Thursday 3 August 2017

कहानी- दादू

कहानी
दादू

रघुनाथ प्रसाद...हाँ,यही नाम था उनका।लेकिन परिवार और मुहल्ले के सभी लोग उन्हें दादू कहकर पुकारते।उम्र होगी करीब निन्यानवे साल,शतक में सिर्फ एक वर्ष कम।आँखें धंसकर अंदर तक चली गई थी,बहुत कम लगभग नगण्य दिखाई देता था।अवस्था को देखते हुए पैरों नें भी लगभग साथ छोड़ दिया था,ज्यादातर समय बिस्तर पर लेटे हुए ही बिताना होता था।बस उनके पैरों में जबरदस्त हरकत सिर्फ तभी होती जब मुहल्ले के कुछ शैतान बच्चे जोर से उनके कानों में 'जय श्री राम' चिल्लाकर भाग जाते,और वो बिस्तर के पास रखी अपनी छड़ी को टटोलकर उनके पीछे भागने का प्रयास करते।दरअसल रघुनाथ प्रसाद जी नें जवानी के दिनों में हर वर्ष होने वाली रामलीला में हनुमान का किरदार बड़ी शिद्दत के साथ निभाया,अपने अभिनय के किस्से बड़े ही जायके के साथ मुहल्ले के सभी छोटे बड़े लोगों को सैंकड़ों बार सुना चुके थे।सभी लोगों की जुबान पर उनके किस्से लगभग रटे हुए थे।
उम्र के इस पड़ाव पर वो काफी वृद्ध हो चुके थे लेकिन ऐसा नहीं है कि उन्हें परिवार के लोगों से कोई सरोकार नहीं था,परिवार के हर छोटे बड़े निर्णय में उनका जबरदस्त दखल था।दादू नें अपनी अहमियत डंके की चोट पर मनवा रखी थी,अगर गलती से भी उनकी शान में किसी नें गुस्ताख़ी की तो बस उसकी खैर नहीं,दादू का भाषण दो घंटे पहले नहीं रुकता था।घर में तीन बहुएं थी।और नियम बनाया हुआ था कि रोज प्रातः पौं फटने से पहले तीनों बहुएं एक एक कर दादू के चरण स्पर्श करने आये।"आज मंझली बहु नहीं आयी!",दादू नें पूछा।
"दादू आज वो मायके चली गई" बड़े पोते नें कहा।
"ऐसे कैसे चली गई ,बिना हमें बताये,बिना आशीर्वाद लिए?"
"अरे दादू आप सोये हुए थे अपनी दवाई खाकर,इसलिए उठाया नहीं।"पोते ने सफाई देते हुए कहा।
दादू की जीभ समय समय पर विभिन्न तरह के पकवानों की सिफारिश करती।वैसे तो दादू की आँखें लगभग बुझी हुई ही थी लेकिन आसमान में घूमते फिरते बादल उनकी आँखों से बचकर नहीं निकल पाते थे।फिर फरमान जारी किये जाते,"आज तो बेटा पकौड़े का मौसम बन गया है।"
इसी तरह जब भी बहुओं के मायके से कोई आता,चाहे वो नौकर ही क्यों न हो,सबसे ज्यादा दादू ही उत्साहित होते।तुरंत फ़रमान निकाला जाता ,"अरे बहु ,आज तो तेरा भाई आया है,समोसे तो बनने ही चाहिए इस खुशी में।"
और फिर अगले दिन दादू पाखाने के इर्द गिर्द ही नजर आते।
दादू नें शिक्षा के नाम पर सिर्फ 'क' अक्षर लिखना सीखा।विद्यालय में मास्टर जी नें उनके धोती कुर्ता पहनने पर आपत्ति जताई और दादू फिर कभी नहीं गए विद्यालय।दादू अक्सर मुहल्ले के बच्चों से जिरह करते दिख जाते थे।अख़बार के किसी टुकड़े पर अगर उन्हें 'क' जैसी अक्षर आकृति दिख जाती तो उनके चेहरे पर चौड़ी सी मुस्कान फ़ैल जाती।वो 'फ' अक्षर को भी 'क' बताते,उनके दिमाग की सुई बस वहीं अटक जाती और जिद करने लगते कि वो एकदम सही हैं बाकि सब लोगों को कोई ज्ञान नहीं है।
एक रोज़ दादू अपने कमरे से बाहर नहीं आये,और न ही खाना खाया,सब नें बहुत मनाया,काफी दिमाग़ दौड़ाया कि कहीं कोई भूल चूक तो नहीं हुई जिससे दादू नाराज़ हैं।अंत में दादू नें राज से पर्दा उठाते हुए कहा कि "नाती की शादी है,सभी नें एक से बढ़कर एक कपड़ों की खरीददारी की है लेकिन मेरे लिए ? मेरे लिए सूती कुर्ता?अभी इतना बूढ़ा भी नहीं हुआ हूँ।मुझे अपने इकलौते नाती की शादी के लिए सिल्क का कुर्ता चाहिए बस।"दादू के फ़रमान से सभी का मुँह एक पल के लिए बस खुला ही रह गया।आनन् फानन में बढ़िया किस्म का सिल्क कुर्ता लाया गया।तभी दादू नें अपना उपवास खोला।
उस रोज़ दादू का सौवां जन्मदिन था।ऋषि पंचमी का दिन था।दादू सुबह से ही उत्साहित नजऱ आ रहे थे।बढ़िया तरीके से एकदम कड़क प्रेस किया हुआ झक सफ़ेद कुर्ता पहना।बालों में डाई भी करवाई।भई आज फ़ोटो भी तो खिंचनी थी!अपनी छड़ी उठाकर धीरे धीरे लगभग रेंगते हुए चलने का प्रयास किया।घर भर के तीन चार चक्कर लगा चुके थे दादू लेकिन ये क्या सभी अपने काम में इतने व्यस्त !,किसी को दादू की तरफ झांकने की भी फुर्सत नहीं! दादू नें बच्चों को बुलाया,अपने कुर्ते की जेब से पान के फ्लेवर वाली टॉफी निकाल के दी,ये टॉफियां दादू सिर्फ अवसर विशेष पर ही बच्चों को बांटते थे।बच्चे पूछने लगे,"दादू दादू आज क्या है?बताओ न।"
"कुछ नहीं बस ऐसे ही"।अनमने मन से दादू नें कहा।
थककर दादू अपने कमरे में चले आये।शाम को छोले भटूरे की गंध नें जब दादू के नथुनों को छेड़ा तो दादू मन मसोस कर रह गए।
"सुंगध पक्का पड़ोस से ही आ रही है,मेरे घर में तो किसी को खबर भी नहीं कि आज मेरा सौवां जन्मदिन है,हुंह..।"दादू नें मन ही मन सोचा।
"बाबूजी चलिये,सब इंतज़ार कर रहे हैं।"
"क्यों भला?"
"खुद ही देख लीजिए चलकर।"
चौक में पहुँचते ही ढेर सारे गुब्बारे,और जन्मदिन के स्टिकर्स देखकर दादू की धुंधली आँखें भी ख़ुशी से छलक उठी।सामने एक बड़ा सा केक रखा था,दादू नें बड़े ही चाव के साथ पहली बार केक काटा।लेकिन तभी दादू का चेहरा उतर गया।और दादू बड़ी ही मासूमियत से बोले,"अगर तुम्हारी दादी संध्या आज जीवित होती तो आज के दिन खीर जरूर बनती।"
फिर क्या था,घर की बहुएं फटाफट खीर बनाने में जुट गई।आधे घंटे के अंदर अंदर दादू के लिए विशेष रूप से खीर बनाई गई।
मधुमेह के रोगी दादू अपनी मनपसंद शुगर फ्री खीर खाकर फूले नहीं समाये।
यूँ तो परिवार का हर सदस्य दादू का पूरा ख्याल रखता लेकिन कभी कभी किसी कारणवश अगर सदस्य व्यस्त हो जाते या दादू की तरफ ध्यान नहीं जा पाता तो वे किसी न किसी तरह ध्यान आकर्षित करवाकर ही रहते।
एक रोज़ इसी तरह रविवार की सुबह सब लोग अपने अपने बकाया कामों को निपटाने में व्यस्त थे,दोपहर तक दादू की तरफ किसी का भी ध्यान नहीं गया।अचानक ही दादू नें सहारे के लिए अपनी छड़ी उठाई और सब लोगों से पूछना शुरू कर दिया,"देखना जरा बेटा, मुझे लग रहा है मेरे दाएं हाथ में सूजन है,शरीर भी तप रहा है।"
"नहीं बाबूजी,तापमान तो एकदम ठीक है,और सूजन भी नहीं है,आप आराम कीजिये।"बेटे नें हाथ छू कर कहा।
दादू नें बेटे से लेकर पोते पोतियों घर के माली और नौकर तक से पूछ डाला लेकिन सभी का एक ही जवाब।
"किसी को मेरी कोई फ़िक्र नहीं,लगता है अब मैं फालतू का कबाड़ हो गया हूँ जिसकी किसी को कोई ज़रूरत नहीं।"दादू भावुक हो उठे।
तभी सबसे बड़ी वाली पोती नें दादू को देखा और कहा "हाँ दादू सूजन तो है हाथ में और आपका सर भी तप रहा है,लाइए मैं दवाई लगा देती हूं।"
पोती थोड़ी देर दादू के पास बैठी ,दादू से दो चार मन की बातें भी कर ली।सर पर हल्का सा बाम लगा दिया।
पास ही खड़ी बहु नें आश्चर्य से पुछा,"क्यों री छुटकी, ऐसा कौनसा बुखार आ गया था दादू को जो सिर्फ तुझे ही दिखाई दिया,हम सब नें अच्छी तरह चेक तो किया था, कुछ नहीं है दादू को।"
"हाँ,जानती हूँ चाची, दादू एकदम ठीक हैं,पर उन्हें दवाई से ज्यादा स्नेह और अपनेपन की जरुरत थी।आज सभी बहुत ज्यादा व्यस्त हो गए थे।और आप तो जानती हैं,हमारे दादू एकदम बच्चों की तरह हैं।"पोती नें मुस्कुराते हुए कहा।
तो ऐसे थे दादू उर्फ़ रघुनाथ प्रसाद जी।
प्रेमचंद जी की प्रसिद्ध कहानी 'बूढी काकी' की एक उक्ति यहाँ याद आ रही है , "बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है।"

