Thursday 31 December 2020

आलेख

 आलेख- विचारों की शक्ति


आपमें से अधिकांश नें आकर्षण के सिद्धांत के बारे में सुना होगा।हम इसे प्रतिदिन अपने दैनिक जीवन में देखते हैं,महसूस करते हैं और वस्तुतः इसे जीते भी हैं।आखिर ये आकर्षण का सिद्धांत है क्या !आज के आलेख में इसी पर थोड़ा विस्तार से ध्यान देते हैं।

आपने अपने आस पास परिचित मित्रों या रिश्तेदारों की जीवन शैली पर ध्यान दिया होगा,कोई मित्र स्वयं में जीवन से भरपूर होता है तो कोई जीवन से पूर्णतः दूर..हमेशा कोई न कोई शिकायत करता हुआ।ऐसा क्यों होता है कि कोई व्यक्ति बहुत अधिक खुशमिजाज होता है तो कोई बहुत अधिक चिड़चिड़ा..इतना कि ऐसे व्यक्ति से बात करते हुए भी डर और झिझक महसूस होने लगती है।हम अधिकांशतः अप्रिय घटनाओं के लिए किस्मत को कोसना शुरू कर देते हैं और बार बार उन्हीं घटनाओं को स्मरण कर एक अजीब सा नकारात्मक माहौल अपने इर्द गिर्द बुन लेते हैं।क्या सचमुच किस्मत जैसी कोई चीज होती है जो कठपुतली की तरह आपको अपनी उंगलियों पर नचाना जानती है!

आकर्षण का सिद्धांत कहता है कि जितनी भी घटनाएं हमारे साथ घटित होती हैं उसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार होते हैं,हम उन्हें अपनी ओर आकर्षित करते हैं।मनुष्य मस्तिष्क इतना अधिक शक्तिशाली है कि ये समान विचारों को अपनी ओर खींचता है वो सभी चीजें जिनकी हमने चाह की होती है एक न एक दिन मूर्त रूप में हमारे सामने उपस्थित होती हैं बशर्ते आपने अपनी ऊर्जा उसी दिशा में लगाई हो।दुनिया जिसे सफलता का नाम देती है दरअसल वो हमारे विचारों और ऊर्जा का ही विस्तार रूप होता है।

अगर हम बार बार अपनी शारिरिक व्याधि या किसी अन्य कष्ट को स्मरण करते हैं तो अपनी ऊर्जा का अधिकांश हिस्सा हम स्वयं अपनी मर्जी से उसी ओर प्रवाहित कर रहे होते हैं,जो धीरे धीरे उसी के समान या उसी से संबंधित अन्य परेशानियों को आकर्षित करती है।ये सब कुछ हमारे दिमाग में घटित होता है जो शनै शनै हमारे दैनिक जीवन में मूर्त रूप में परिणित होता जाता है।

इसके ठीक उलट अगर हम विपरीत परिस्थितियों में भी कुछ अच्छा सोचते हैं।नकारात्मक बुरी चीजों को सिरे से अनदेखा करते हैं तो धीरे धीरे वो चीजें दूर होनी शुरू हो जाती हैं क्योंकि आप उन्हें अपनी ओर आकर्षित नहीं कर रहे हैं।आपने अच्छा सोचा सकारात्मक रहे तो निश्चित रूप से चुम्बक की तरह अच्छी चीजें आपकी ओर आकर्षित होती जाएंगी।ये बात सुनने में भले ही अजीब लगे किन्तु व्यावहारिक तौर पर आजमाने योग्य है।अगर आप स्वयं ही हीन भावना से ग्रस्त होकर अवसादमय जीवन जीना चुनते हैं तो आप पाएंगे कि आपके आसपास आपकी हंसी उड़ाने वाले लोगों का जमावड़ा हो चुका है जिनसे आप किसी भी हाल में बचना चाहते हैं।यहाँ आपके विचारों नें मस्तिष्क की तरंगों नें ऐसे समान प्रवृत्ति वाले लोगों को आकर्षित किया है।इसके विपरीत अगर आप स्वयं को किसी भी तरह की हीन भावना से मुक्त करते हैं तो पाएंगे कि मजाक उड़ाने वाले तुच्छ मानसिकता के लोग वाष्प की तरह आपकी जिंदगी से या तो गायब हो गए हैं या फिर उन्होंने आपको केंद्र बनाना छोड़ दिया है।

हमारे विचार ही हमें बनाते हैं,हमारे व्यक्तित्व को मूर्त रूप देते हैं..विचारों की एक श्रृंखला बनती जाती है और वातावरण उसी के अनुकूल होता जाता है।हमें वही मिलता है जो हम मस्तिष्क में उपजाते है।

कल्पना कीजिये आप अच्छा लिखना चाहते हैं एक सुविख्यात लेखक बनने का आपका स्वप्न है।आप इसे हर दिन अपने मस्तिष्क में रखिये..दोहराइये..नकारात्मक हर बाहरी टिप्पणी को अनदेखा कर अपनी कमियों को सुधारते जाइये।आप देखेंगे कि आपके आसपास अच्छी पुस्तकों व ज्ञानवर्धक विचारों का ढेर लगा है,अच्छे लोग आपसे जुड़ रहे हैं और तमाम तरह के बाहरी अवरोधों के बावजूद आप अपनी ऊर्जा को उसी दिशा में प्रवाहित होते देखेंगे।आप महसूस करेंगे कि आपके लेखन में बहुत ही सकारात्मक परिवर्तन आये हैं।यहाँ आपने कोई जादू मंतर नहीं किया अपितु अपनी चाह को मस्तिष्क में रख हर दिन उसे पोषित किया,उसे वास्तविक रूप दिया..अपनी समस्त ऊर्जा उस दिशा में झोंक दी।इसके अतिरिक्त आपने कुछ नहीं किया।यही बात जीवन के अन्य पहलुओं पर भी लागू होती है।चाहे वो आपसी संबंध हो या किसी असाध्य बीमारी की तकलीफ़।आपने जो चाहा वो आपके सामने हाजिर हुआ।

अलादीन के चिराग से तो आप सभी वाकिफ़ होंगे।अलादीन एक चिराग को रगड़ता है और जिन्न उसके सामने उपस्थित होता है उसकी ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए।कोई जादू नहीं होता।जादू को असल रूप देने के लिए भी इच्छा जाहिर करनी होती है।चिराग को रगड़ना होता है।यहाँ चिराग सभी के पास है और वो है मस्तिष्क उसे जितना इस्तेमाल में लेंगे जितना रगड़ेंगे उतना ही इच्छाओं को पाने के योग्य होंगे।

हिंदू मिथक में भी कल्पवृक्ष का जिक्र आता है जिसके नीचे बैठकर सोचने मात्र से इच्छाएं पूरी हो जाती हैं।ये कल्पवृक्ष भी दरअसल हमारा मस्तिष्क ही है हम जो भी कल्पना में लाते हैं वो हमारे विशुद्ध प्रयासों की वजह से हक़ीकत में बदल जाता है।दुनिया में जितनी भी अद्भुत चीजें हम देखते हैं जितने भी आविष्कार हम देखते हैं वो सभी पहले मस्तिष्क में घटित हुए उसके बाद ठोस रूप में दुनिया के सामने आए।

मनुष्य भी सिर्फ ऊर्जा का पुंज मात्र है जिसने हाड़ मांस का ठोस आकार ग्रहण कर लिया है,ऊर्जा जो न बनती है और न ही विनिष्ट होती है बस प्रवाहमान रहती है।


नववर्ष सभी के लिए मंगलकारी हो।

-अल्पना नागर

Wednesday 30 December 2020

कौन सा घर


कौन सा घर


आमतौर पर घर जिसे हम सपनों का आशियाना भी कहते हैं,इंसान की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक माना जाता है।कहा भी जाता है रोटी,कपड़ा और मकान इन तीन शब्दों को जोड़े रखने का नाम जिंदगी है।ईंट पत्थरों से जुड़कर रहने लायक आवास बनाने में समूचा जीवन लग जाता है और उसे 'घर' बनाने में विशुद्ध अपनापन और कुटुंब की निस्वार्थ भावना का होना जरूरी हो जाता है अन्यथा 'घर' टूटकर सिर्फ मकान रह जाता है।

लेकिन क्या कभी सोचा है जिस घर को हम इतने प्यार और अपनेपन के साथ हमारे जीवन का अभिन्न अंग बनाते हैं वो सचमुच हमारा है भी या नहीं..! दरअसल मकानमालिक होते हुए भी हम आजीवन एक मामूली किरायेदार हैं जिसे एक न एक दिन मकान खाली करना है।बात भले ही दार्शनिक लगे किन्तु कटु सत्य है जिसे हम जानते हुए भी स्वीकार नहीं कर पाते और जीवन भर तरह तरह की उलझनों में फंसते चले जाते हैं।

