!!

या फिर यूँ भी कर सकते हैं

बदल डालें

स्वयं का नजरिया/

झाँककर देखे मन के आईने में

हर रोज..!


नहीं मालूम

कैसा लगता होगा

सदियों से आतताइयों की

महत्वाकांक्षा तले कुचली जाती

मां धरती को/

हृदय में पड़ी असंख्य दरारों को

और दरारों में खिलते

क्षमाशील उन फूलों को

जिन्हें तोड़ा जाता है हर दिन

पिरोया जाता है माला में

बिखेरा जाता है राहों में

लेकिन फिर भी

क्या मजाल

ये खिलना बंद कर दें!

क्या पूछ सकती हूँ मां धरती से

रहस्य क्या है

मुस्कुराहट का..!

क्यों नहीं होता असर तुमपे

दुनियावी तुनकमिजाजी का

आखिर क्यों नहीं होती नाराज?


-अल्पना नागर



पारिवारिक संबंधों में प्रेम एक भावना

 विषय-पारिवारिक संबंधों में प्रेम एक भावना*



परिवार शब्द सुनते ही एक ख़याल मन में आता है,वो है प्रेम और अपनेपन की ईंट जोड़ जोड़कर बनी हुई मजबूत चारदीवारी जहाँ आप हर तरह से स्वयं को सुरक्षित(शारीरिक,भावनात्मक,आर्थिक तौर पर)महसूस करते हैं।मनुष्य अगर एक सामाजिक प्राणी है तो परिवार उसकी प्राथमिक इकाई है।यही वो पाठशाला है जहाँ जीवन की कठिन से कठिन परिस्थितियों से जूझने का प्रशिक्षण उसे मिलता है,जहाँ से आगामी जीवन की दिशा तय होती है।हम शुरू से ही एक बात पाठ्यपुस्तकों में पढ़ते आ रहे हैं कि सम्पूर्ण पृथ्वी एक कुटुम्ब है।एक ऐसा कुटुम्ब जिसमें अलग अलग विचारधारा संस्कृति वाले सदस्य देश एक दूसरे के हितों का न केवल सम्मान करते हैं अपितु विकास की समान धारा में सम्मिलित करने के लिए सहयोग भी प्रदान करते हैं।इस दृष्टि से देखा जाए तो हम जिसे अपना परिवार मानते हैं वह इसी वृहत समुदाय की लघुतम इकाई है।वह परिवार जिसमें एक विशाल वृक्ष की भांति एक मुखिया होता है जिसकी अनेक शाखाओं पर घर के अन्य सदस्य फलते फूलते हैं।वृक्ष चाहे कितना ही सघन और विशाल हो लेकिन उसकी जड़ें जमीन से ही जुड़ी होती हैं।जड़ों को सींचने का कार्य सिर्फ एक ही चीज करती है वो है प्रेम और अपनेपन का भाव।पूरे वृक्ष का विकास उन्हीं स्नेह सिंचित बूंदों पर निर्भर करता है।प्रेम से पल्लवित वृक्ष जीवन की किन्हीं भी बाधाओं आँधी,तूफान,बारिश या फिर कड़ी धूप को भी सहजता से झेल जाता है।दूसरी ओर अगर परिवार में प्रेम ही न हो तो ईर्ष्या द्वेष की दुराचारी दीमकें नीचे ही नीचे जड़ें खोदकर बड़े से बड़े वृक्ष को भी धराशाही करने में कामयाब हो जाती हैं।