अल्पना नागर©


Friday 28 July 2017

लघुकथा

बस स्टॉप

लड़का बहुत तेज गति से चलता था लेकिन न जाने क्यों उस सांवली सी मोटे चश्मे वाली लड़की को देखकर उसकी गति स्वतः धीमी पड़ जाती थी।घर से बस स्टॉप की दूरी यही कोई दस मिनिट पैदल चलने तक की होगी।लड़की चेहरे से साधारण,कृशकाय,गंभीर प्रवृति की.. लेकिन कुछ अजीब सा आकर्षण था उसकी आँखों में..लड़की का नाम था आशिमा।लड़का दिखने में आकर्षक,सुडौल व ओजस्वी था,नाम था उसका विनीत...दोनों एक ही जगह रसायन विज्ञान विषय का ट्यूशन पढ़ने जाते थे।लड़का आजकल रोज बसस्टॉप पर तीन बसें निकल जाने के बाद तक भी खड़ा रहता,इस दौरान उसकी नजर सामने रास्ते पर ही लगी रहती,फिर अचानक दूर से उस सांवली परछाई को देखकर उसकी आँखों की चमक बढ़ जाती।आँखों के संपर्क से शुरू हुई दास्तान धीरे धीरे मुस्कराहट में तब्दील होने लगी।ये उन दिनों की बात है जब घर घर में टीवी पर मात्र दूरदर्शन के ही दर्शन हो पाते थे,उस वक्त जरा वक्त फुर्सत में था,आज की तरह 'फॉर जी' जमाना नहीं था।हां तो हम बात कर रहे थे 'केमिस्ट्री' की...बस में सीट मिल जाने पर लड़का अपनी सीट लड़की के लिए छोड़ देता था..बदले में हल्की सी मुस्कराहट पाकर वो अपनी 'सीट' भी पक्की कर रहा था।रास्ते भर लड़की अपनी केमिस्ट्री की बुक निकालकर पढ़ती रहती।उन दोनों की निःशब्द 'केमिस्ट्री' में भी एक मीठी सी ताजगी थी।कभी कभी लड़की भी अपनी बगल वाली खाली सीट पर पर्स रख देती थी,जिसे लड़का चुपचाप हटाकर बैठ जाता था..लगभग दो साल तक मुस्कुराहट से लबरेज ये शांत सफर यूँ ही चलता रहा।उस रोज ट्यूशन का आखिरी दिन था..लड़की किसी तरह अपने हाथों की कंपन को छुपा रही थी,बार बार उसका हाथ पर्स में जाता और लौट आता..आख़िरकार बस स्टॉप पर इंतज़ार किया जा रहा था..लेकिन आज बस का नहीं,लड़के का इंतज़ार था..लड़का आज ट्यूशन पर नहीं आया था।तीन बसें जा चुकी थी,ये आखिरी बस थी उसके बाद चार घंटे का लंबा अंतराल।लड़की की आँखें लगातार रास्ते पर थी..तभी उसे लड़का दिखाई दिया ..उसके हाथ में कुछ था,शायद कोई डायरी..उस रोज़ फ्रेंडशिप डे था।लड़के नें हमेशा की तरह मुस्कुराया और लड़की के हाथ में डायरी थमा दी।डायरी के पन्ने खाली लेकिन गुलाब की खुशबू से भरे थे।बहुत कुछ लिखा जाना था उनमें..लड़के के सुनहरे सपनें.. आशाएं..बहुत कुछ..लेकिन तभी लड़की नें हिम्मत कर काँपते हाथों से पर्स में से कुछ निकाला..विवाह निमंत्रण था शायद..लड़के को पत्र थमाकर बिना रुके बिना पीछे मुड़े आखिरी बस से लड़की चली गई।वो बस आखिरी थी,उसके बाद का समय पंख लगाकर उड़ गया।
आज लगभग पांच साल बाद फिर उसी बस स्टॉप पर अचानक किसी नें नाम पुकारा 'विनीत' रुको बेटा! लड़के नें चौंककर पीछे मुड़कर देखा,एक पिता अपने चार साल के शरारती बच्चे को पकड़ने का प्रयास कर रहा था,नन्हे की अठखेलियां देख साथ में खड़ी एक स्त्री धीमे धीमे मुस्कुरा रही थी।लड़के नें एक पल को ठहरकर उस स्त्री की आँखों में देखा..समय जैसे ठहरकर पांच वर्ष पीछे मुड़ गया।आज भी वही मुस्कुराहट..वही आँखों की चमक..वही गंभीरता।
लड़के का हाथ भी नन्ही उंगलियों नें थामा हुआ था।पास ही खड़ी एक बुजुर्ग औरत नें नाम पूछा, बच्ची नें चहककर अपना नाम बताया..आंटी ...'आशी' घर पर और 'आशिमा' स्कूल में।
बस स्टॉप की भीड़ नॉन स्टॉप जारी थी।

अल्पना नागर

Sunday 23 July 2017

कविता- शिवोहम

शिवोहम

मैं ही ध्वनि
मैं ही प्रकाश
मैं ऊर्जा पुंज
मैं ही विनाश
सृष्टि नियंता
मैं भ्रमहर्ता,
मैं शून्य से परे,
शून्य में निहित
पारदर्शी और
अभौतिक
मैं ही निरंतर
मैं अचल!
सर्व से जुड़ा
स्वयं से परे,
तम का नाशी,
अविनाशी
हर क्षण में हूँ
कण कण वासी,
मैं त्रयम्बकं
मैं गरल धारी
शिवोहम.. शिवोहम.. शिवोहम..

अल्पना नागर ©




एक नदी की शल्य चिकित्सा -कविता

एक नदी की शल्यचिकित्सा

हटो हटो
यहाँ की जा रही है
शल्यचिकित्सा !
बड़े ही धीर गंभीर
चिकित्सकों द्वारा
कागजों पर
शल्यचिकित्सा!
मर्ज भी तो खास है
हुआ इक नदी को
हृदयाघात है !
नदी को हृदयाघात !!
ये क्या नया बवाल है?
भई ये कैसा गोलमाल है!
देह में क्या फैला हुआ
धमनियों का जाल है?
सांस तो 'हम' लेते हैं,
चलते हैं फिरते हैं गाते हैं,
दमखम को अपने
दुनिया को दिखलाते हैं,
नदी क्या कोई इंसान है!
सुन न पाई नदी और कुछ,
आखिर में वो
बोल पड़ी-
"भारत माँ की हथेली पर
मैं इक जीवनरेखा हूँ
मुझमे भी हैं प्राण तत्व,
किये गए सारे पापों का
मैं तो बस एक लेखा हूँ!
तुम मानों या न मानों
मैं नदी नहीं इंसान हूँ
सहन करूँ कुकर्म तुम्हारे
और भला अपमान क्यूँ?
मैं भी गाती सबको सुनाती
सदियों पुरानी अपनी गाथा
नदी नहीं कहते थे मुझको
तब मैं थी तुम सबकी माता
बढ़ता गया तुम्हारा लालच
बांध बनाकर बाँध दिया
खून की हर बूँद निकाली
मरणासन्न कर छोड़ दिया !
मचा हुआ कोहराम है
मुँह में छुरी और बगल में
बैठे हुए ज्यों राम है,
ड्रामे में आया है बंधु
नया नया इक मोड़
फूंक दिए भई देखो कैसे
बीस हजार करोड़ !!
निकाल न पाए फिर भी अपने
कुकर्मों का कूड़ा !
कर न पाए मेरी चिकित्सा
किया तनिक भी नहीं विचार
फलतः 'ब्लॉकेज' हुए हजार!
मेरी सारी छोटी बहनें
हुई आज हैं स्वर्गवासिनी
मैं भी हो जाऊंगी इक दिन
सरस्वती निजलोक गामिनी !
मेरा यही सवाल है
अब क्यों तुम्हें मलाल है
मानों या न मानों तुम
है मेरा अपना अस्तित्व,
भारत माँ की वृहत देह में
धमनियों का जाल है !
मुझसे प्राण प्रवाहित होकर
तुम तक श्वास है आता,
नदी नहीं हूँ महज एक मैं
सबकी हूँ भई माता !
चाहते हो गर अपनी रक्षा
करो चिकित्सा अपनी तुम
निज मस्तिष्क की कर लो बेटा
अब तो जरा सफाई तुम !!