इस समूचे ब्रह्मांड में अनेकानेक ग्रहों उपग्रहों और आकाशगंगा के बीच हमारी पृथ्वी पेंसिल की नोक से भी मामूली आकार की है।ये विडंबना है कि उसी पृथ्वी पर हम आजीवन घर तलाशते हैं,रिश्ते नातों को धता बता मामूली जमीन के टुकड़ों की ख़ातिर कानूनी लड़ाई लड़ते हैं।

ये पृथ्वी का अटूट धैर्य ही है जिसने मनुष्य द्वारा अंतरतम केंद्र तक खोद दिए जाने के बावजूद इंसानी सभ्यता को अक्षुण्ण बनाये रखा,शायद इसीलिए इसे धारिणी की उपमा दी गई है।

लियो टॉल्सटॉय की विश्व प्रसिद्ध कहानी 'हाउ मच लैंड डज़ ऐ मैन रिक्वायर' में इसी तरह का संदेश दिया गया है।इंसान को अंत में सिर्फ छह गज जमीन के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिए वो भी उसकी कब्र के लिए।यहाँ इस कहानी का जिक्र करके सांसारिक नश्वरता को इंगित करना भर नहीं है अपितु ये बताना है कि जितना भी अनमोल समय है उसे हर क्षण जी भर के जिया जाए,भविष्य की व्यर्थ चिंता में पड़कर जमीन ज़ायदाद के पीछे दौड़कर हम जीवित होते हुए भी साक्षात मृत्यु का वरण करते हैं।

सच बात यही है कि हमारा अपना कोई घर नहीं होता और न ही कोई पता स्थाई होता है जो कुछ भी वर्तमान में है वही जीवन है वही घर है।

स्त्रियों के मन मे अनेक बार ये प्रश्न जरूर आता है आखिर वो कौनसा घर है जिसे वो अपना माने..पीहर पक्ष जहाँ उसने अपने जीवन की शुरुआत की..या फिर ससुराल पक्ष जहाँ उसे एक बार पुनः नई शुरुआत करनी है,नए सिरे से चीजों को समझना है अंगीकार करना है।स्त्री चाहे कितनी भी कोशिश करे वो आजीवन दोनों घरों के बीच फंसी रहती है वो भी खुशी खुशी स्वेच्छा से।कई बार यूँ भी होता है उसे दोनों तरफ से दुत्कार के सिवा कुछ नहीं मिलता।पीहर पक्ष विवाह के बाद अपने कर्तव्य से इतिश्री कर जिम्मेदारियों से स्वयं को विमुक्त कर लेता है दूसरी तरफ ससुराल पक्ष भी उसे पराया समझ रूखा व्यवहार करता है ऐसे में एक स्त्री घर की देहरी जैसी हो जाती है जिससे गुजरते तो सभी हैं लेकिन उसे घर का हिस्सा नहीं मानते।वर्तमान में काफी हद तक परिस्थितियों में बदलाव आया है।अब स्त्रियों को 'अपना घर' संबंधित प्रश्न पर इतनी अधिक मानसिक यातना नहीं झेलनी होती।फिर भी दोनों ही परिस्थितियों में स्त्री सहृदय रहती है ,दोनों घरों को अपना मानती है और खुले हृदय से प्रेम और अपनापन लुटाती है।उसके होने से दोनों घरों में चहक और रौनक बनी रहती है।

मनुष्य भी अगर समूची पृथ्वी को अपना घर मानकर जीवनयापन करे तो शायद मसले इतने अधिक न हों।एक छोटे से घर में हमनें इतनी अधिक दीवारें और सीमाएं बना दी हैं इतने अधिक बँटवारे और कौम खड़ी कर दी हैं कि घर एक उलझे हुए जंजाल के अतिरिक्त कुछ नजर नहीं आता।उलझनों नें वास्तविक उद्देश्य को पूर्णतः विस्मृत करा दिया है।

अगर अभी भी आप यही सोचकर व्यथित हो रहे हैं कि समूचे जीवन में एक छोटा सा मकान तक खड़ा नहीं कर पाया तो एक बार पुनः विचार करें।


अल्पना नागर

Saturday 7 November 2020

आकाश

 आकाश


(1)◆

दूर तक फैला राख का समंदर

आकाश किसी धूणी रमाये अघोरी सा

खड़ा है एक टांग पर

बरसों से...!


(2)◆◆

इन दिनों 

हैरान है आकाश

अपने साँवले अधरों पर/

जैसे पीता हो 

दिन की तीस सिगरेट

सब कुछ धुआँ करने को..!


(3)◆◆◆

आकाश के दामन में हैं

ढेरों पुलिंदे 

शिकायतों के..

कोई धुँधला परदा है बीच में कि

नहीं पहुंचती कोई प्रार्थना ठीक से/

आकाश किससे कहे

उसका दम घुटता है..!!


(4)◆◆◆◆

धुआँ चाहे बारूद का हो या

हो निजी स्वार्थों का..

आकाश झेलता है/

वो जमकर बरसता है

हालातों पर..

उसे भी जिद है

रोज नया सूरज उगाने की..!


(5)◆◆◆◆◆

जब छूटने लगती है

हाथों से डोर/

आकाश सिमट कर

आ जाता है

मन के आँगन में

किसी नीली पतंग सा

हौले हौले..!


(6)◆◆◆◆◆◆

बालकनी भर दुनिया में

आकाश की उपस्थिति

जैसे होना किसी मित्र का

स्थाई रूप से/

मन की टेबल पर

मूक संवाद और

एक निस्सीम भाव

चाय के प्याले में उतरते जाना

किसी हमख़याल सा..!


(7)◆◆◆◆◆◆◆

उसे पता है

शून्य होकर भी

हुआ जा सकता है

निस्सीम..!


(8)◆◆◆◆◆◆◆◆

वो उसकी एक मुस्कान पर

बिछा देता है

खुद को/

जमीं हँसती है

आकाश सजदा करता है..!

क्षितिज पर रचती है

कत्थई मेहंदी..!


-अल्पना नागर



Sunday 1 November 2020

लौट आना

 लौट आना


जाने से पहले

लौट आना 

जैसे लौटती है कविता

कवि के पास

दुनियाभर की घुमक्कड़ी के बाद


वैसे ही जैसे लौटती है

हर जाती हुई सांस

जिस्म के पिंजरे में हर बार

उड़ती हुई राख पे खिलते फूलों से होकर

नदियों की शिराओं तक/

शिराओं में प्रवाहित होते जीवन से लेकर

पुनः राख बन बहने तक

लौट आना..


जाने से पहले 

देखना एक बार मुड़कर

पहली बार स्कूल जाते बच्चे की तरह

कि लौटना हर बार/

बाहों में आकाश लिए

परिंदे की तरह उड़ान भरे


जाने से पहले 

सौंपते जाना अपना सर्वस्व

जैसे सौंप के जाता है दिन

अपनी उमंगे और ऊर्जा

रात की संदूकची को

चाँद तारों से भरकर..

पुनः पुनः लौट आने को !


-अल्पना नागर




कहानी- वेदना

 कहानी

वेदना


"बेटा, एक बार बात तो कर लो।मैं कब से फोन किये जा रही हूँ, सिर्फ एक बार इस अभागिन की बात सुन लो ! फिर चाहे जो सजा देनी हो,दे देना।" फोन के दूसरी ओर एक काँपते पत्ते सी आवाज फड़फड़ा रही थी।

"आपसे कितनी बार कहा है..यहाँ फोन मत किया करो।कितने नम्बर ब्लॉक करूँ,हर बार पता नहीं कहाँ कहाँ से फोन करती रहती हो!"खट्ट से फोन कटने की आवाज आयी।

उंगली का नाखून जब कटकर गिरता है तो दर्द नहीं होता,वो स्वेच्छा से काटा जाता है।सभ्य समाज में रहना है तो नाखून कटे होना पहली शर्त है।एक प्राकृतिक क्रिया बिना किसी दर्द या वेदना के।अपने बच्चों को अलग करना भी कुछ ऐसा ही है।दूर किसी अच्छी जगह अध्ययन के लिए अपनी संतान को भेजना सभ्यता की ओर पहला कदम..समाज की दृष्टि में!

लेकिन नाखून अगर स्वेच्छा से ही जड़ से निकाल कर अलग कर दिया जाए तो..उफ्फ कल्पना मात्र से ही पूरे शरीर में एक झुरझुरी दौड़ पड़ी..है न!असहनीय वेदना !

हाँ.. मैनें अपने ही हाथों अपनी उंगलियों के नाखून नोच डाले।अब आप सोच रहे होंगे कि भला कोई अपने आप से ऐसा क्यों करेगा!इस तरह की यातना स्वयं को क्यों देगा!

