तारीखें
क्या कभी महसूस किया है
चलते चलते पृथ्वी का यूँ अचानक रुक जाना
जैसे टूट गया हो घूमता हुआ चाक
कुम्हार के हाथों से ही..!
और रह गई हो पृथ्वी
एक बार पुनः अधूरी/
पृथ्वी का बनना सम्पूर्ण नहीं होता कभी
वो बनती है बिगड़ती है हर रोज!
जिस रोज सम्पूर्ण हो जाएगा उसका निर्माण
हम तुम भी हो जाएंगे पूर्ण/
सर्पिलाकार आकाशगंगा में
असंख्य नक्षत्रों के बीच
मौजूद होगा हमारा भी शाश्वत अस्तित्व
उस रोज मुक्त हो जाएंगे हम तुम
जन्म मरण के चिरकालिक चक्र से/
मगर तब तक लौटना होगा हमें
दीवार पर टंगे कैलेंडर की ओर!
कैलेंडर जो मात्र तारीखों की शरणस्थली नहीं
और न ही नीली स्याही का महाजनी खाता/
यहाँ तारीखें अनंतकाल से यूँ चिपकी हैं
गोया तारीख न हों,शाश्वत सितारे हों !
सितारे जो घूमते घामते
यूँ ही कभी
आकाश से टपककर
टंग जाते हैं
ललाट के बीचोंबीच बनी
आड़ी टेढ़ी रेखाओं में/
और घिस जाती हैं जूतियां
उन्हीं रेखाओं की भूलभुलैया के बीच
स्वयं को खोजते हुए..!
तारीख के सितारे
लगाते हैं चक्कर उम्रभर
जनवरी से दिसंबर तक/
मानो ऊष्मा की तलाश में
अलसुबह निकला कोई मुसाफ़िर
शाम को फिर वहीं आकर
धोता हो हाथ मुँह
बर्फ सी ठंडी उम्मीद को अंजुरी में भर/
न जाने कितनी बार बदली है
इन महीनों की तासीर!
चौसर नें कहा था "अप्रैल मधुर महीना है..!"
इलियट नें कहा "अप्रैल निर्दयतम महीना है..!"
चौसर से लेकर इलियट तक
बस इतना ही हेर फेर हुआ है..!!
मगर ये हृदय
थोड़ा पुराना है..
शायद चौसर के जमाने का!
तमाम मसलों के बावजूद
ये इत्तेफ़ाक नहीं रखता
इलियट की कही उस बात से/
इसे मालूम है तो बस इतना कि
"मधुरतम है अप्रैल का महीना.."!!
-अल्पना नागर
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