स्वरचित
अल्पना नागर©


ज्ञातव्य है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नदियों को जीवित व्यक्ति की संज्ञा दी गई है।बहरहाल संपूर्ण देश में नदियों का जलस्तर तेजी के साथ घट रहा है। 'देवभूमि' उत्तराखंड जहाँ सैंकड़ों नदियां कलकल करती थी,आज लगभग 300 नदियां लुप्त हो चुकी हैं।रचना में मनुष्य द्वारा बेहिसाब जल दोहन,दूषित राजनीति,प्रदूषण आदि को इंगित किया गया है।प्रस्तुत रचना का कोई राजनितिक उद्देश्य नहीं है।

Saturday 22 July 2017

आलेख- सफ़र

सफ़र

'सफ़र' शब्द सुनते ही हमारे दिमाग में उत्साह व रोमांच की एक लहर दौड़ जाती है।किन्हीं स्वास्थ्य कारणों के अपवाद को छोड़कर शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिसे सफ़र में आनंद नहीं आता।अभी ग्रीष्मावकाश में भी सभी नें कहीं न कहीं भ्रमण का आनंद अवश्य लिया होगा।सफ़र या यात्रा दृष्टि से अन्तर्दृष्टि तक का सफ़र है।सफ़र के दौरान हम बहुत से नवीन अनुभवों से होकर गुजरते हैं,हमारी अन्तर्दृष्टि उन अनुभवों को आत्मसात कर संपूर्ण यात्रा का विश्लेषण करती है जिसकी अमिट छाप हमारे अंतर्मन पर जीवन पर्यन्त रहती है।
सफर या 'घुमक्कड़ी' का इतिहास बहुत प्राचीन है।प्राचीन भारतीय इतिहास के स्वर्णिम गौरव को संपूर्ण विश्व के कोने कोने तक पहुंचाने का कार्य विदेशी सैलानियों नें किया।प्राचीन इतिहास की तरफ अगर गौर करें तो विदेशी दूत मेगस्थनीज का जिक्र जरूर आता है,जिसने भारत में अपनी यात्रा अनुभव व निवास के आधार पर 'इंडिका' पुस्तक लिखी,जिससे मौर्य वंश के सुनहरे इतिहास की दुर्लभ जानकारी मिली।अगला जिक्र आता है चीनी यात्री फाह्यान का।अनुमानतः वह चीनी यात्री 400 ईस्वी के करीब भारत आया।फाह्यान द्वारा लिखी किताब से हमें गुप्त वंश,बौद्ध धर्म व तत्कालीन समय में भारत चीन संबंधों की जानकारी प्राप्त होती है।फाह्यान की तरह चीनी यात्री ह्वेनसांग नें भी अपनी दुर्लभ पुस्तक 'सी-यू-की' में भारत यात्रा तथा हर्षकालीन भारत के बारे में बहुत सी जानकारियां प्रदान की है।
अरब यात्री अलबरूनी द्वारा रचित 'किताब उल हिन्द' को दक्षिण एशिया के इतिहास का प्रमुख स्रोत माना जाता है।वह वर्षों तक भारत में रुका था।इसी तरह मोरक्को निवासी इब्नबतूता का जिक्र किये बिना सफर पर लेख अधूरा ही रहेगा।उसने अपने जीवनकाल में लगभग 75000 मील की यात्रा की।1333 ईस्वी में सुल्तान मुहम्मद तुगलक के दरबार में आया था।यह उसकी विद्वता का गुण ही था जिससे सुलतान नें प्रभावित होकर काज़ी पद पर नियुक्त किया।इब्नबतूता नें प्रसिद्ध यात्रा वृतांत 'रिहाला' की रचना की,जिससे तत्कालीन भारतीय उपमहाद्वीप की बहुत ही रोचक जानकारियां हासिल होती हैं।
यह प्राचीन देशी विदेशी यात्रियों की आंतरिक जिज्ञासा ही थी जिसने संपूर्ण विश्व को अमूल्य खोज व जानकारियां प्रदान की तथा विश्व इतिहास के एक नए युग की शुरुआत की।आधुनिक अमेरिका की खोज के पीछे वास्कोडिगामा का जिज्ञासु घुमक्कड़ स्वभाव था।उसने भारत की भी लगभग तीन बार यात्रा की।यहाँ तक कि भारत के एक राज्य गोवा के एक बड़े शहर का नाम वास्कोडिगामा ही है।
हिंदी साहित्य के दिग्गज़ जिन्हें 'महापंडित' की उपाधि से नवाजा गया था,श्री राहुल सांकृत्यायन बहुत बड़े यात्री के रूप में याद किये जाते हैं।वे अनेक भाषाओं के जानकार थे।कहते हैं गतिशीलता उनके लिए वृत्ति नहीं,धर्म था।उनके द्वारा की गई देश विदेश की यात्राओं नें हिंदी साहित्य में अमूल्य योगदान दिया।यात्राएं व यात्रा वृतांत हमें वर्तमान को सुधारकर भविष्य को संवारने की प्रेरणा प्रदान करती हैं।
यात्रा का जिक्र आते ही बचपन की रेल यात्राओं की स्मृतियां हरी हो जाती हैं।यात्रा स्वयं में रोचक होती है किंतु अगर यात्रा रेल द्वारा हो तो सफ़र का आनंद दुगुना हो जाता है।रेल से दादी ,नानी के घर तक का सफ़र और रास्ते में अचार परांठे की महक का डिब्बे भर में फ़ैल जाना,खिड़की वाली सीट पर बैठकर रास्ते का मुआयना और एक एक कर पेड़ों,बिजली के खम्बों, गांव,स्टेशन और रास्ते का छूटते जाना,किसे याद नहीं होगा!यादों के शहर होते ही ऐसे हैं,हम जीवन भर पता नहीं कितनी यात्राएं करते हैं,फिर भी बरसों बाद भी अगर हम यादों के शहर की खुदाई करते हैं तो पुरानी सभ्यताओं की तरह क़ीमती वस्तुएं निकलकर आती हैं,वो पुरानी गालियां जिनमें कभी बचपन दौड़ा करता था, फिरकी,पीपल का पेड़,पुराना बाजार,मोहल्ले,चोर सिपाही की पर्चियां,भूतों की कहानियां,चाय की थड़ियां,बीसियों चाचा,ताऊ ,हिचकोले खाती साइकिल सब कुछ एकदम ताज़ा रहता है,बस हमें उन यादों पर जमी हल्की सी धूल झाड़नी होती है।
जीवन भी एक यात्रा ही है।हम सभी एक ही रेल से जुड़े भिन्न भिन्न डिब्बों में सवार यात्री हैं।स्टेशन आते हैं,ट्रेन रूकती है,यात्री उतरते व चढ़ते हैं लेकिन यात्राएं अनवरत जारी रहती हैं।
ऐसा भी होता है,कई बार सफ़र ही इतना रोचक व ऊर्जा से भरपूर होता है कि मंज़िल आ जाने पर सारी ख़ुशी काफ़ूर हो जाती है,लगता है जैसे सफ़र को अभी और जारी रहना था,क्यों इतनी जल्दी मंज़िल आ गई !जीवन में रिश्ते भी कुछ इसी तरह बुने होते हैं।प्रेम जब तक होता है तब तक सब कुछ नया और उत्साह से भरपूर नजर आता है किन्तु जैसे ही प्रेम यात्रा की परिणीति विवाह में होती है,वही प्रेम बंधन लगने लगता है।वर्तमान में मुक्त विवाह,लिव इन रिलेशनशिप ,तलाक के बढ़ते हुए मुद्दे इस तरह की प्रवृतियों के उदाहरण हैं।वर्तमान उपभोक्तावादी संस्कृति यात्रा का आनंद तो लेना चाहती है लेकिन मंज़िल पर पहुँच कर स्थिर नहीं होना चाहती।अगर विवाह को मंज़िल या ठहराव न समझकर एक खूबसूरत पड़ाव माना जाये तो यात्रा और भी सुखद हो सकती है।अक्सर हम विवाह के बाद शिथिल पड़ जाते हैं,एक उदासीनता हमारे जेहन पर हावी होने लगती है,वो पहले वाला 'चार्म' कहीं गायब होता नजर आता है।ये बात भी सत्य है कि स्थिरता मानव स्वभाव के विपरीत है अतः आवश्यक है कि विवाह के उपरान्त भी दोनों सहयात्री चलते रहें, एक दूसरे की भावनाओं को ध्यान में रखकर,स्व का विकास होने के लिए उचित 'स्पेस' देकर निरंतर चलते रहें ताकि शरीर और आत्मा बिना किसी अवरोध के विकसित होते रहें।
जीवन के अंतिम पड़ाव का सफ़र भी बहुत महत्वपूर्ण होता है।ये वो पड़ाव है जहाँ अधिकतर साथी एक एक कर हमारा साथ छोड़ते जाते हैं,तब सफ़र में हम नितांत अकेले पड़ जाते हैं किन्तु अगर इसे सकारात्मक तरीके से सोचा जाये तो उस अकेले सफ़र का भी अलग आनंद है,अब तक जीवन में हमें परिजनों व भीड़ से घिरे रहने की आदत थी,इन सब में खुद का साथ तो छूट ही जाता था,जीवन का अंतिम पड़ाव एक तरह का आशीर्वाद है स्वयं को जानने व स्वयं के साथ समय बिताने का।यह सफ़र दूसरों की सहानुभूति लेकर समय बर्बाद करने का नहीं है।जब कभी उम्र के इस पड़ाव पर खुद से दोस्ती होगी तो अपनी सोहबत का मर्म समझ आएगा।अकेला सफ़र कोई बीमारी या अवसाद का कारण नहीं अपितु आनंद की सुंदरतम स्थिति है,अध्यात्म की उच्चतम अवस्था।इसलिए अगर हम अंतिम सफ़र में आकर अकेले हो जाएं तो इसे खालीपन से बिल्कुल न भरें बल्कि खुद के साथ ज्यादा से ज्यादा समय व्यतीत करें,पंछियों का कलरव सुनें,खुद को साथ लें और निकल पड़ें सुबह शाम की सैर पर,किताबों से दोस्ती करें तो अंतिम सफ़र कभी भी बोझिल समय नहीं लगेगा,जीवन का हर लम्हा एक यादगार उत्सव बन जायेगा।
यहाँ राहुल सांकृत्यायन जी की एक उक्ति याद आ रही है "यायावर बनना है तो चलते रहो.....चरैवेति -चरैवेति...।" क्योंकि जीवन बहुत विशाल है,एक जगह अगर ठहर गए तो दूसरी बहुत सी जगहें छूट जाएंगी।