आज से बीस वर्ष पूर्व मेरी गोद में वो आयी।रुई के गोले सी सफेद झक्क मुलायम मेरी बच्ची..देखते ही मैं अपनी सारी प्रसव वेदना भूल बैठी।बस मातृत्व की धारा पूरे बदन में हिलोरें मार रही थी।मैं सोते जागते हर वक्त बस उसे निहारती रहती।रात सोते वक्त उसका मासूम चेहरा दैवीय जान पड़ता था,मैं हर क्षण सतर्क रहती कहीं मेरी वजह से नन्हीं जान को कोई तकलीफ न हो।उसे जन्म देकर मैं पूर्ण हो गई थी।एक नया जन्म..स्वयं मेरा !

"ये इतनी प्यारी है..इसे तो मैं ही रखूँगी अपने पास..।"हसरत से निहारती दीदी नें गोद में उसे दुलारते हुए कहा।

"अरे दीदी..मेरे कलेजे का टुकड़ा है ये..इसे तो मैं नहीं दूँगी।मेरे पास ही रहेगी मेरी राजकुमारी।" बात को गंभीरता से लेते हुए मैनें कहा।

दीदी पंद्रह वर्ष के विवाह पश्चात भी निःसंतान के दंश को झेल रही थी।मैं उनकी भावना समझ रही थी लेकिन मेरी भावना का क्या..! एक नई नवेली माँ को उसका पहला बच्चा कितना प्यारा होता है ये बताने की जरूरत नहीं।एक माँ अपने ही अंदर के एक टुकड़े को नया जीवन देती है।वो टुकड़े के जरिये स्वयं का विस्तार कर रही होती है।और संतान अगर लड़की है तो एक माँ हमेशा के लिए 'जीवित' हो जाती है।उसकी आदतें,गुण,संवेदनशीलता और स्त्रीत्व सब उसमें स्थानांतरित हो जाते हैं।एक माँ के लिए इससे बढ़कर सुकून और क्या हो सकता है।सच कहूँ तो मैं उस वक्त बहुत ज्यादा स्वार्थी हो गई थी।मैनें ये भी नहीं देखा कि दीदी का खिला हुआ चेहरा मेरे जरा से वक्तव्य से कितना आहत हुआ..एकदम से मुरझा गई थी वो।पर मैं क्या करती मुझ पर उस वक्त एक माँ हावी थी जिसके लिए उसकी संतान ही सब कुछ थी।

वक्त नें शायद मेरी बेरुखी को पहचानकर मुझे जोरदार चांटा जड़ा।उसे मंजूर ही नहीं था कि मैं मातृत्व के उस अलौकिक सुख को ज्यादा देर अनुभूत कर सकूं।उसे देख देखकर दिन जैसे पंख लगाकर उड़ रहे थे।वो मुश्किल से साल भर की हुई कि एक खबर नें मुझे हिला कर रख दिया।काली खांसी का दौरा मेरे जीवन को किस कदर काला स्याह कर देगा मैनें सोचा तक न था।दिन रात मेरे कलेजे से उठती असहनीय वेदना और निरन्तर खांसी के दौरे नें घर की नींव हिला दी।बहुत तरह के वैद्य हक़ीम और डॉक्टर से परामर्श लिया किन्तु कोई फायदा नहीं..खांसी जैसे मेरे अंतस में डेरा डाल के बैठ गई।वो जैसे कीमत मांग रही थी अपनी सबसे बेशकीमती चीज़ से खुद को जुदा करने की!मैं किसी दीमक लगे विशाल पेड़ की तरह किसी भी क्षण गिरने वाली अवस्था में स्वयं को महसूस कर रही थी।मेरे सपने में अक्सर एक काला साया उठता हुआ दिखता वो जब भी आता मेरी फूल सी कोमल बच्ची को अपनी मजबूत भुजाओं में उठाकर धुआँ बन अदृश्य हो जाता, सुबह उठकर मैं पसीने पसीने हो उठती।पास लेटी बच्ची को सुकून से सोया देखकर भी मन में उस काले साये की दस्तक सुनाई देती थी।

काली खांसी का उस वक्त कोई पुख्ता इलाज न था।मुझे संक्रमण की चिंता सताने लगी।मुझे काला साया अब मेरे बेहद नजदीक बैठा दिखाई देने लगा।मुझे लगा मैं शायद अपना दिमागी संतुलन खोने लगी हूँ।मैं हवा में ही अदृश्य रूप से उस हावी होते साये पर अपने हाथ पांव मारने लगती।मेरा परिवार ये सब देखकर सकते में आ जाता।कोई भी अगर मेरी स्थिति देखता तो शायद यही प्रतिक्रिया देता।

बिगड़े दिमागी संतुलन में भी मुझे ख़याल आया कि मुझे अपनी बच्ची की उस काले साये से हिफाजत करनी है किसी भी हाल में।मैं अपने आप से लड़ रही थी,समय की सख्त नुकीली सुइयां जो भाला बनकर मेरी बच्ची की ओर निशाना साधे थी,मैं स्वयं को उनके आगे देख पा रही थी।सुइयों की चुभन मुझे इतना परेशान नहीं करती थी जितना ये ख़याल कि मेरे न होने पर यही नश्तर मेरी बच्ची को चुभे तो !

आनन फानन में मैं एक फैसला ले चुकी थी।एक बहुत बड़ा पत्थर मुझे अपने कलेजे पर महसूस हो रहा था।टेलीफोन पर नम्बर डायल करते मेरे हाथ बुरी तरह काँप रहे थे।

"दीदी आप प्लीज जल्दी आ जाओ..।"

बोलते हुए मेरे शब्द मुझसे ही टकरा रहे थे।

दीदी के हाथों में मेरी बच्ची खिलखिलाते किसी झरने सी दिखाई दे रही थी।मुझे संतुष्टि थी कि मेरा फैसला गलत हाथों में नहीं है।मैं अपनी जान उसे सुपुर्द करने वाली थी जो इसकी हिफाज़त जान से भी बढ़कर करना जानती हो।दीदी पर मुझे भरोसा था।

मैं अपनी बच्ची को दूर ले जाते हुए देख रही थी।जाते हुए दीदी की पीठ पर चिपकी उसकी मासूम आँखें आज भी मेरा पीछा करती हैं।उन मासूम आँखों में भरे तात्कालिक आँसू स्थानांतरित होकर मेरी आँखों में हमेशा के लिए ठहर गए।दीदी नें उसका पालन पोषण बहुत अच्छे से किया।वो नाजों से पली बढ़ी।मेरी गोद भरकर भी सूनी ही रही,ये कैसी नियति थी!

क्रूर वक्त नें करवट ली।मेरे असाध्य रोग नें जैसे कीमत चुकता होते ही अपनी जकड़ ढीली कर दी।वो काला साया सचमुच मेरी बच्ची को हमेशा के लिए लेकर चला गया।समय के साथ मैं स्वस्थ होती गई।बच्ची परिपक्व सुंदर युवती में तब्दील हो गई।उसे पुनः पाने के समस्त प्रयास वैसे ही विफल हो गए थे जैसे आत्मा गिरवी रखने के बाद बचा हुआ शरीर! 

बीस वर्ष पूर्व जिस स्वार्थमयी माँ का किरदार मैं निभा रही थी उसी किरदार में आज दीदी को देख रही थी।उन्होंने बेटी को हमेशा हमेशा के लिए पाने के लिए मेरे विषय में जो कुछ भी कहा उससे उन दोनों के बीच का संबंध तो प्रगाढ़ हुआ किन्तु मेरे और बिटिया के बीच गहरी खाई जितनी दूरियां पैदा हो गई जहाँ से दूर रहकर किनारे से लाख आवाज दो किसी प्रत्युत्तर की कोई संभावना न थी,खाई को पारकर नजदीक जाना तो बहुत दूर की बात थी।उसे कहा गया कि मैनें उसे बेटे की चाहत में जानबूझ कर त्याग दिया।दीदी की आँखों में झाँककर देखा,उनमें 'पश्चाताप' की भावना के साथ एक असहाय माँ भी झलक रही थी।सच है जन्म के एक वर्ष बाद से ही वो उसपर अपना सर्वस्व वारकर जी जान से उसका ख़याल रख रही थी।सही मायनों में वही उसकी 'यशोदा' माँ थी।किन्तु जिसे जन्म दिया उसकी आँखों में मेरे लिए नफरत के अंगार नहीं देख पा रही थी।लग रहा था कि एक दिन ये उपेक्षित अंगारे मुझे भस्म कर देंगे।मेरी आत्मा को रोज उनमें स्वाहा होते देखना कितना दुष्कर कार्य था ये बात शायद मेरे अलावा कोई नहीं समझ सकता।

मुझे आज भी याद है वो दिन जब दीदी नें एक कार्यक्रम का आयोजन किया था,मुझे बेमन से ही सही उसमें उपस्थित होने के लिए औपचारिक निमंत्रण दिया था।मैं बेटी की एक झलक देखने की ललक में किसी अदृश्य डोर के सहारे खींची चली आयी।मुझे देखकर दीदी के चेहरे पर उड़ती हवाइयां उनके अंदरूनी हाल बयां कर रहे थे।खैर मुझे उनसे कोई गिला नहीं था।मेरी नजरें उसी मासूम पौधे को ढूंढ रही थी,जो मेरे अंदर हर रोज पनप रहा था,जिसे अपने आत्मीय वात्सल्य के जल से मैनें हर रोज सिंचित किया था,उसकी सलामती और खैर की दुआएं पढ़ी थी।लेकिन मैं इतना भी जानती थी कि पौधा अब खूबसूरत वृक्ष में तब्दील हो चुका होगा,जिसे सिर्फ देखभाल करने वाले दृश्यमान माली की ही परवाह होगी न कि प्रार्थना से सींचने वाले अदृश्य जल की!