लेकिन वसुधैव कुटुम्बकम की सदियों पुरानी हमारी अवधारणा पर अभी हाल ही में घटित घटना से झटका लगा है।यूक्रेन जैसे छोटे राष्ट्र पर रूस का हमला न केवल निंदनीय है अपितु आगामी भविष्य के लिहाज से भी खतरा है।ये बिल्कुल वैसा ही है जैसे परिवार का कोई शक्तिशाली सदस्य परिवार के ही दूसरे कमजोर सदस्य को डरा धमका कर अपनी विचारधारा थोपने का प्रयास करे,यही नहीं अगर कोई पड़ोसी या समर्थक शांति के लिए प्रयास करे तो उसे भी भयंकर परिणाम झेलने की धमकी दी जाए।ऐसे में स्वस्थ माहौल की अपेक्षा कैसे की जा सकती है! दुनिया पहले ही युद्ध की विभीषिका अनेक बार झेल चुकी है,विचारधाराएं आतंक का आश्रय लेकर जीत जाती हैं किंतु मानवता पूरी तरह परास्त हो जाती है।भय तनाव व असुरक्षा का माहौल किसी भी स्थिति में सही नहीं कहा जा सकता फिर चाहे वो परिवार जैसी लघु इकाई हो या विश्व समुदाय जैसी वृहद इकाई! परस्पर प्रेम सहयोग व आपसी समझ ही किन्हीं संबंधों को जीवित रखती है अन्यथा बिखरने में देर ही कहाँ लगती है!

हम भारतीय पारिवारिक संबंधों के मामले में धनी माने जाते हैं।हालांकि आधुनिकता नें संयुक्त परिवार की धारणा पर जोरदार प्रहार किया है लेकिन फिर भी बहुत सी जगह ऐसी हैं जहाँ आज भी बड़े परिवार एक ही छत के नीचे प्रेम से रहते हैं।संयुक्त परिवार के अपने फायदे हैं यहाँ जो संस्कार और गुण बच्चों में विकसित होते हैं वो दुनिया की कोई पाठशाला नहीं सिखा सकती।हमने परिवार में संबधों की पूंजी अर्जित की है।हमारे घरों में बचपन से ही रामायण पढ़ाई जाती है,गली मोहल्लों में रामलीला का मंचन किया जाता रहा है।राम के आदर्शों को जीवन में उतारने का हरसंभव प्रयास किया जाता रहा है।धार्मिक साहित्य के माध्यम से त्याग और प्रेम की भावना के बीज बचपन से ही हमारे कोमल मन में अंकुरित होते रहे हैं।यही कारण है कि भारत जैसे देश में पारिवारिक संबंधों की स्थिति अभी उतनी भी बुरी नहीं है।

पाश्चात्य देशों में जहाँ मामूली सी बातों पर सार्वजनिक स्थलों पर हिंसा हो जाती है।अवसाद और आधुनिक तंत्र नें मानव मन को इस कदर जकड़ लिया है कि संवेदना के लिये जगह ही शेष नहीं रही।यही कारण है कि पश्चिमी पाठ्यक्रमों में भारतीय संस्कृति से जुड़े अध्याय सम्मिलित किये जा रहे हैं जैन धर्म से परिचय कराया जा रहा है ताकि अहिंसा का मर्म समझ आये,मूलभूत विचारों में सकारात्मक परिवर्तन आएं।

इधर भारत में भी पश्चिम के अंधानुकरण से पारिवारिक संबंधों में प्रेम का स्थान स्वार्थ नें ले लिया है।कुछ ही दशक पूर्व एक छोटे से कैमरे में पूरे परिवार को एकसाथ दिखा पाने के लिए भी मशक्कत करनी पड़ती थी कहने का मतलब परिवार इतने बड़े हुआ करते थे कि कैमरा भी छोटा लगता था।जिस विशेष दिन फ़ोटो खिंचनी होती थी परिवार के सदस्यों की सहभागिता देखते ही बनती थी एक उत्सव जैसा माहौल पूरे घर में छाया होता था।अब आधुनिक तकनीक नें एक से बढ़कर एक सुविधाएं तो दी हैं मगर खुशी को महसूस करने का जोश और उत्साह लगभग छीन लिया है। परिवार बिखर गए हैं।अब तो मुश्किल से त्योहारों पर भी इक्कठा नहीं हुआ जाता।जमाना अब सेल्फी मॉड पर फ़ोटो लेने का है जहाँ खुद को हाइलाइट करने के लिए सम्पूर्ण पृष्टभूमि को धुँधला करना होता है।