स्वरचित
अल्पना नागर ©

Thursday 20 July 2017

लघु कहानी- उद्देश्य


लघु कहानी - उद्देश्य

सरकारी स्कूल के पास एक लग्जरी कार आकार रुकी।कार में से सत्ताधारी दल के कुछ नामचीन नेतागण उतरे।पिछली अन्य विजिट के मुकाबले इस बार उनकी वाणी में मिश्री से भी अधिक मिठास थी।
"सर आपको तो ज्ञात होगा कि हमारी पार्टी जब से सत्ता में आयी है सिर्फ जनसेवा के लिए ही प्रतिबद्ध है।जनसेवा के इसी सिलसिले को बरक़रार रखने के लिए हम आज एक प्रस्ताव आपके पास लाये हैं,उम्मीद है आपको कोई आपत्ति नहीं होगी।"मुख्य नेता नें आत्मविश्वास के साथ कहा।
"जी बिल्कुल..कहिये।"प्रधानाचार्य नें कहा।
"स्वतंत्रता दिवस नजदीक है..दरअसल हम चाहते हैं कि इस बार गरीबी रेखा से नीचे परिवार वाले उन सभी बच्चों का जन्मदिन मनाया जाये जिनका जन्म स्वतंत्रता दिवस को हुआ।देखिये..हमारा मानना है कि सभी को खुश रहने का अधिकार है,तो गरीब परिवार जन्मदिन मनाने जैसे अवसर से क्यों वंचित रहें! हम आपके विद्यालय आएंगे और उन बच्चों के लिए केक पेस्ट्री मिठाई आदि का प्रबंध करेंगे।"
"वाह ये तो बहुत नेक सोचा आपने,आपके सेवाभाव और नवीन सोच को नमन।"प्रधानाचार्य नें खुश होते हुए कहा।
"जी,हम निःस्वार्थ भाव से काम करते हैं,दूसरे राजनितिक दलों की तुलना में हमारे दल के उद्देश्य विशुद्ध है,हम सिर्फ कर्म करने में यकीन करते हैं।"मुख्य नेता नें गर्व के साथ कहा।
प्रधानाचार्य के कहने पर सभी कक्षाओं से उन बच्चों का चयन किया गया जिनका जन्मदिन स्वतंत्रता दिवस को होता है।बच्चों को प्रधानाचार्य के कक्ष में बुलाया गया।
मुख्य नेता नें अपनापन दिखाते हुए सभी बच्चों से हाथ मिलाया और आग्रह करते हुए कहा कि इस बार अपने जन्मदिन पर अपने माता पिता को जरूर साथ लेकर आना।
कक्ष में उपस्थित सभी कार्मिकों के आश्चर्य का ठिकाना न था।
"ठीक है,अब चलते हैं..आज्ञा दीजिये।"सेनेटाइजर से हाथ साफ करते हुए नेता नें कहा।
विद्यालय के मुख्य दरवाजे तक गाड़ी पहुंची ही थी कि आठवीं कक्षा के एक विद्यार्थी नें हाथ से इशारा कर रोकने का प्रयास किया।
"ये क्या तरीका है.."।कड़ककर नेता नें पूछा।
"सर वैरी सॉरी लेकिन जरुरी बात करनी थी।मैंने देखा आप इतने बड़े दिल के लोग हैं तो सोचा मेरी भी मदद करेंगे।"लड़के नें कहा।
"कहो.."
"सर मेरे पापा बहुत पहले ही गुजर गए थे,मैं लगभग दो साल का था..मेरी माँ घरों में झाड़ू पोंछा लगाकर मुझे और मेरी तीन छोटी बहनों को किसी तरह पढ़ा लिखा रही है।मैं हर बार कक्षा में प्रथम आता हूँ लेकिन अब मेरी माँ की तबियत बहुत ख़राब रहती है,इसलिए मुझे दुकान पर मजदूरी करने जाना होगा।अगर आप की कृपा हो तो मैं और मेरी छोटी बहनें आगे भी पढ़ लिख सकती हैं।"
"हां..हां.. देखते हैं ..देखते हैं..अब रास्ता छोड़ो अगले प्रोग्राम के लिए देर हो रही है।" कहकर नेता जी की गाड़ी आगे बढ़ गई।"
"ये सियासत भी पता नहीं क्या क्या दिन दिखाएगी..बात अगर मजदूरों के वोट की नहीं होती तो झांकता भी नहीं ऐसे सड़कछाप बच्चों की तरफ..अब इनका जन्मदिन मनाकर मीडिया में किसी तरह बात जाए तो हमारा उद्देश्य सफल हो..।"रास्ते भर नेताजी बड़बड़ाते रहे।

स्वरचित कॉपीराइट
अल्पना नागर

Tuesday 18 July 2017

डायरी -कविता

डायरी

बिखरे पड़े शब्द
और चाय की प्याली सी
उड़ेली गई भावनाएं,
बरसों तक महकती रही
उसकी रूह के भीतर तक,
वो संभालकर रखती गई
तारीख़ें और शब्द
एक एक कर
तह करके
किसी समझदार गृहिणी की तरह,
तुम भी,कहाँ छुपा पाए
स्याह गहरे राज़!
देर रात जब नींद के शहर में
होता था जमाना,
तुम हौले से खटखटाते थे
उसका द्वार,
फ़िर होती थी लंबी गुफ़्तगू
कभी तुम्हारे दर्द से भीग जाते थे
उसके पन्ने,
और फिर एक रोज़..
छोड़ आये तुम उसे
अँधेरे किसी कोने में
नितांत अकेले!
तुम्हें आगे बढ़ना था
तुम आगे बढ़े,
डिजिटल स्क्रीन पर दौड़ती हैं अब
तुम्हारी उंगलियां,
लेकिन सच बताना
क्या स्क्रीन का हर अक्षर
आँखों में उतर पाता है?
क्या स्क्रीन के पन्नों की आवाज़
कानों में फड़फड़ाती है?
क्या उसके पन्नों की महक
तुम्हारे फेंफडों को
आत्मीय गंध से भरती है?
नहीं न!
वो जानती है
स्क्रीन पर शब्द नाचते हैं
तुम्हारी आँखों के सामने,
एक पंक्ति से दूसरी तक आते आते
शब्द फिसल कर गिरने लगते हैं
दिमाग की नसें करने लगती हैं
बगावत !
डेस्क पर लगी
कॉफ़ी मग की कतार
बयां करती है तुम्हारी बेचैनी को,
लेकिन,
डिजिटल स्क्रीन और उसका
क्या मुकाबला!!
कहाँ वो एकदम साधारण,
और कहाँ वो तेज तर्रार
डिजिटल युग की अल्ट्रा मॉडर्न !!
लेकिन फिर भी
वो इंतज़ार करती है,
उसे सरोकार है तुम्हारी
तमाम खुशियों और उदासियों से
डायरी है वो
सब जानती है...