अपने बीसवें जन्मदिन पर वो जब तैयार होकर सबके सामने आयी, किसी स्वप्निल राजकुमारी सी लग रही थी,सब अपलक बस उसे निहारते रह गए।वो हूबहू अपने पिता की तरह तेजस्विनी थी।मैं मेहमानों की भीड़ में पीछे से उसे निहार रही थी।ईश्वर का शुक्रिया अदा कर रही थी कि इस दिन से मुझे नवाजा।मेरी बेटी को कुशल हाथों नें संवारा।

सहसा उसकी निगाह मुझपर पड़ी।वो शायद किसी पुरानी तस्वीर से मुझे पहचान गई थी।अपना खून था,कैसे नहीं पहचानता!मेहमानों की भीड़ को चीरते हुए वो मेरे पास पहुँची।उसके और मेरे बीच की दूरी तय होने तक न जाने कितने जन्मदिन जो मैंने उसकी अनुपस्थिति में अकेले मनाए,किसी फ्लैशबैक की तरह एक एक कर मेरी नजरों के सामने आये।मैनें अपने हाथ फैला लिए ताकि उसे गले लगा सकूँ।वो अब मेरे ठीक सामने थी किसी प्रतिबिम्ब की तरह।भावनाओं के उमड़ते वेग को मैनें किसी तरह अपनी आँखों की देहरी पर रोका।उसकी नजरों में मेरे लिए नफरत का समंदर तैर रहा था,मेरी फैली हुई बाहें पुनः अपनी हद में आकर सिमट गई।बहुत देर तक हम दोनों के बीच मूक वार्तालाप हुआ।वो बहुत से प्रश्नों का ढेर मुझपर उड़ेल देना चाहती थी लेकिन सजा के तौर पर उसने चुना चुप्पी जो मुझे नश्तर की तरह हर जगह चुभने लगी।

"बेटी.."।मेरे मुँह से उस वक्त सिर्फ इतना ही निकल पाया।

"मैं नहीं हूँ आपकी बेटी..नफरत है मुझे आपसे..! बहुत बहुत नफरत..क्यों आयी हैं आप आज यहाँ..!"आक्रोश का ज्वालामुखी यकायक उसके अंदर से फूट पड़ा।उसकी सुर्ख आँखें बहुत कुछ बयां कर रही थी।

मेरी आँखों में रुकी हुई निर्झरिणी बह निकली।उसे देने के नाम पर दुआ से भरा हाथ उसके सर पर फेरती इससे पहले ही भीड़ को चीरते हुए वो मेरी नजरों से ओझल हो गई।एक काला साया उसकी परछाई बन दूर से मुझे दिखाई दे रहा था।वातावरण में अजीब सा अट्टहास सुनाई दिया।मेरी सभी इंद्रियां मुझे हेय दृष्टि से देख रही थी।मेरी आँखों पर छाई नम धुंध मिटने का नाम नहीं ले रही थी।मैं उसे और ज्यादा दुःखी नहीं देख सकती थी।अपने कलेजे के टुकड़े से कभी न मिलने के खुद से किये वादे के साथ मैं भरे मन से लौट आयी।

मुझे अपने नाखूनों में असहनीय वेदना महसूस हो रही थी।


-अल्पना नागर


Saturday 31 October 2020

चाँद की बातें

 चाँद की बातें


धूल धक्कड़ और धुंध के इस दौर में

जबकि आधी दुनिया

लपेट कर घूम रही है

बेरुखी का आवरण/

तुम उतर आये जमीन पर

किसी नाविक की तरह

धुंध की नदी को चीरते हुए

चांदनी की खीर हाथों में लिए

फीके मन को मीठा करने..!

कल शरद पूर्णिमा थी

मेरी जुबां पर ठहर गई है

वही तुम्हारी

मद्धिम मिठास !


कल देखा 

आसमां में आधे थे तुम

आधे बह रहे थे जमीन पर !

तुम्हारी दूधिया झिलमिल रोशनी में

प्रेम की लहरें कर रही थी नर्तन

कितना अलौकिक !

तुम हर तरफ से झाँक रहे थे

खिड़कियों से..पत्तों की ओट से,

बंद दरवाजे की दरारों से/

हर चेहरे पर खिला था बस

तुम्हारा प्रतिबिम्ब !


कमाल है मगर !

तुम्हारे मद्धिम प्रकाश में

सुनाई दे रही थी

मृत त्वचा के नीचे सांस लेती

नीली नसों की जिंदा धड़कनें/


मन की सीली सीढ़ियों पर 

गीले पाँव

चढ़ते उतरते तुम

रात की अंधेरी बावड़ी में

देर तक पैर लटकाए

मना रहे थे

अपने होने का उत्सव/


ये सच है

बेइंतहा रोशनी लेकर आती है

चौंधियाता अँधेरा !

भयंकर रोशनी के इस दौर में मगर

मुझे तलब होती है

बित्ति भर रोशनी की

बस उतनी ही

चांदनी जितनी..!


-अल्पना नागर




Monday 19 October 2020

प्रवासी यात्रा

 *प्रवासी यात्रा*

*विधा- छंदमुक्त*


प्रवासी यात्रा


आसान न था इस बार

पुनः स्थापित होना

चैत्र से अब तक की दूरी

अनंत मीलों को समेटे हुए थी/

शीशे की दीवारों से झाँकते 

तुम सुरक्षित लोग

मुझे देख रहे थे 

स्वयं को विसर्जित होते..


एक नदी उमड़ी थी

आँखों के कोर से

मन के तटबंधों को तोड़

मुझे समूचा समाहित करने को/

तुम्हारे चारों ओर

सुरक्षा के ठोस इंतज़ामात के बाद

मुझे डूबना था !

और यक़ीनन मैं डूब गई

असुरक्षा के अथाह समंदर में/

अनेकानेक अदृश्य हाथों नें

धकेला था मुझे..!


एक बार पुनः मेरे समक्ष हैं

करबद्ध समूह और

सजी हुई चौकी..

मन खिन्न है/

आपादमस्तक उद्विग्न है

पर..माँ हूँ न !

ठोस अस्तित्व और

संतति के भार को

कछुए की तरह

ढोती आयी हूँ/

हर बार दौड़ी चली आयी हूँ,


बस एक निवेदन है

इस बार मत देखना मेरे तलवे

कंजक भोज के समय/

कि महावर की जगह

रक्त बहता दिखेगा !

मत ओढ़ाना मुझे

गोटे लगी लाल चुनरी/

कि मेरी झुलसी आत्मा को

ये ढक नहीं पाएगी..


मुझे भय है

तलवों पर चिपकी

दुत्कार की पिघली डामर

और सदी जितने प्रवासी ज़ख्म

तुम्हारे हाथ मैले कर देंगे

इतने मैले कि

नहीं ठीक कर पायेगा

मंहगे से महंगा 

सेनेटाइजर भी..

-अल्पना नागर

Friday 16 October 2020

थका हुआ दिन

 थका हुआ दिन


थका हुआ दिन 

आँखें मूंदे

पीठ करके बैठा है

पश्चिम की नौका पर

किसी अंजान नाविक के भरोसे/

पनीला आसमान 

छिड़कता है चंद बूँदें

शरारत की

दिन के क्लांत चेहरे पर/


उनींदा दिन मुस्कुराता है

और घुलने लगता है

पनीले आसमान में सिंदूरी रंग

दिन के कपोल से छूटकर..

थोड़ी और फैल जाती है

सूरज की बिंदी 

आसमान के शुभ्र ललाट पर/


ये जानते हुए भी कि

पश्चिम की नौका

डूबा देगी उसे अंततः

किसी अंधेर गुफा में/

वो चुनता है भरोसा 

उसी अदृश्य नाविक पर!