अभी कुछ दिनों पूर्व अखबार की एक ख़बर नें सहज ही ध्यान आकर्षित किया।उड़ीसा के आदित्यपुर औद्योगिक क्षेत्र में जमाईपाड़ा नामक लगभग पचास घरों का एक गांव बसा है।जैसा कि नाम से ही विदित है ये पूरा गांव जमाई यानी दामाद और बेटी को बसाकर बसाया गया है।परम्पराओं से हटकर अगर कुछ देखने को मिलता है तो कौतूहल मिश्रित हर्ष होता है।बेटियों से स्नेह की पराकाष्ठा यहाँ देखने को मिलती है जहाँ एक पिता ने बेटी को अपने करीब रखने के लिए दामाद को वहीं आसपास जमीन और रोजगार दोनों दिलवा दिए और देखते ही देखते एक पिता से अनेक पिता इस मुहिम में जुड़ते चले गए गांव बन गया।कोई आश्चर्य नहीं कि परंपराएं इंसान के लिए हैं,इंसान परम्पराओं के लिए नहीं!समय और परिस्थिति के हिसाब से परिवर्तन में कोई बुराई नहीं।बेटियां परिवार की मुख्य इकाई होती हैं,उनके आगमन पर ही दो परिवारों की वंशबेल निर्धारित होती है।ऐसे में बेटा और बेटी में भेद न करके दोनों को ही परिवार का मुख्य अंग माना जाए तो बहुत से सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन सहज ही आ सकते हैं।बेटियों को कानूनी तौर पर पिता की सम्पति में अधिकार मिले हुए हैं ये अच्छी शुरुआत है लेकिन इससे पारिवारिक संबधों में टकराव की स्थिति भी देखने में आई है।भाई बहन के सम्बंध जायदाद के बँटवारे की बलि चढ़ चुके हैं।अतः ज्यादातर घरों में बेटियां स्वेच्छा से ही अपना कथित रूप से कानूनी हक त्याग देती हैं ताकि प्रेम का रिश्ता बना रहे।लेकिन जहाँ कानूनी लड़ाई लड़कर सम्पति अर्जित की जाती है वहाँ बेटियों को भी बुजुर्ग माता पिता की शारीरिक आर्थिक व भावनात्मक जरूरतों का खयाल रखना चाहिए।भारत जैसे देश में जहाँ बेटियां विवाह के बाद पराई समझी जाती हैं वहाँ एक पुत्र की तरह माता पिता की देखभाल थोड़ा चुनौती पूर्ण कार्य हो जाता है,कारण बेटी का अपना ससुराल,दामाद का अहम टकराव या समाज का दोहरा दृष्टिकोण कुछ भी हो सकता है।हकीकत यही है कि व्यवहारिक तौर पर सम्पति के समान विभाजन कानून को लागू करने की अपनी चुनौतियां हैं।सबसे पहले जरूरी है पारिवारिक स्तर पर सभी सदस्यों का मानसिक तौर पर मजबूत होना।पुत्र हो या पुत्री उनमें प्रारम्भ से ही किसी तरह का भेदभाव न किया जाए।नींव अच्छी हो तो भवन भी सुंदर बनता है।समान शिक्षा दिलाई जाए ताकि दोनों ही आत्मनिर्भर हो सकें।समान रूप से सम्पति अगर विभाजित की जाती है तो जिम्मेदारी भी समान रूप से वहन की जाए और ये कार्य बोझ मानकर नहीं अपितु सहर्ष नैतिक कर्तव्य मानकर किया जाए तो शायद परिवार में प्रेम की भावना महज औपचारिक विषय न रहे और शीघ्र ही समाज में सकारात्मक बदलाव देखने को मिले।