अल्पना नागर








Sunday 16 July 2017

लघुकथा- देहरी

कहानी
देहरी

अस्पताल के बैड पर पत्नी की बगल में सोई बेटी रुई का एक टुकड़ा नजर आ रही थी,इतनी नाज़ुक कि उसे छूते हुए भी मन घबरा जाता, कहीं चोट न लग जाए! आहिस्ता से तन्मय नें अपनी एक दिन की बेटी को उठाया।टिमटिमाती आँखों नें नई दुनिया का हल्का मुआयना किया,अपने पिता को नजर भर देखा।तन्मय को पहली बार अपने पिता होने का अहसास हुआ,एक हल्की कंपकंपी उसके पूरे शरीर में बिजली की तरह दौड़ गई।फूल सी कोमल बेटी के माथे पर स्नेह चुम्बन अंकित किया।
तन्मय के लिए यह बेहद मुश्किल समय था।घर पर चलने फिरने में असमर्थ बीमार माँ की देखभाल,ऑफिस की जिम्मेदारियां और अस्पताल में प्रसूता पत्नी और नवजात शिशु की देखरेख, इन सब के बीच तन्मय को साँस लेने भर की भी फुर्सत नहीं मिल पा रही थी।कुछ दिन से रात में भी सिर्फ कुछ क्षण के लिए झपकी ही ले पा रहा था।खुद को इतना अकेला और असहाय इससे पहले उसने कभी महसूस नहीं किया।कई बार उसका मन होता कि इन हालातों में कोई अपना अगर साथ होता तो उसे एक सहारा मिल जाता,लेकिन निकट परिजनों से भी उसे निराशा ही हाथ लगी।तन्मय अपने चाचा को जब मिठाई खिलाने गया तब चाचा नें कहा," तनु बेटा, बहुत परेशान हो इस वक्त पर मेरी भी अपने परिवार के लिए जिम्मेदारियां हैं,तुम्हारी चाची को भी कहाँ फुर्सत है!"
एक चाचा ही थे जहाँ तन्मय को उम्मीद थी बाकि रिश्तेदारों के बारे में तो सोचना भी व्यर्थ था।कमरे की खिड़की से झांकता औंधा पड़ा आसमान आज तन्मय को कुछ झुका हुआ नजर आया,लगा कि अभी उसपर टूटकर गिर पड़ेगा।
"भैया,कैसे हो?भाभी कहाँ हैं?"
शब्द सुनकर तन्मय की तन्द्रा टूटी।सामने छोटी बहन को देखकर उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ,लगा कि अभी भी स्वप्न की दुनिया में है।
"स्नेहा तुम? कैसे...."
इतने वर्षों बाद बहन को सामने देख तन्मय हक्का बक्का हो गया,वह बोलना चाह रहा था लेकिन उसके शब्दों की नदी अंदर ही अंदर कहीं जम गई थी,गला सूख गया था।
"कुछ नहीं,पानी पीजिये आप।क्या हालत बना रखी है खुद की..आँखें देखिये अपनी,यूँ लगता है हफ़्तों से सोये नहीं हो।आपको क्या लगा आप नहीं बताएँगे तो पता नहीं चलेगा,अरे बुआ बन गई हूँ मैं!और अब एक महीने से पहले मैं कहीं नहीं खिसकने वाली,छुट्टियों का इंतज़ाम करके आयी हूँ।"
तन्मय कुछ भी बोल पाने की स्थिति में नहीं था।वो बस ठगा सा अपनी बहन की अपनत्व भरी बातें सुन रहा था।स्नेहा अपनी नवजात भतीजी को गोद में उठा सारा दुलार लुटा रही थी।तन्मय की आँखों के सामने अतीत का कोहरा घिर आया।स्मृतियों के बादल रह रहकर उसे भिगो रहे थे,जिन्हें अनदेखा कर वह पीछा छुड़ाने की हर दिन कोशिश करता वही उसकी परछाइयाँ बन कभी सपने में तो कभी ख़यालों में उसके सामने होती।
"खबरदार स्नेहा जो इस घर की देहरी पर कदम भी रखे तो मेरा मरा हुआ मुँह देखोगी।आज से तुम हमारे लिए और हम तुम्हारे लिए मर चुके हैं।" चार वर्ष पहले कहे तन्मय के अपने शब्द आज उसे तीर की तरह चुभ रहे थे जिनमें आज वह खुद को बुरी तरह लहूलुहान महसूस कर रहा था।
"कोई भला अपनी ही बहन से इस तरह का बर्ताव करता है! क्या कसूर था उसका? क्या अपनी इच्छा से करियर और जीवनसाथी चुनना इतना बड़ा अपराध है कि उम्रभर के लिए खून के रिश्ते को भी तिलांजलि दे डाली ! स्नेहा अपना आसमान ,अपनी उड़ान चाहती थी,और हम लोग सदियों पुरानी जंग लगी कैंची लेकर तैयार बैठे थे!"तन्मय का मन आज बुरी तरह खुद को कचोट रहा था।
"क्या हुआ भैया,कहाँ खो गए? अब क्या अस्पताल में ही रहने का इरादा है!घर चलिये मुझे माँ से भी मिलना है।"स्नेहा नें जोर डालते हुए कहा।
"स्नेहा नें कितनी सहजता से सब कुछ भुला दिया जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं,आज मैं इसके बड़प्पन के आगे खुद को बौना महसूस कर रहा हूँ।"तन्मय की अभी तक खुद से जंग जारी थी।शब्द कहीं अटक कर रह जाते थे।
अतीत के कड़वे अनुभव अभी भी घर के दरवाजे के आसपास हवा में तैर रहे थे।
घर पहुंचते ही सभी के कदम देहरी पर अचानक रुक गए।तभी तन्मय नें स्नेहा का हाथ पकड़ा उसकी आँखों से पश्चाताप आंसू बनकर प्रवाहित हो रहा था।देहरी के पार बचपन की स्मृतियां प्रतीक्षा कर रही थी।स्नेहा के आने से बीमार माँ का चेहरा भी खिल उठा।
"छुटकी,ये धागा बांधने में मेरी मदद नहीं करोगी?" तन्मय नें अपनी कलाई आगे करते हुए कहा।
"क्यूँ नहीं भैया,तरस गई हूँ इन कलाइयों के लिए।पिछले चार वर्षों से आपके नाम की राखी लिफाफे में रखती हूं पर पोस्ट करने की हिम्मत नहीं कर पाई।"लाल धागा बांधते हुए स्नेहा नें कहा।
"ये रक्षाबंधन मेरे लिए सबसे अनमोल है,हर बार भाई अपनी बहन को उपहार देता है लेकिन इस बार एक बहन नें अपने भाई को उम्रभर के लिए अनमोल रिश्ते का उपहार दिया।"तन्मय नें स्नेहा को गले लगाते हुए कहा।
"देखो न भैया,ये नन्ही सी परी कैसे खुश होकर देख रही है", स्नेहा नें चहकते हुए कहा।
कोई नाम सोचा आपने?"
"स्नेहा नाम कैसा रहेगा?"तन्मय नें पूछा।उसकी आँखों में आज ख़ुशी की चमक थी।