अंधेर गुफा

जहाँ एक एक कर इक्कट्ठे होते हैं

अधूरी इच्छाओं के टूटते तारे

प्रार्थनाओं के जुगनू

आस्थाएं और

चमकीले शब्द/

गुफा की छत पर

उल्टे टंगे होते हैं

किसी चमगादड़ की तरह


इस सबके बावजूद

थका हुआ दिन

जारी रखता है अपनी

एकांत यात्रा/

वो तोड़ता है गुफा से चिपके 

टूटे हुए तारे..

प्रार्थनाएं..

आस्थाएं..

एक एक कर भरता है

अपनी नौका में/

न जाने क्यों 

ठीक उसी वक्त बेनूर नौका

जगमगा उठती है..

निशा के अंतिम छोर पर

बिखरा होता है

दूधिया उजाला/


थका हुआ दिन 

अब नहीं है थका हुआ

वो लगाता है डुबकी 

समर्पण की झील में..

अर्घ्य देता है

नए जीवन को

हर सुबह/

वो दोहराता है

यही क्रम हर रोज

पश्चिम की नौका के

ठीक सामने..!


-अल्पना नागर






कहानी

 


कहानी

मम्मी कहीं चली गई


"पापा..मम्मी कहीं चली गई है..!"एक हड़बड़ाई मासूम आवाज नें समूचे स्टाफ का ध्यान आकर्षित किया।

पांच साल की मंटू की गोल मटोल आँखों में बूँदी के लड्डू जितने बड़े आँसू थे।

सभी हैरान परेशान अध्यापकगण मंटू के अध्यापक पिता की तरफ देखने लगे।अब बारी उन्हीं के बोलने की थी।

"क्या..मम्मी चली गई?कहाँ गई होगी,वहीं होगी घर पे ही..ठीक से देखा तुमने?अध्यापक पिता नें मंटू से पूछा।

"नहीं..सब मेरी ही गलती है।मैं खाना नहीं खाती न ठीक से इसीलिये गुस्सा होकर चली गई।मम्मी नें बोला भी था कि ऐसे ही परेशान करती रही तो एक दिन सबको छोड़ के चली जाऊंगी।"इतना कहकर मंटू दहाड़े मार मारकर रोने लगी।

स्टाफरूम में ठहाके गूंजने लगे।बेचारे अध्यापक पिता का चेहरा देखने लायक था।वो तुरन्त मंटू से बोले,"चलो बाहर,मम्मी को ढूंढने चलते हैं।"

पास की दुकान से मंटू की फेवरेट रंग बिरंगी पॉपिंस खरीदी गई।मंटू का ध्यान अब मम्मी से हटकर दुकान की चीजों पर जा चुका था।स्कूल बैग में ढेर सारी टॉफी चॉकलेट आ चुकी थी।मंटू खुश।अब मम्मी के गुम हो जाने का खास अफसोस नहीं रहा।

अध्यापक पिता सीधे अपने करीबी मित्र के घर पहुँचे।वो जानते थे मंटू की मम्मी वहीं मिलेगी।वहाँ पहुंचकर देखा मंटू की मम्मी के हाथ में बड़ा सा पुदीने के ज्यूस का गिलास था और करीबी मित्र की पत्नी के साथ गप्पे शप्पें हो रही थी।मंटू और उसके पिता को एकसाथ देख दोनों को थोड़ी हैरानी हुई।गप्पें बीच में ही कहीं अधूरी जो लटक गई थी।

"अरे आप..! अचानक..क्या हुआ सब ठीक है?"मंटू की मम्मी की आँखें विस्मय से थोड़ी और बड़ी हो गई थी।

"पूछो अपनी लाडो से..मैडम साहिबा सीधे स्कूल पहुँच गई वो भी स्टाफरूम में..पहुंचते ही क्या गजब का गॉसिप टॉपिक छोड़ के आयी है..अब देखना कितने दिन तक वो लोग मुझे अपनी किस्सागोई का हिस्सा बनाएंगे..'मम्मी कहीं चली गई पापा'..!!"अध्यापक पिता एक ही सांस में सब बोल गए।

मंटू की 'गुम' हुई मम्मी और उसकी सहेली पेट पकड़ कर हँसने लगी।अध्यापक पिता का गुस्सा सातवें आसमान पर।

"पर ये आज इतने जल्दी कैसे आ गई।अभी तो इंटरवेल भी नहीं हुआ होगा!"मंटू की मम्मी नें कलाई घड़ी देखते हुए पूछा।

दोनों माता पिता मंटू को घूरने लगे।

मंटू अचकचाकर बोली,"पापा वो आज जल्दी छुट्टी हो गई।"

"जल्दी छुट्टी..यूँ अचानक ही..कोई जयंती या खास दिन भी नहीं..!"दिमाग पर जोर डालते हुए अध्यापक पिता नें कहा।

"अजी अब छोड़िए भी..चलिए घर चलते हैं।मंटू को भूख लगी होगी।"मंटू की मम्मी नें एलान किया।पुदीने का ज्यूस आधा छूटा रह गया साथ ही गॉसिप भी।

बमुश्किल मंटू का ये पांचवा दिन था स्कूल में।पांच दिनों में क्या क्या हुआ देखते हैं..

मंटू को स्कूल भेजने के लिए राजी करना आसान न था।अध्यापक पिता नें कई दिन पहले ही उसे मनाने की तैयारियां शुरू कर दी थी।या यूँ कहिए छोटी मोटी रिश्वत मंटू मैडम को रिझाने के लिए।

मंटू नें कहा जूते चाहिए तभी स्कूल जाएगी।

शहर की सबसे अच्छी जूतों की दुकान पर उसे ले जाया गया।

रैक में रखी सभी जूतों की जोड़ी का सिंहावलोकन करने के बाद मंटू की नजर एक जोड़ी जूते पर ठहर गई।बहुत ही खूबसूरत जूते थे किसी प्रसिद्ध ब्रांड के।जूतों पर उसके फेवरेट मिनी और मिकी माउस बने हुए थे।यक़ीनन जूते शानदार थे मगर ये पूरा अंदेशा था कि दाम भी बहुत शानदार होंगे!

अध्यापक पिता की अनुभवी आँखों में खौफ के बादल तैरने लगे।सर्दी में भी माथे पर पसीने की बूँदें झलक आयी।ये उन दिनों की बात है जब अध्यापकों की तनख्वाह चार अंकों तक ही सीमित थी।और गली मोहल्ले में अध्यापक मक्खीचूस नाम से ज्यादा जाने जाते थे।खैर इतने कम वेतन में कंजूस बन जाना स्वाभाविक था।

"बेटा ये देखो..कैनवास के कितने प्यारे जूते,कितना चटख लाल रंग है..हरे फीते..वाह इससे बेहतरीन जूते कहीं नहीं होंगे।"अध्यापक पिता मंटू की नजर मिकी और मिनी वाले जूतों से हटाने का भरसक प्रयास कर रहे थे।

लेकिन मंटू को जैसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था।जिन जूतों पर उसकी निगाह अटकी पड़ी थी उसमें बने मिनी और मिकी चीख चीखकर मंटू से कह रहे थे,"प्लीज हमें घर ले चलो..तुम्हे दुनियाभर की सैर कराएंगे।"

मंटू नें एलान कर दिया।जूता अगर चाहिए तो बस यही वरना कोई नहीं..वो सीधे दुकान की जमीन पर धरना डाल के बैठ गई।

अध्यापक पिता की जुबान पे ताला लग गया था पर फिर भी पूछना तो था ही।दबी जुबान से जूते के दाम पूछे।

"सौ रुपया मात्र!" मौके की नजाकत पर चौका मारते दुकानदार नें कहा।

"क्या !!! सौ रुपया..? इतने में तो कई जोड़ी जूते आ जाएंगे।बच्ची ही तो है।सही सही लगाओ दाम।"माथे से पसीना पोंछते अध्यापक पिता नें कहा।

हाँ,तो दूसरा पीस ले लो न..!ये लीजिए कैनवास के बढ़िया जूते मात्र चालीस रुपया।"

अध्यापक पिता कातर निगाहों से मंटू को देखने लगे कि अब कर्ता धर्ता यही है।

लेकिन मंटू तो भई मंटू है..एक बार कोई चीज पसंद आ गई तो अंगद के पांव की तरह इंच मात्र भी नहीं हिलती।

"पूरी अपनी माँ पे गई है.."।मन ही मन बड़बड़ाते हुए अध्यापक पिता नें कहा।

"ठीक है वही दे दो जो बिटिया को पसंद आ रहे हैं।"

मंटू खुश।मिनी और मिकी उससे भी ज्यादा खुश।

"और कुछ?" अध्यापक पिता नें ठंडी सांस भरते हुए पूछा।

"एक घड़ी भी.."

"क्या!!..तुझे टाइम देखना तक ठीक से नहीं आता।घड़ी का क्या करेगी।"

"पापा.. आप स्कूल जाते हो तब घड़ी पहनते हो न..?"