-अल्पना नागर


Monday 10 January 2022

ज़िन्दगी के मायने

 जिंदगी के मायने


ज़िन्दगी अपनी मौज में आगे बढ़ रही होती है..खुशनुमा..खिलंदड़..वाचाल कि तभी अचानक एक ब्रेक लगता है और धड़ाम से मुँह के बल जिंदगी और जिंदगी की पूँछ पकड़े आप..दोनों का सामना जमीनी हकीकत से ! ऐसा क्यों होता है कि आपके बनाये खूबसूरत हवाई किले जरा सी हवा से धराशाही हो जाते हैं..यहाँ गलती आपके द्वारा उस किले निर्माण में चुनी गई सामग्री को लेकर हुई या फिर उस हवा से जो गलती से बेखयाली में उधर से गुजर रही थी..!यहाँ गौर करने लायक बात ये है कि जिंदगी का जरा भी बाल बांका नहीं होना वो मस्त मौला फ़क़ीर सी अपनी मौज में फिर से आगे बढ़ती जाएगी उसे ब्रेक लगा है तो सिर्फ आपकी बेकाबू रफ्तार को नियंत्रित करने के लिए ! जरा सोचिए जिंदगी की ये उठापटक किसलिए.. वो क्यों हमारा ध्यान अपनी ओर खींचना चाहती है..!क्या हमें आत्मावलोकन की आवश्यकता है?जिस रफ्तार से मुखोटों का चलन बरकरार है उसे देखकर तो यही लगता है कि बिल्कुल आवश्यकता है।

कुछ बातें हैं जिनका खयाल नए वर्ष में रखना लाजिमी होगा।अभी हाल ही में एक चौंकाने वाला सर्वे हुआ जिसमें बताया गया कि आज हममें से अधिकांश स्वयं को धोखा देने वाली अजीब सी मानसिक बीमारी से गुजर रहे हैं।आपको मालूम है कि आपका बच्चा पढ़ाई में कैसा है लेकिन आपने ये धारणा पहले से अपने दिमाग में बनाई हुई है कि उसके जितना होशियार दुनिया में और कोई नहीं..आपकी बनी हुई धारणा को बच्चे का खराब रिजल्ट भी प्रभावित नहीं कर पाता क्योंकि वो आपकी बनी बनाई विचारधारा से मेल नहीं खाता।इसी तरह व्यक्तिगत संबंधों में भी बहुत बार हमें ज्ञात होता है कि जिनके साथ हमारी तथाकथिक गहरी दोस्ती है वो दरअसल हमारे छिपे हुए शत्रु हैं जिन्हें संवेदनशील पलों में आपका सबसे अच्छा शुभचिंतक बनने का दिखावा करना होता है और अंततः वही लोग पीठ पीछे आपकी खिल्ली उड़ाने का कार्य करते हैं,हमें दरअसल मालूम होता है कि कौन कितना शुभचिंतक है फिर भी आँखे मूंदे न जाने कौनसे चमत्कार की हम प्रतीक्षा कर रहे होते हैं।चमत्कार का तो पता नहीं लेकिन ये स्वयं के साथ धोखा जरूर होता है।क्यों न नव वर्ष में आज से और अभी से उन सभी मित्रों से एक निश्चित दूरी बना ली जाए,साथ ही अपने मन की सुनने की भी आदत डाल ली जाए ताकि स्वयं को धोखा देने की किसी भी स्थिति से बचाव हो सके।

हम सभी जानते हैं कि वैश्विक महामारी का ये दौर इतनी आसानी से समाप्त नहीं होने वाला।इसके लिए शारीरिक और मानसिक दोनों स्तर पर स्वयं को मजबूत करना होगा।जिंदगी को पुनः पटरी पर लाने के नए तरीके खोजने होंगे जो इस महामारी के चलते हुए भी जीवन के संग तालमेल बिठा सके।क्योंकि जमाना डिजिटल हो चला है अतः डिजिटल खरीददारी से लेकर भुगतान तक बहुत सी ऐसी प्रक्रियाएं हैं जो नई पीढ़ी के लिए तो आसान है किंतु पुरानी पीढ़ी के लिए किसी चुनौती से कम नहीं।अतः ऐसे में आप अपने घर के बुजुर्गों को जमाने संग कदमताल के उद्देश्य से बहुत सी डिजिटल चीजें सिखा सकते हैं इससे उनमें आत्मविश्वास की तो बढ़ोतरी होगी साथ ही आत्मनिर्भर होने का भी सुख मिलेगा।महामारी के इस दौर में घर से बाहर कदम रखना आत्मघाती हो सकता है अतः डिजिटल जानकारी अपनों के बीच हुई इस दूरी को कम करने में सहायक सिद्ध होगी।