अल्पना नागर ©

अहंकार

अहंकार
महावीर स्वामी के शब्दों में-
"जिसे खुद का अभिमान नहीं,रूप का अभिमान नहीं,लाभ का अभिमान नहीं,ज्ञान का अभिमान नहीं,जो सर्व प्रकार से अभिमान को छोड़ चुका है,वही संत है।"
बिल्कुल सत्य है,संत कहलाने के लिए अभिमान का पूर्णतः परित्याग करना होता है,किंतु ये अभिमान है क्या? स्वयं के प्रति अतिशय लगाव,अपने विचारों प्रति पूर्वाग्रह,दूसरों के व्यक्तित्व को अनदेखा करना अहंकार के ही विभिन्न रूप हैं।'मैं' सबसे बड़ा हूँ,'मैं' सबसे सुंदर हूँ,'मैं' ही सबसे योग्य हूँ, 'मेरी' योग्यता से सबको ईर्ष्या होती है,जैसे भाव अहंकार की उपस्थिति को दर्शाते हैं।यहाँ पर हमने देखा कि हर एक भाव के साथ 'मैं' जुड़ा हुआ है,यही 'मैं' अहम् भाव है,जिससे मुक्ति के लिए सहअस्तित्व के सिद्धान्त को समझना व स्वीकार करना आवश्यक है।अगर हम समझें कि संसार में सभी प्राणियों का अस्तित्व महत्वपूर्ण है एवं हमारे विकास में इन सभी जीवों का महत्वपूर्ण योगदान है,तो कृतज्ञता का भाव स्वतः आएगा, व 'अहम्' या 'मैं' भाव कहीं पीछे छूट जायेगा।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य में अगर देखें तो विभिन्न शक्तिशाली देशों द्वारा सदियों तक अपनी सुविधा के लिए निःशक्त या राजनीतिक दृष्टि से कमजोर राष्ट्रों को उपनिवेश बनाना,उनका आर्थिक शोषण करना,गुलाम बनाना,नस्लभेद करना आदि भी अहंकार के व्यापक रूप ही हैं।
हमारी दैनिक जिंदगी में भी बहुत से व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके ज्ञान की कोई सीमा नहीं।पीएच.डी और डी.लिट. से लेकर कई महत्वपूर्ण डिग्रियां उनकी झोली में होती हैं,सभी जानते हैं,मानते हैं लेकिन वो स्वयं कभी नही जताते और न ही अपने नाम के आगे डॉक्टर कहलाना पसंद करते हैं।यह उनके व्यक्तित्व की सादगी है।बहुत से व्यक्ति ऐसे भी हैं जो चंद महीनों का योग कोर्स या रेकी कोर्स करके ,एक्यूप्रेशर आदि कोर्स की डिग्रियां लेकर स्वयं को बड़ी ही शान के साथ डॉक्टर कहलाना पसंद करते हैं,यह अभिमान ही तो है! इसी तरह बहुत से लोग ऐसे हैं जो शीत ऋतु में किसी भी सरकारी विद्यालय में पहुंचकर सस्ते या हल्के किस्म के स्वेटर वितरित करते हैं बाकायदा अगले दिन उनकी बच्चों के साथ अखबार में फोटो भी प्रकाशित होती है! कई बार ग्रीष्म ऋतु में पंछियों के लिए परिंडे आदि लगवाते हैं,यहाँ भी उनका काम परिंडों के साथ अख़बार में उनके नाम के साथ प्रकाशित किया जाता है ! अख़बारों की तरह तरह की कटिंग्स अपने सभी परिचितों को दिखाने के लिए मेहमानकक्ष में किसी ट्रॉफी की भाँति रखी जाती है। इस तरह के विभिन्न कार्यों के लिए अंततः उन्हें सामाजिक सम्मान हेतु चयनित किया जाता है।यहाँ मेरा उद्देश्य सामाजिक कार्यों की आलोचना करना कतई नहीं है किंतु इन उदाहरणों के माध्यम से हमारे भीतर छुपे अहंकार का आत्मावलोकन करना है,क्या सचमुच अधिकांशतः हमारा उद्देश्य समाज सेवा ही होता है या स्वयं के अहम् की तुष्टिकरण !!
अहंकार मानवजनित एक मनोविकार है जिसकी उपस्थिति मात्र से हमारी समस्त आंतरिक व बाह्य गतिविधियां प्रभावित होती हैं।अहंकार का आगमन तब होता है जब हम स्वयं को जान पाने में असमर्थ होते हैं अतः यह एक तरह का अज्ञान है।जिस क्षण हमें आत्मानुभूति या आत्मज्ञान होता है, अहंकार भी उसी क्षण विलुप्त हो जाता है जैसे सूर्य की किरण आने पर कोहरा छंट जाता है।हम सभी में न्यून या अधिक मात्रा में अहंकार होता है,आवश्यकता है उसका अवलोकन करने की,मन की अंतर्तम गहराइयों में उतरकर विद्यमान अहंकार रूपी अंधकार को पहचानने की ताकि हम आगामी कार्यों व व्यवहार से प्रकाश का एक दीया जला सकें।समस्त अंधकार को पराजित करने के लिए दीपक की छोटी सी लौ ही पर्याप्त है,इसी तरह अहंकार को पराजित करने के लिए सर्वप्रथम उसके स्त्रोत व पोषक तत्व की  पहचान करना आवश्यक है,ताकि ज्ञान के प्रकाश का आगमन हो।हमारे दैनिक जीवन में अनगिनत ऐसे कार्य होते हैं जहाँ हम न चाहते हुए भी अहंकार के घेरे में आ जाते हैं।कई बार हम अपने मित्रों से किन्हीं कारणों को लेकर बातचीत रोक देते हैं,संवादहीनता की स्थिति दीर्घकाल तक चलने से एक ऐसा रिक्त स्थान बन जाता है जिसे भविष्य में भर पाना असंभव प्रतीत होता है,बहुत बार ऐसा होता है जब हमारा आंतरिक मन पुरानी बातों को विस्मृत कर उस व्यक्ति विशेष से संवाद के लिए प्रेरित करता है लेकिन उसी क्षण 'कोई' है जो हमें ऐसा करने से रोकता है,ये अहंकार ही है।यदि हम अपने आसपास नजर दौड़ाये तो पता चलता है कि कई बार छोटे बच्चों के आपसी झगड़े में माता पिता या बड़े लोग भी शामिल हो जाते हैं,आपसी संवाद व व्यवहार रोक दिया जाता है,झगड़ा लंबे समय तक रबर की भांति खिंचता चला जाता है ये अहंकार नहीं तो और क्या है!! जबकि कमाल की बात है बच्चे अगले कुछ क्षण में ही झगड़े की बात को पूर्णतः भूल जाते है व पुनः मित्र बन जाते हैं।यहाँ ध्यान देने वाली बात है बच्चों में अहंकार नहीं होता है,उनका मन निर्मल होता है,तो क्यों नहीं हम भी बच्चों जैसे बनें!हम बार बार क्यूँ विस्मृत कर जाते हैं कि इस अनंत ब्रह्मांड में जहाँ अनगिनत ग्रह, नक्षत्र,तारे उपस्थित हैं,पृथ्वी से कई गुना बड़े ग्रहों की मौजूदगी है,वहाँ हमारा अस्तित्व समंदर में बूँद जितना भी नहीं है,फिर ये अहंकार कैसा!हम अपनी उम्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा सिर्फ आपसी प्रतिस्पर्धा करने,द्वेष व अहंकार के साथ ही व्यतीत कर देते हैं,जो धीरे धीरे न सिर्फ शरीर अपितु हमारी आंतरिक शक्ति को भी खोखला कर देता है,और अंत में हमारे पास पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं बचता।
अहंकार के कुछ लक्षण हैं जिनका अवलोकन हम स्वयं कर सकते हैं-
•क्या हमें किसी के द्वारा की जा रही आलोचना से फर्क पड़ता है? आलोचना या हम पर उठाया कोई प्रश्न बेताल की तरह दिनभर हमसे चिपका हुआ रहता है?
•क्या हम किसी की भी सहायता लेते समय कतराते हैं?
•क्या हम अपने हर विचार,सिद्धांत पर दूसरों की प्रशंसा की मुहर चाहते हैं?
•क्या हम सदैव दूसरों से तुलना करने या बेहतर दिखने के प्रयास में लगे रहते हैं?
•क्या हम सदैव अधिक से अधिक उपभोग का सामान जुटाने को लालायित रहते हैं,दुनिया की कोई भी वस्तु हमें संतुष्ट नहीं कर पाती?
•क्या हम हर क्षेत्र में बढ़ चढ़कर स्वयं के ज्ञान का प्रदर्शन करने की कोशिश में लगे रहते हैं चाहे वो कला,विज्ञान, संस्कृति,राजनीति या इतिहास कोई भी क्षेत्र हो?
•क्या हम अपने से कम सामाजिक प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति से ज्यादा संपर्क रखना जरुरी नहीं समझते और अपने से अधिक प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक महत्व प्रदान करते हैं?
•किसी भी अप्रिय बात को लेकर हम लंबे समय तक व्यक्ति विशेष को क्षमा नहीं कर पाते?
अगर हां,तो हम निश्चित रूप से अहंकार के दायरे में आ चुके हैं।
कुछ ध्यान देने योग्य बातें हैं जिनसे हम अंहकार को अपने से दूर कर सकते हैं।हमारी आलोचना होने पर विचलित होने की बजाय उस व्यक्ति को धन्यवाद ज्ञापित करें,कमियों की तरफ संकेत करके उस व्यक्ति नें भलाई का ही कार्य किया है,अब हम स्वयं में अपेक्षित सुधार कर सकते हैं।
कभी भी किसी की सहायता लेने से हमारी प्रतिष्ठा धूमिल नहीं होती,या हमारा कद लघु नहीं हो जाता अपितु सहायता लेने से हम कृतज्ञ बनते हैं।हम कोई मशीन तो हैं नहीं जिसे कभी किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं होगी!
हमेशा अपने कार्यों के लिए दूसरों से प्रशंसा सुनने को आतुर रहना भी अहंकार की निशानी है।ऐसा करके हम स्वयं का नुकसान करते है, हमारी सीखने की प्रक्रिया बाधित हो जाती है व हम सर्वथा अज्ञानी ही बने रहते हैं।
दूसरों से तुलना करना या बेहतर दिखने का प्रयास आत्मघाती ही साबित होता है,हमारे अंदर शनैः शनैः नकारात्मक विचारों व प्रतिस्पर्धा का भाव विद्यमान रहने लगता है।हमारा महत्वपूर्ण समय,संसाधन व ऊर्जा का नाश होने लगता है।
जीवन पर्यन्त हम भौतिक सुख सुविधा को अधिक से अधिक जुटाने का प्रयास करने में लगे रहते हैं,इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में हम जीवन का असली आनंद तो भूल ही जाते हैं,संतुष्टि का भाव कभी आ ही नहीं पाता।जबकि जीवन में सब कुछ अस्थाई है।
ज्ञानी व्यक्ति कभी भी अकारण अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन नहीं करते।प्रदर्शन लघुता की निशानी है।इसका मतलब यह नहीं है कि हम कभी स्वयं के उज्ज्वल पक्ष को उजागर करने का प्रयास ही न करें,बल्कि अपने विचारों को विभिन्न तर्कों के माध्यम से दूसरों पर थोपने से बचें।
व्यक्ति पद में छोटा है या बड़ा इस बात से उसके व्यक्तित्व का आंकलन या उसे अनदेखा करना गलत है।पद प्रतिष्ठा मानसिक स्थिति से अधिक कुछ नहीं है।
इसी तरह कई बार हम किसी अप्रिय बात को लेकर किसी व्यक्ति को क्षमा नहीं कर पाते।क्षमा करना उदारता का कार्य है,किसी को क्षमा करके हम स्वयं का ही भला करते हैं,हमारे मन पर रखा हुआ एक बड़ा बोझ हमसे उतर जाता है।हम जानते हैं कि समस्त ब्रह्मांड कार्य,कारण व प्रतिक्रिया के सिद्धान्त पर चलता है।कोई भी घटना अकारण नहीं होती,चाहे वह अप्रिय ही क्यों न हो! आनंदमयी माँ के शब्दों में "जो कुछ भी होता है,दिव्य की इच्छा के रूप में होता है।ईश्वर इस ब्रह्मांड के प्रत्येक अंश का अदृश्य नियंत्रक है।" इसका मतलब अगर हम अपने अहंकारवश किसी को क्षमा नहीं कर पा रहे हैं तो हम साफ़ तौर पर ईश्वर को क्षमा नहीं कर पा रहे क्योंकि सब कुछ उसी की इच्छा से व हमारे शुद्धिकरण के लिए घटित हुआ है।
इसके अतिरिक्त हम किसी की गलती के बारे में शिकायत करने से अच्छा उसे ठीक करने का सुझाव दें व अच्छा कार्य करने पर प्रशंसा से कभी न चूकें।आदतें परिवर्तित होने पर अहंकार का भाव स्वतः विसर्जित हो जाएगा।
अंत में रस्किन जी की एक उक्ति याद आ रही है
"सभी महान भूलों की नींव में अहंकार ही होता है।"
किसी भी तरह की भूल से बचा जा सकता है अगर अहंकार का भाव मन में लाया ही न जाये।ये महान भूलें ही हैं जिन्होंने संपूर्ण विश्व का नक्शा बदल दिया।विश्व युद्धों का जन्म,विभिन्न राष्ट्रों द्वारा अपनी नस्ल व जाति को ही श्रेष्ठ बताना अहंकार ही है जिसने पतन की ओर अग्रसर किया।हिटलर द्वारा यहूदियों पर किये रूह को कँपा देने वाले अत्याचार कौन भूल सकता है! इस तरह की सनक भरी भूलों से हमारा इतिहास भरा हुआ है।वर्तमान में भी इस्लामिक देशों द्वारा गैर इस्लामिक देशों पर हमले,अपने धर्म को श्रेष्ठ मानकर आतंक आदि को बढ़ावा देना सर्वश्रेष्ठ होने का मिथ्या अभिमान है,जिसका नुकसान समस्त मानव प्रजाति को उठाना पड़ रहा है।अहंकार एक व्याधि है जिससे शीघ्रातिशीघ्र मुक्त होना ही मानवता के लिए औषधि है।
अल्पना नागर ©