"हाँ.. पर मेरी बात अलग है।"

"क्यों अलग है..मैं भी तो स्कूल जाऊंगी न कल से..सोच लो स्कूल भेजना है कि नहीं..!"कनखियों से देखते हुए मंटू नें अपनी बात रखी।

खैर,दोनों घर आ गए।मंटू की नन्ही कलाई में चमकीली रंग बिरंगी प्यारी सी घड़ी थी।और अध्यापक पिता के मुँह की घड़ी बारह बजा रही थी।

मंटू के स्कूल का पहला दिन।

मंटू से कोई बात नहीं कर रहा।मंटू भी किसी से बात नहीं कर रही।

"बड़ा ही बेकार होता है ये स्कूल विस्कुल..कमरे में बिठा दिया एक जगह।उठ के खड़े हो जाओ तो टीचर की डांट सुनो।ये भी कोई बात हुई।सब मेरी घड़ी की ओर ही देखे जा रहे हैं।चोरी हो गई तो..मम्मी नें बोला था संभाल के रखना।बैग में रख लेती हूँ अंदर बंद करके।फिर कोई नहीं ले पायेगा।"

घर पहुंचकर सब मंटू से पूछे जा रहे थे।घड़ी कहाँ रखी थी।किसने ली..वगैरह वगैरह।मंटू चुपचाप सुने जा रही थी।उसे याद नहीं उसने घड़ी निकाल कर बैग में रखी या ज्योमेट्री में।कहीं नहीं मिल रही थी।

मंटू को स्कूल बेकार लगा।

दूसरे दिन मंटू नें घर आकर अपने अध्यापक पिता को प्रवचन सुना दिया।वही प्रवचन जो वो अपने टीचर से सुनकर आयी थी।

अध्यापक पिता युवा थे।नया नया सिगरेट शुरू करने का सोचा ही था।अलमारी में दो सिगरेट रखी थी जो मंटू की खुफिया नजर से बच नहीं सकी।फौरन पापा को प्रवचन दे डाला।"पापा हमारी टीचर कहती है,सिगरेट पीना बुरी बात होती है,जिनके पापा सिगरेट पीते हैं वो गंदे होते हैं।और आप तो मेरे अच्छे पापा हो न..!"

इमोशनल प्रवचन से अध्यापक पिता द्रवित हो गए।अपनी गलती का एहसास हुआ।मंटू के सामने ही सिगरेट तोड़ के फेंक दी।और कभी न पीने का प्रॉमिस भी दिया।

पता नहीं क्यों उस दिन अध्यापक पिता को मंटू पर बहुत स्नेह आया।

तीसरा दिन।

मंटू स्कूल की सीढ़ियों पर धूप में काफी देर खड़ी रही।ये सोचकर कि कोई तो अंदर आने को बोलेगा मंटू को पर किसी नें नहीं बोला।सब ऐसे गुजर रहे थे आसपास से जैसे कि मंटू दिखाई ही नहीं दे रही थी।किसी को कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था।मंटू के पांव धूप में चमक रहे थे अब उनमें जलन होनी शुरू हो गई।हारकर मंटू को खुद ही अंदर जाना पड़ा।

चौथा दिन।

मंटू को एक दोस्त मिल ही गई आख़िरकार।हुआ यूं कि नई दोस्त के पास कुछ ऐसा था कि मंटू खुद को रोक न पाई।उसने अपना 'ईगो' तोड़कर खुद से चलकर नई दोस्त से बात की।दोस्ती का प्रस्ताव भी रखा।

अब वो आयी मुद्दे पर।

मंटू की नई दोस्त के पास एक बहुत ही आकर्षक पेंसिल थी जिसके पीछे वाले हिस्से पर एक छोटा सा चेहरा बना हुआ था।बिल्कुल टीवी में दिखने वाले शकालाका बूम बूम की पेंसिल जैसा।वही पेंसिल जिससे कुछ भी बनाओ कागज पर वो हुबहू कागज से निकल हमारे सामने आ जाता है।ऐसा टीवी प्रोग्राम में दिखाते थे।

मंटू नें कन्फर्म करने के लिए पूछा,"क्या ये वही पेंसिल है..शकालाका बूम बूम वाली ?"

"और नहीं तो क्या.."नई दोस्त नें आँखें मटकाते हुए कहा।

"विद्या कसम खाओ..।"किताब में रखे बुलबुल के पंख पर हाथ रखकर मंटू नें पूछा।

"अल्ला की कसम..।"

"अरे मैं विद्या की कसम बोल रही हूँ तू अल्ला की कसम खा रही है।"

"अल्ला ही तो विद्या देता है।"

"चल ठीक है..भगवान की कसम खा फिर..।"

"बोला न अल्ला और भगवान एक ही होते हैं।"

"अच्छा !! पापा से पूछुंगी शाम को।"मंटू नें कन्फ्यूज होकर कहा।

"अच्छा सुन,आज आज के लिए मुझे अपनी ये पेंसिल देगी,मेरे को कुछ चीजें बनानी है फिर मैं तुझे वापस दे दूँगी।"

"क्या बनाएगी..?"

"कुछ नहीं..बस तू दे दे एक दिन के लिए।"

"हम्म..मेरे पास घर पे गोल्डन कलर का स्केच पैन भी है।पापा कल ही लाये थे सूरत से।तू कहे तो वो भी मैं तुझे दे सकती हूँ।"

"क्या..!गोल्डन स्केच पैन ? मैनें तो कभी नहीं देखा।प्लीज ला देना..प्लीज।"मंटू की आँखें खुशी से चमक उठी।

"हम्म पर एक शर्त है।मैं जो कहूँ वो करना पड़ेगा।"नई दोस्त नें सिक्का उछाला।

"तू जो भी कहे मैं करने को तैयार हूँ।"

"तो ठीक है।स्कूल के बाहर जो कीचड़ वाला गड्ढा है न..उसमें सात बार पांव रखना होगा।"

"ये क्या है..सात बार कीचड़ में पांव ?"

"हाँ ये एक तरह का सीक्रेट है।इसी से वो मैजिक पेंसिल काम करेगी।"

दोनों स्कूल के बाहर गड्ढे के पास खड़ी थी।मंटू गौर से कीचड़ देखे जा रही थी।फिर उसे पेंसिल याद आयी और पेंसिल से बनने वाले उसके प्यारे दादू जो तीन महीने पहले ही गुजरे थे,याद आये।उसके बाद उसने ज्यादा नहीं सोचा।सीधे कीचड़ में पांव डाला।पहली बार अजीब सी बदबूदार झनझनाहट हुई जो पूरे बदन में बिजली की तरह कौंधी।लेकिन दादू से प्रेम सच्चा था।वो एक एक कर सातों बार कीचड़ में पांव रखती गई।

अंतिम पांव रखने के बाद कीचड़ से लतपथ जब मंटू नें पेंसिल देने को पूछा तो जोर का ठहाका सुनाई दिया।

"पागल,ऐसी वैसी कोई मैजिक पेंसिल सच में थोड़े ही होती है।कितनी बड़ी वाली बुद्धू है रे तू!उल्लू बनाया बड़ा मजा आया।"गाती गुनगुनाती ठहाके लगाती नई दोस्त वहाँ से चली गई।पीछे रह गई मंटू।कीचड़ में सनी हुई।उसे अबकि बार लगा जैसे किसी नें ऊपर से नीचे तक उसे कीचड़ में नहला दिया।मंटू को अपने दादू बहुत याद आये।

पांचवा दिन।

मंटू नें दिमाग लगाया।स्कूल नाम की बला से बचने का बस यही एक उपाय रह गया।

मंटू का स्कूल घर से चंद कदम ही दूर था।लेकिन इन चंद कदमों से पहले उसकी दोस्त का घर बीच में आता था।जिसके घर के बाहर बरामदे में बनी कॉर्नर की एक छोटी सी खुफिया जगह में मंटू को एक आइडिया मिला।

"मैं अब यहीं छुप जाया करूँगी।और जब स्कूल की छुट्टी का टाइम होगा तब घर चली जाऊंगी।"

मंटू नें खुद से कहा।

मंटू नें यही किया।उस खुफिया जगह में मुश्किल से आधा घंटा बिताया होगा उसे लगा कितना ज्यादा समय हो गया अभी तक कोई बच्चा स्कूल से बाहर क्यों नहीं आ रहा!