इंटरनेट नें बहुत सी सुविधाएं दी हैं लेकिन ये भी सच है कि बहुत सी चुनौतियां भी इसने दी हैं।बहुत से लोगों नें पाया कि इंटरनेट पर ज्यादा समय व्यतीत करने के कारण उनमें मानसिक तौर पर कुंठा में इजाफा हुआ है साथ ही बहुमूल्य समय की भी अत्यधिक बर्बादी हुई है।ये बात तो निश्चित है कि जमाना अब डिजिटल हो चुका है और अब इसे अपनाना मजबूरी भी हो गया है।हम पूरी तरह से डिजिटल तौर तरीकों पर निर्भर होते जा रहे हैं।बहुत से ऐसे सोशल प्लेटफॉर्म हैं जहाँ लोग अक्सर अपने जीवन से जुड़ी पल पल की तस्वीरें डालते रहते हैं,जहाँ भी नजर डालो लोग बस खुश हो रहे हैं..मित्रों संग अच्छा समय बिता रहे हैं..घूम रहे हैं।उन्हें खुशी के पलों में आनंदित होते देख नैसर्गिक तौर पर कई बार स्वयं के जीवन से तुलना आ जाती है और नतीजा चिड़चिड़ापन,कुंठा, ईर्ष्या..! यहाँ किसी और की नहीं बल्कि स्वयं को बदलने की आवश्यकता है।किसी और का आनंदित होना आखिर क्यों हमें तकलीफ देने लगा!और ये बात भी जान लेना अत्यंत आवश्यक है कि जो कुछ भी हमारी आँखें देख रही हैं जरूरी नहीं कि दृश्य वास्तविक रूप में वही है।वर्तमान में दिखावे का चलन है और इसके लिए लोग कुछ भी करने को तैयार रहते हैं।आपकी आँखें वही देखेंगी जो आप देखना चाहते हैं।तो क्यों न मन को तैयार किया जाए।हर एक के पास कोई न कोई रचनात्मक गुण अवश्य होता है जरूरत है तो बस पहचानने की..क्यों न अपनी ही एक रचनात्मक दुनिया बनाई जाए जहाँ आप और आपके आनंद के सिवा कोई और न आने पाए!

आपने एक बात गौर की होगी,सोशल मीडिया पर समय बिताते हुए आप पाएंगे कि जो भी आप सर्च कर रहे हैं उसी से संबंधित चीजें घूम फिरकर आपकी नजरों के सामने बार बार आ रही हैं।जिंदगी भी कुछ ऐसी ही है ये घूम फिर कर उन्हीं चीजों से हमारा सामना कराती है जो पहले से हमारे मन मस्तिष्क में मौजूद होते हैं चाहे वो हमारी महत्वकांक्षा हो या फिर हमारे अंदर छुपा डर !