Sunday 18 June 2017

समाजीकरण

समाजीकरण

सिमोन तुमने कहा
स्त्रियां पैदा नहीं होती,बनाई जाती हैं!
सच कहा..
समाज की ओखली में
सर रखकर
कूट कूट कर भरे जाते हैं
संस्कार
सिखाया जाता है
समर्पण का 'सुख'!
तैयार किया जाता है
तयशुदा रास्तों पर चलने को..
लगाये जाते हैं
समाजीकरण के नित नए
दर्दनाक 'इंजेक्शन'..
तय किये जाते हैं
'छूट' के आयाम..
उन्हें दी जाती है
खिड़की भर आसमान की
मनमर्जियाँ
जहाँ से शून्य आँखें
रोज निहारती हैं
असंतोष की एक लंबी रेस..
तुम चाहती हो दौड़ से अलग होना
और विचार मात्र से ही
हो जाती हो
पूर्णतः बहिष्कृत
अस्तित्वहीन!
फिर शुरू होती हैं
ब्रह्माण्ड जितनी अनंत बहसें..
टांग दिए जाते हैं
असंख्य क्षुद्र ग्रह और तारक गण
तुम्हारे चरित्र पर!
तुम लाख कोशिश करती हो
लेकिन ढूंढ नहीं पाती
'ए रूम ऑफ़ वन्स ओन'
जो वर्जीनिया नें बनाया था..
हर कोने में नजर आती हैं
बेतरतीब समाज की
चरमराती चारपाइयाँ!
जिसपर बैठने का तुम्हे कोई हक नहीं!
आखिर क्यों भूल जाती हो हर बार कि
पैदा नहीं होती तुम
'बनाई' जाती हो..!!

अल्पना नागर,नई दिल्ली









Sunday 26 February 2017

Castle of imagination

The castle of imagination you created
Inside the castle just we two inhabited
You brought me roses of smile
You fetch me tender feelings
I pricked you thorns from roses
The roses got withered
With salty drops of tears..
I brought to you the mirror of reality
The tender feelings got crushed in thousands pieces..
I committed sin of destroying
The happy castle
Now I live in the world of rock hard reality
With false unscented flowers around
With no traces of feelings
I chose my world..
I chose the empty soul..
My mornings are burdened with
Stone over my heart..
I don't have any right but
May i ask one thing..
Can we both create that castle again..!
Let's create the magic world again
Just me and you there..

Alpana.


Saturday 25 February 2017

कविता-स्त्री और प्रेम

चेतना,
निर्णय,
अधिकार,
एक एक कर सब
समर्पित कर चली हो,
स्त्री तुम प्रेम कर बैठी हो!
सहगामिनी बनने चली थी,
अनुगामिनी रह गई हो,
स्त्री! तुम प्रेम कर बैठी हो!
घर,नौकरी,बिल,मीटिंग्स तक
दायरा विस्तृत कर लिया है
आजादी का 'आभास' कराने वाले
पिंजरे का दायरा..!
समाज की चरमराती खूँटी पर
टांग आयी हो
'इंडिविजुअल एन्टिटी' को!
टिकाये रखा है तुमने
अपने कंधों पर
सामंती चतुर्वर्ण व्यवस्था का भार,
रीढ़ अपनी झुका बैठी हो
स्त्री! तुम प्रेम कर बैठी हो
विभ्रमों और दुविधा के
मकड़जाल में फंसी
कब पहचानोगी कि
महज श्वास लेना भर
जीना नहीं होता!
सर्वत्र प्रेम लुटाने वाली
कब सिखोगी कि
खुद से प्रेम किये बैगर
असंभव है जीवित रह पाना!
स्त्री!क्या सचमुच तुम प्रेम कर बैठी हो!!

अल्पना नागर







Thursday 23 February 2017

Poetry

Season of cold

Misty weather...misty relations..
warm quilts with COLD people inside..
blazing firewood with COLD people around..
smiling faces masked with nefarious designs inside..
season of cold..season of COLD behaviour....