अब मंटू के लिए रुक पाना नामुमकिन था।उसे लग रहा था इससे अच्छा तो स्कूल था यहाँ तो बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा।

और इस तरह मंटू मम्मी की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने पापा के स्कूल आयी थी।


-अल्पना नागर



Sunday 11 October 2020

कहानी- नानी

 कहानी

नानी


उनकी खूबसूरत आँखों पर अब उम्र का चश्मा लगा था।काले घेरों नें दूर तक जगह घेर ली थी।चेहरे की रौनक मुरझा गई थी।झुर्रियों नें हक़ के साथ घर बना लिया था।बड़ी देर तक मुझे निहारती रही।मिचमिची आँखों से मुझे पहचानने की कोशिश करती रही जैसे रेत में सुई ढूंढ रही हो।फिर अचानक उनके चेहरे के हावभाव बदल गए।बिस्तर के पास पड़ी अपनी छड़ी उठाकर चलने का प्रयास करने लगी।वो दौड़कर मेरे पास आना चाहती थी लेकिन पैरों नें साथ नहीं दिया।धीरे धीरे क़दम बढ़ा कर आगे आने की कोशिश में थी।मैंने अपना सामान का बैग आँगन में ही छोड़ दिया और दौड़कर उनके पास गई।पैर छुए।उन्होंने मेरा चेहरा अपने हाथों में लिया।खुरदुरे वक्त नें अपना असर उनके हाथों पर भी छोड़ दिया।मुझे उनकी वही बरसों पुरानी अपनेपन से भरी तपिश महसूस हुई।वो बहुत कुछ बोलना चाहती थी।आँखों की नमी से न जाने कितने शब्द झर रहे थे।मगर उस वक्त भावों के उफान में इतना ही बोल पाई, "मंजरी तू?इत्ते बरस बाद?"

मैंने उन्हें चारपाई पर बिठाते हुए कहा,"नहीं नानी,मैं मंजरी नहीं..कोमल हूँ..आपकी मंजरी की सबसे छोटी बेटी।"

"तू तो हूबहू मंजरी लगती है !"नानी का मुँह आश्चर्य से खुला था।

"हाँ,नानी.. सभी यही कहते हैं..कार्बन कॉपी मम्मी की।"

"इत्ती सी थी तू जब बरसों पहले यहाँ आयी थी मंजरी से चिपकी रहती थी..तब बड़ी गोलमटोल थी तू..अब तो सूख गई है मंजरी की जैसे।"

नानी छोटी सी रसोई में सामान ढूंढने लगी।सब कुछ आज भी व्यवस्थित था करीने से लगा हुआ।एक सरसरी नजर मैंने दौड़ाई।दीवारों का रंग धुँए से काला पड़ चुका था,जगह जगह पपड़ी पड़ी हुई थी।सीलन से अधिकांश प्लास्टर उतर गया था।उनपर अख़बार चिपकाया हुआ था वो भी समय के प्रभाव से काला पड़ चुका था।कभी रसोई में रौनक हुआ करती थी वो आज नानी की तरह जर्जर हाल में थी।

नानी के चेहरे से लग रहा था कुछ परेशान थी।"चाय पत्ती भी ख़तम..न चीनी है..सोचा आटे का हलवा ही बना के खिला दूँ तुझे इत्ते बरस बाद आयी है और यहाँ सामान ही ख़तम।"

"तो नानी,रिंकू मामा से बोल देती न.. ले आया करें सामान रसोई का।"मेरी एक नजर बाहर थी।घर के बाकी सदस्यों को ढूंढ रही थी।आँगन के दूसरी ओर मामा रहते थे,फ़िलहाल कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था।इससे पहले कि मैं उनके बारे में पूछती,नानी नें मुझे हाथ मुँह धोकर आने का आदेश दे डाला।

"हैं री.. तू अकेली आयी है..मंजरी क्यूँ नहीं आयी?"

नानी के हाथ में चाय का कप था।कहीं से गुड़ का इंतज़ाम कर चाय बनाई मेरे लिए।स्वाद आज भी वही था।चाय बिल्कुल नानी जैसी थी अपनेपन के स्वाद से भरी।

"ना..मम्मी नहीं आयी।आप तो जानती है न नानी..बड़े वाले मामा से झगड़े के बाद मम्मी सदमे में आ गई।चार साल पहले जब मम्मी यहाँ आयी थी तब बड़े मामा नें कसम दी थी कि कभी इस घर की देहरी नहीं चढ़े।बस तभी से.."

मैं अपनी बात पूरी कर पाती इससे पहले ही नानी का दनदनाता सवाल आया," तो क्या मैं मर गई तेरी माँ के लिए।भाई ही सब कुछ है उसका जो उसकी दी हुई बेसिरपैर की कसम खुदा हो गई?"

मैं नानी का गुस्से में लाल चेहरा देखती ही रह गई।आज से चार साल पहले मम्मी नानी से मिलने आयी थी।मैं होस्टल में थी इसलिए आना नहीं हो पाता था,ऊपर से मामा मामी का रुखा व्यवहार।मम्मी जब भी अपने मायके जाकर आती,हमेशा किसी न किसी बात पर कई दिनों तक परेशान रहती।मम्मी और मैं सहेली ज्यादा थे इसलिए अधिकतर बातें मुझसे ही साझा करती थी।मुझे याद है किस तरह पिछली बार बड़े मामा नें मम्मी से बदतमीजी की थी।संपत्ति खून के रिश्ते तक भुला देती है।

"कह देना तेरी माँ से..मेरे ऊपर जाने का इंतज़ार न करे।कम से कम एक बार तो आकर मिले।"मेरी चुप्पी को ताड़ते हुए नानी नें कहा।

"कैसी अशुभ बातें कर रही हो नानी,आप कहीं नहीं जा रही हो,अभी तो मेरी शादी भी नहीं हुई।और सबसे बड़ी बात..अभी तो आपकी माँ भी दुरुस्त हैं।अरे हां,याद आया..बड़ी नानी कैसी हैं?बहुत मन कर रहा है उनसे मिलने का।"

बड़ी नानी यानी मेरी मम्मी की नानी अभी जीवित थी।उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता था कि उन्होंने इतनी उम्र ले ली है वो भी बड़ी कुशलता के साथ।चंपा नाम था उनका।जैसा नाम था वैसी ही वो थी सचमुच बहुत सुंदर..सादगी की देवी,गुणवती स्त्री।मुझे याद है बचपन में जब उनके घर मिलने जाया करते थे एक अलग ही तरह का चाव होता था,कारण था उनका छोटा लेकिन साफ़ सुथरा घर।घर की एक एक चीज किसी संग्रहालय में रखी बेशकीमती वस्तु की तरह बड़े यत्न के साथ रखी होती थी।नानी और बड़ी नानी एक ही कस्बे में रहते थे।बड़ी नानी का घर थोड़ा दूर था लेकिन पैदल भी जाया जा सकता था,रास्ते के मोहक दृश्य,हरियाली,कस्बे वासियों का रहन सहन बरबस ही अपनी ओर खींच लेता था।बड़ी नानी का घर थोड़ी ऊँचाई पर बना हुआ था।अंदर छत पर लकड़ी की शहतीरें,मिट्टी और गोबर से लीपा पुता एकदम साफ सुथरा आँगन बड़ी नानी के घर को अलग ही पहचान देते थे।मुझे याद है हम लोग बचपन में नानी के घर से ज्यादा बड़ी नानी के घर जाने को उतावले रहते थे।केरोसिन के स्टॉव पर नानी की बनाई बड़ी बड़ी रोटियों और अचार में न जाने कैसा स्वाद था,जो एक बार खाने बैठते थे तो उठने का नाम ही नहीं लेते थे।बड़ी नानी का वो ऐतिहासिक रेडियो जिसपर वो नियत समय पर गाने और समाचार सुनती थी।उस रेडियो के लिए भी उनके मन में इतना प्यार था कि सुनहरे गोटे की सुंदर सी झालर से उसे सजाया हुआ था।सच एक एक चीज जादुई थी।वो ननिहाल की विशेष गंध जब भी स्मृति में प्रवेश करती है हर एक निर्जीव वस्तु भी महकने लगती है सजीव हो उठती है।

बड़ी नानी के एक ही संतान थी और वो थी मेरी नानी।बड़े ही नाजों से नानी को पाला पोसा गया था।कोई हिस्सेदार जो नहीं था प्यार का !बड़े नाना एक उम्र के बाद चल बसे थे,अफीम के बेतहाशा शोक की वजह से उन्हें समय से पहले ही इस दुनिया से अलविदा कहना पड़ा।बड़ी नानी के लिए अकेले समय काटना अब बेहद मुश्किल था।वो जी तो रही थी लेकिन कोई उत्साह नहीं बचा..बस जैसे तैसे समय काट रही थी।

इधर नानी के पुत्र संतान होते हुए भी वो निरीह जीवन जीने को मजबूर थी।समाज का ये पूर्वाग्रह कि पुत्र बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती उस वक्त मुझे सबसे अधिक कचोट रहा था..नानी की फटेहाल आर्थिक स्थिति..वृद्धावस्था में नितांत अकेलापन ये सब देखकर लग रहा था कि क्या सचमुच जिस पुत्र संतान की अभिलाषा में समाज इतने वर्षों से एक ही ढर्रे पर चलने को मजबूर होता है..उसे मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र द्वार समझता है जिसके समुचित लालन पालन के लिए माता पिता जीवन पर्यन्त कड़ा संघर्ष करते हैं वही पुत्र वयस्क होने पर उन सब बातों पर पानी फेर देता है !लिंग आधारित दोहरापन कठोर अनुभव होने पर भी नहीं मिट पाता।लंबे समय से ऐसा होता आ रहा है फिर भी पुत्र मोह छूट नहीं पाता।ये सब बेहद अजीब है !