तकनीकी के इस दौर में तकनीक से जुड़ना हमारी सुविधा से अधिक मजबूरी या फिर कह सकते हैं आदत बन गया है।आपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए कभी न कभी उपवास तो किया होगा।उपवास के दौरान आत्म नियंत्रण की जो प्रवृति विकसित होती है वो शरीर और मन दोनों के लिए हितकारी होती है।उपवास के दौरान शरीर और मन दोनों से विषाक्त पदार्थों का उत्सर्जन होता है।बस वही जरूरत आज हमें इंटरनेट उपवास की है।सप्ताह में एक दिन ऐसा सुनिश्चित करें जब मोबाइल या इंटरनेट से वास्ता बिल्कुल न रहे।इस दौरान आप वही सब कार्य करें जो बहुत समय से आपने टाल रखा था या यूं कहें इंटरनेट पर समय अधिक देने के कारण समय ही नहीं मिल पा रहा था!किसी बहुत ही करीबी मित्र को या प्रिय को पत्र लिखें, कोई पुस्तक जो आप लंबे समय से पढ़ना चाह रहे थे उसे पढ़ें..घर की बगिया को सँवारे एक दिन के लिए माली बन जायें..अपने हाथों से कोई पसंदीदा व्यंजन तैयार करें..मौसम से दोस्ती करें..खिड़की से बाहर झांकें धूप बारिश जो भी आपकी प्रतीक्षा में बाहर बैठी है उससे नजरें चार कर आएं।बच्चों की खिलखिलाहट में खुद को शामिल कर आएं..खुद को सँवारे आईने में झांकें,खुद की पीठ थपथपाएं तारीफ कर आएं..कोई भी रचनात्मक कार्य करें जिसे करके आपको सुकून की अनुभूति हो..फिर देखिए जिंदगी के सिरे किस तरह आपसे जुड़ते चले जायेंगे,बरसों से कोने में धूल फांकती मन की वीणा का एक एक तार झंकृत हो उठेगा।तकनीकी रूप से खुद को डिटॉक्सिफाई करने का ये विचार आपके जीवन को निश्चित रूप से नई दिशा देगा..आजमा कर देखें।

क्या आपने कभी महसूस किया है कि चीजों को हर बार आगे के लिए टालने की प्रवृति किस कदर आपके जीवन में घुसपैठ कर गई है..! "कल कर लेंगे यार..क्या फर्क पड़ता है..कौनसी ट्रेन छूटीजा रही है..कल करता हूँ पक्का..! ऐसे कई जुमले निजी जीवन में परिचितों से सुने भी होंगे और आपने कहे भी होंगे।देखा जाए तो कल कभी नहीं आता।जो भी है आज है अभी है..भविष्य पर टाली गई चीजों का अस्तित्व भविष्य की ही भांति अधर झूल में लटका होता है।फिर एक दिन ऐसा आता है कि पेंडिग चीजों का ढेर आपके सामने लगा होता है आप कुछ नहीं कर पाते और उसी ढेर में धीरे धीरे स्वयं भी विलीन हो जाते हैं।आप जानते हैं संसार में घटित होने वाली हर घटना एक क्षण में घटित होती है।एक छोटे से विचार में बड़ी बड़ी भामाशाह योजनाएं छिपी हो सकती हैं,एक अदने से बीज में भरा पूरा जंगल और एक छोटे से निश्चय में संपूर्ण इतिहास और भविष्य की तिथियां..!क्षण महत्वपूर्ण हैं ये टालने के लिए अस्तित्व में नहीं आते।

आपने कभी सुना होगा असफलता की कोख में सफलता पल रही होती है बस वो थोड़ी देर का विलम्ब होता है लेकिन उसे आना जरूर होता है।कुछ भी स्थाई नहीं है यहाँ तक कि सफलता का जश्न भी..! और न हीं असफलता का दुःख मनाना..!दिन ढलने पर ही अगले दिन की तैयारी होती है।सूर्य का ढलना उसके अगले दिन के प्रगटीकरण का ही संकेत है।जरूरी है तो हमारी चेतना का बने रहना उसकी उपस्थिति के बिना स्वयं के अस्तित्व का भान भी असंभव है।हम सभी को जन्म से स्वयं के लिए और स्वयं से जुड़े संसार के प्रति एक जिम्मेदारी दी गई है,सर्वप्रथम इसे पहचानना और तत्पश्चात पूरे मनोयोग से उसे निभाना ही जीवन का वास्तविक उद्देश्य है।


-अल्पना नागर