दबाव
हर कोई बचता है
दबाव से
ज़ाहिर है..क्यों न बचें !
एक युग तक दबती रही स्त्रियां
घूँघट,चारदीवारी और संस्कार के दबाव तले,
किसान दबता रहा
अंगूठे और महाजनी बहीखातों के दबाव तले,
साहित्य दबता रहा
भावविहीन अलंकृत क्लिष्ट भाषा के दबाव तले,
इंसान दबता रहा
रंगभेद,जातपात और दकियानूसी बंधनों के दबाव तले..!
हाँ,मगर सच है
दबाव की अधिकतम सीमा के बाद
शुरू होती है मुक्ति की दास्तान..!
बिल्कुल जैसे जल से भरे मेघ
मुक्त कर देते हैं स्वयं को
एक निश्चित दबाव के उपरांत..!
मिट्टी में सोया पड़ा नन्हा बीज
मुक्त कर देता है स्वयं को
और दरारों से फूटने लगते हैं
सृजनधर्मी विद्रोह के अंकुरण..
दबाव मस्तिष्क में उपजता है और
पन्नों पर उतरता है बेखौफ़,
कलम का दबाव न हो तो
कहाँ सम्भव है प्रगतिशील विचारों का सृजन !
आविष्कार हुए
आवश्यकता के दबाव तले,
दबाव ही लेकर आता है
मेघ,बीज,आविष्कार या शिशु को जीवन मंच पर..
दबाव उचित है और बेहतर भी
किंतु एक हद तक..!
-अल्पना नागर
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