Saturday 25 February 2017

कविता-स्त्री और प्रेम

चेतना,
निर्णय,
अधिकार,
एक एक कर सब
समर्पित कर चली हो,
स्त्री तुम प्रेम कर बैठी हो!
सहगामिनी बनने चली थी,
अनुगामिनी रह गई हो,
स्त्री! तुम प्रेम कर बैठी हो!
घर,नौकरी,बिल,मीटिंग्स तक
दायरा विस्तृत कर लिया है
आजादी का 'आभास' कराने वाले
पिंजरे का दायरा..!
समाज की चरमराती खूँटी पर
टांग आयी हो
'इंडिविजुअल एन्टिटी' को!
टिकाये रखा है तुमने
अपने कंधों पर
सामंती चतुर्वर्ण व्यवस्था का भार,
रीढ़ अपनी झुका बैठी हो
स्त्री! तुम प्रेम कर बैठी हो
विभ्रमों और दुविधा के
मकड़जाल में फंसी
कब पहचानोगी कि
महज श्वास लेना भर
जीना नहीं होता!
सर्वत्र प्रेम लुटाने वाली
कब सिखोगी कि
खुद से प्रेम किये बैगर
असंभव है जीवित रह पाना!
स्त्री!क्या सचमुच तुम प्रेम कर बैठी हो!!

अल्पना नागर







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