Alpana

व्यंग्य




ब्रह्मास्त्र

बचपन में बालहंस पत्रिका में कवि आहत को खूब पढ़ा था।परिपक्व होने पर यकीन हुआ कि सचमुच कवि आहत जैसे समर्पित कवि इसी दुनिया में मौजूद हैं,जो यत्र तत्र सर्वत्र अपनी कविताएं सुनाने को बेचैन रहते हैं बस अगर श्रोता मिल जाएं तो कविता धन्य समझो।ऐसे ही पिता के परिचित एक कवि मित्र हर रविवार हमारे धैर्य की परीक्षा लेने आते थे।दरवाजे पर उनके स्कूटर की आहट के साथ ही हमारी धड़कनें असामान्य हो जाती।दिखने में बांस जैसे लंबे,दुबले पतले,बिखरे बाल व चेहरे पर सप्रयत्न सामने लाई बालों की एक लट उनके कवि होने पर मुहर लगाती थी।पूरा रविवार उन्हीं की प्रयोगवादी,छायावादी,प्रगतिशील मिश्रित कविताओं को सुनने में निकल जाता था।
मानव स्वभावतः स्वार्थी होता है,कविताओं के मामले में भी यही कह सकते हैं,सुनने वाले कम लेकिन सुनाने वाले ज्यादा मिल जाएंगे।चाय की पांच बार आवृति होने तक वह सज्जन धड़ाधड़ कविताएं सुनाते रहते।पिता के दिमाग में उस समय वहाँ से रफा दफ़ा होने के सैकड़ों बहाने आते मगर शब्द जुबां तक आते आते जाने कहाँ अटक जाते,खैर अपने घर से भागकर जाते भी कहाँ! लेकिन कहा जाता है कि हर समस्या का समाधान देर सवेर हो जाता है।इसी क्रम में रविवार की एक सुबह वही सज्जन आये और औपचारिकतावश पूछ बैठे "और मित्र क्या लिख रहे हो इन दिनों कुछ सुनाओ यार।"
पिताजी को जैसे ब्रह्मास्त्र मिल गया, तुरंत अपने चश्में को सँभालते हुए बोले "बस कुछ खास नहीं यही कोई 350 पृष्ठ का एक लघु नाटक लिखा है,बैठिये सुनाता हूं।"
उन सज्जन को इस उत्तर की कतई उम्मीद न थी,लड़खड़ाई आवाज में बोले "350 पृष्ठ?"
"हाँ तो क्या हुआ पूरा दिन आज फ्री है,इत्मीनान से सुनिये।"पिताजी नें कहा।
वो सज्जन अपनी डायरी और स्कूटर की चाभी टटोलते हुए बोले "भाईसाब मैं कितना भुलक्कड़ हूं, अत्यंत आवश्यक कार्य था,गैस सिलेंडर बिल्कुल ख़त्म है,प्रबंध करना पड़ेगा।"
"अरे कहाँ जा रहे हैं मास्साब रुकिये,मेरे होते हुए आप ये तकलीफ़ कैसे कर सकते हैं,संयोग से कल ही मैंने अतिरिक्त सिलेंडर लिया है।अब तो आपको पूरा नाटक सुनना ही पड़ेगा।
पता नहीं क्यूँ पर उस रविवार के बाद वो सज्जन पुनः दिखाई नहीं दिए।
इसी क्रम में सप्ताहांत में रेल से यात्रा के दौरान एक सज्जन नें पूछा"भाई साहब आप किसी गहन विचार में हैं कहीं आप कवि तो नहीं?"
पिताजी एकदम सन्न इन्हें कैसे ज्ञात हुआ?ये खगोलशास्त्री या मनोविज्ञानी तो नहीं!!
"जी थोड़ा बहुत लिख लेते हैं।"
"बहुत अच्छे,दरअसल हम भी कवि हैं।अब भला एक कवि दूसरे कवि को नहीं पहचानेगा क्या?"
उन सज्जन को जैसे कुबेर का खजाना मिल गया।
सूचना क्रांति व सोशल मीडिया नें सभी के अंदर के कवि को जगा दिया है।फट से डायरी निकाली और बिना एक क्षण की देरी किये कविताएं सुनाना शुरू।10-12 कविताएं सुनने के बाद यहाँ भी पिताजी नें अपना ब्रह्मास्त्र निकाला।पता नहीं क्यूँ लेकिन पूरी यात्रा में वो सज्जन आँखें मूंदे लेटे रहे।

अल्पना नागर



Wednesday 22 February 2017

एक शाम

एक शाम

चलो
मिलते हैं किसी रोज़
उसी जगह
जहाँ मिलते हैं
जमीं और आसमां..
क्षितिज पर
कत्थई क्षणों को
देर तक
निहारते हुऐ
बनायेंगे कुछ घरौंदे
मिट्टी जैसे अरमानों से,
टूट भी जायें अगर
तो ग़म नहीं होगा !
भर लेंगे
बेपनाह समंदर
मुहब्बत का
एक छोटी सी चाय की
प्याली में..
गिनेंगे हर आती जाती
लहर और
धड़कनों को...
चुन कर रख लेंगे
किनारे पड़े शंख
सीप और फेनिल लम्हे..
तुम देखना
मेरी आँखों में
डूबता हुआ सूरज
मैं इंतज़ार करूँगी
चाँदनी उतरने का
ज्वार भाटे सी
घटती बढ़ती सांसों में..
निकल आयेंगे
दूर तलक
लहरों के पीछे पीछे
छोड़ आयेंगे
यादों के निशान
भुरभुरी समय रेत पर..
हो सके तो
उस रोज़
घड़ी की जगह
फुरसत बाँध के आना
कलाई पर...

अल्पना नागर

कविता-शब्द

सोचती हूँ
शब्द नें अब तक
हमें क्या दिया?
आकार दिया
निराकार भावों को!
एक तटस्थ पुल की भाँति
स्वयं चरमरा कर भी
जोड़े रखा
विपरीत ध्रुवों को,
एक युग यात्री बन
बदल डाली दुनिया
किन्तु हमनें क्या किया
शब्दों के साथ?
कभी छोड़ दिया
अकेले वाक् युद्ध में
लहूलुहान होने..
तो कभी सजा दिया उन्हें
भावविहीन भाषा की दुकान में
प्रतिस्पर्धा का
चमकीला आवरण पहना कर!
हम समझते रहे
हमनें शब्द गढ़ दिए!
किन्तु हकीकत में
शब्द हमें गढ़ रहे हैं
एक सुघड़ शिल्पी की भाँति
बड़ी ही सूक्ष्मता से
एक एक कर हमारे
जीवन के पृष्ठ गढ़ रहे हैं,
शब्द ब्रह्म हैं
शब्दों को सुनो..

अल्पना

Mutual beloved

She was lying next to me
I touched
no response,
i kissed
no response,
i embraced
Now i felt
she was not there
Yet she was lying
Next to me!!
One day i found her
Walking at mid night
i beckoned
But again
no response!
She faded away
in the darkness..
So embarrassing 'twas..
after a couple of days
i got her luckily
Hiding deep in my heart!
Oh i found her
right on the glossy lips of yours
smiling..smirking..
Again i caught her
shining on the
vast forehead of
Money ,fame and love..
hey !what are you thinking ?
she is our mutual beloved loneliness !!

Alpana ✏

हायकू

हायकू
(1)
कभी रुके न
समय मुसाफ़िर
चलते जाना
(2)
सूखे गुलाब
जीवन की साँझ में
हरा बसंत
(3)
सम्बन्ध घास
अहंकार की आग
अंततः खाक
(4)
रूठना तेरा
वसंत समय का
शिशिर होना
(5)
वो इन दिनों
लबालब भरे हैं
खालीपन से
(6)
कोरा कागज़
पढ़ लो जरा तुम
भाव के मोती
(7)
तुम्हारा जाना
घड़ी की टिक टिक
ठहरा वक्त
(8)
शीत ऋतु में
मुट्ठी भर धूप सी
उजली यादें

अल्पना नागर







Monday 2 January 2017

सड़क

सड़क

एक शहर है
चमकते सूरज सा
शहर में रोज़ उगती है
उम्मीदों की ओस में भीगी हुई
कुकुरमुत्ते सी सहर !
सहर के साथ ही
दूर तक जाती है
एक सड़क
बत्तीस दाँतों के बीच
बनी जिह्वा सी
सीधी सपाट
धूम्र धूरसित सड़क,
सड़क के किनारे हैं
कुछ हाशिए सी किनारे लगी
चलती फ़िरती जिंदगियां
आसपास ही
मक्खी की तरह भिनभिनाती
निराशा!
निराशा,तरस आती है तुझपर
कितनी दफा देखा
तुझे हाथ मलते हुऐ
बारम्बार प्रयास कर
पुनः लौटते हुऐ !!
जीवट जिंदगियों नें सजाई है
सड़क किनारे दुकान
और चेहरे पर मुस्कान
पास ही रखी है
मिट्टी की बनी
गुल्लक,
गुल्लक में शोर मचाते
चिल्लर सपने
"कब जाओगे घर
कब लौटोगे गाँव ?"
गुल्लक के पास है
एक टोकरी
टोकरी में एक एक कर जमा हुऐ
ढेरी लगे दिलासे !
ये सड़क कितनी लम्बी है,
कहाँ तक जायेगी ?
कोई नहीं जानता !!

अल्पना नागर ✏





Sunday 1 January 2017

poetry under construction

'Poetry under construction'

Here things are
lying on the table
Papers ,
pen ,
notepad,
Bookmarked magazines ,
Unwashed tea cups,
Uncombed hair ,
Some mystic images ,
Sterile phrases ,
Frozen words ,
Vague expressions ,
Scattered Experiences
all in a chaotic manner
Living with dust around
With smothering smell of
Cigarette rings
Floating in the air,
somebody half conscious
Trying to lean over the table
waiting for the words to come..
Yes he is giving birth to
A poetry....!!!

Alpana nagar ✏