खैर ये सब सोचते सोचते कब मुझे झपकी आ गई कुछ पता नहीं चल पाया।शायद थकान का असर था।जब उठी तो पता लगा नानी नें एक पतला सा चादर मुझ पर डाल दिया था।

मुझे नानी के पास एक अलग ही सुकून का अनुभव हो रहा था।मुस्कुराते हुए नानी का चेहरा दिखा।वो मुझे बाजार चलने का आग्रह करने लगी।मुझे फिर से पुरानी यादों को जीने का अवसर मिल रहा था।फट से तैयार हो गई।नानी पुरानी संदूकची में कुछ ढूंढ रही थी।बहुत ही पुराने तुड़े मुड़े कुछ नोट रखे थे जिनमे कपूर की गोलियों की महक घुल गई थी।नानी नें उत्साह से मेरी ओर देखा।

बाज़ार जाने पर नानी में अंदर छुपा कोई बच्चा निकल कर बाहर आ रहा था।उनकी आँखों की चमक यकायक बढ़ गई।कभी कचोरी वाले के ठेले पर तो कभी मिठाई वाले के यहाँ..लग रहा था कि जैसे अरसे बाद नानी नें घर से बाहर कदम रखा था।वो जिद कर करके मुझे बहुत सी खाने की चीजें खिला रही थी।इस बहाने वो खुद भी मनपसंद चीजें खा रही थी।घर जाते जाते भी थैले में बहुत से फल ले लिए।रास्ते मे लौटते वक़्त एक पुराने मंदिर में भी हम कुछ देर ठहरे।बचपन की स्मृतियां जीवंत हो उठी।मंदिर परिसर के कबूतर आज भी उसी तरह बेख़ौफ घूम रहे थे।मम्मी के साथ परिक्रमा करते यादों के पदचिन्ह आज मेरे साथ पुनः चल रहे थे।नानी के चेहरे पर खुशी देखकर असीम तृप्ति का अनुभव हो रहा था।तभी एक विचार मन में उठा।

"नानी,क्या ये संभव नहीं कि आप और बड़ी नानी एकसाथ रहें..?"धीमे से मैनें कहा।

कुछ देर की चुप्पी के बाद नानी नें कहा।

"संभव तो है पर ऐसा कहाँ होता है बेटा.. विवाह के बाद स्त्री का घर परिवार ही उसका अपना होता है।यही परम्परा है।"

"और अगर उस घर परिवार की दीवारों में ही अंदर से सीलन और पपड़ियां पड़ गई हों तो..मरम्मत की कोई गुंजाइश न बची हो..क्या तब भी परम्परा का निर्वाह जरूरी होगा..!"नानी की आँखों में आँखें डाल मैनें पूछा।

इस बार नानी के पास कोई जवाब न था।नजर भर उन्होंने मुझे देखा,थोड़ी नमी झलक आयी थी जैसे कि उनकी आँखों में कैद कोई नदी तटबंध तोड़ आगे बढ़ना चाहती थी..

घर पहुँचने पर देखा दोनों मामा बरामदे में इधर से उधर चक्कर लगा रहे थे।हमें दरवाज़े पर देखते ही चिल्लाना शुरू कर दिया जैसे कि आसमान फट गया हो।बड़े मामा नानी की तरफ मुँह करके पूछने लगे," कहाँ गई थी कम से कम सुगंधा को तो बताकर जाती !"मामा की आँखों में नानी के लिए चिंता कम अकड़ ज्यादा दिख रही थी।

"गई थी सुगंधा को बोलने।वापस लौट आयी कमरे के बाहर से ही,अंदर उसकी सहेलियां थी,शायद कोई किटी चल रही थी।"नानी नें सहज भाव से उत्तर दिया।"और वैसे भी बेटा तेरे पिता के गुजर जाने के इतने वर्षों बाद आज पहली बार घर से बाहर गई थी।"कहकर नानी अपने कमरे में चली गई।

कमरे में जाकर नानी नें अटारी पर रखी संदूकची को टटोला।मेज पर रखी नाना की तस्वीर उसमें रखी।कुछ रोजमर्रा के जरूरी सामान भी रखे।मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था।मैं चुपचाप देखे जा रही थी।तभी नानी नें चुप्पी तोड़ते हुए कहा,"अब क्या खड़ी खड़ी सोचती ही रहेगी..! चलना नहीं है क्या तेरी बड़ी नानी के पास..!"

मुझे यक़ीन नहीं हो रहा था।एक पल को मुझे लगा ये कोई सपना है।मैं बस नानी के गले लग गई।

तटबंध टूट चुके थे।एक खिलखिलाती प्रवाहमान नदी अपने रास्ते थी..


अल्पना नागर



Sunday 4 October 2020

चैरेवेति

 चैरेवेति चैरेवेति


मैं जैसे निरर्थक के ढेर में

अर्थ खोज रही हूँ,

दौड़ रही हूँ बहुत तेज

मगर पाँव जैसे जम चुके हैं 

किसी अंजान भय की सांकलों से/

पसीने से तरबतर

मेरी आत्मा

खोज रही है 

उपनिषद के आख्यानों में

चैरेवेति का अर्थ..!


मैं महसूस कर सकती हूँ

मेरी उँगलियों में

रुके हुए रक्त का जमाव/

घड़ी की सुइयों का आगे बढ़ने से इंकार

मैं सुन सकती हूँ/

मेरी सुन्न आँखों के कोटर से

उड़ चुके हैं स्वप्न विहग

किसी सुरक्षित स्थान की तलाश में

मैं देख सकती हूँ उन्हें 

दूर जाते हुए..!


अधूरे स्वप्न होते जा रहे हैं विस्तृत

ब्रह्मांड के अज्ञात भाग की तरह..

न कोई छोर न कोई केंद्र

न कोई आदि न कोई अंत..!

अँधेरा युग है मगर

तलाशने हैं अभी

नए प्रकाश स्तंभ

ताकि जारी रहे

चैरेवेति की अनंत यात्रा..


भीतर और बाहर की

इन सब उथल पुथल के बीच

कोई फीनिक्स ले रहा है जन्म

राख हुए समय की ढेरी से/

मैनें देखा

अभी अभी गिरा है

आखिरी पेड़ की शाख से

एक पीला जर्द पत्ता

मिट्टी के रंग का पत्ता

मिट्टी में मिलने को आतुर !

वो जाएगा अंततः

मिट्टी बन रेंगता हुआ

पेड़ की जड़ों तक/

फिर दौड़ेगा पुनः इसी की नसों में..

पेड़ की शाख से

अभी अभी फूटी 

नन्ही कोंपलों से सुनाई दे रहे हैं

फिर वही शब्द..

चैरेवेति चैरेवेति !


अल्पना नागर





Saturday 3 October 2020

समाज और मुखौटा

 समाज और मुखौटे


समाज और मुखौटों का चोली दामन का साथ है।अगर आप सामाजिक हैं तो हर समय मुखौटा साथ रखना होगा,कभी किसी को संतुष्ट करने के लिए तो कभी स्वयं का कोई कारज सिद्ध करवाने के लिए।कई बार ऐसा भी होता है हर वक्त मुखौटे लादे रहने से मुखौटों की आदत सामान्य प्रतीत होने लगती है,जैसे आजकल के मास्क।शुरू में दम घुटता हुआ महसूस होता था लेकिन अब आदत हो गई है और अब तो नवीन शोध के मुताबिक मास्क प्रतिरक्षण तंत्र को मजबूत करने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं।खैर,हमें आज की चर्चा में मास्क का गुण दोष अवलोकन नहीं करना है बल्कि मास्क के ही पूर्वज मुखौटों के बारे में चिंतन करना है।

समाज में जिन मुखौटों का चिरकाल से उपयोग किया जाता रहा है,वो एक धरोहर की तरह हर बार अगली पीढ़ी को साबुत खिसका दिया जाता है,बिना एक भी धागा उधेड़े! पूरी एहतियात बरती जाती है इस कार्य में..लेकिन अब जो वर्तमान पीढ़ी है उसने उन तमाम पुराने मुखौटों के विरुद्ध विद्रोह खड़ा कर दिया है..नहीं नहीं आप गलत समझ रहे हैं।ऐसा नहीं है कि आज की पीढ़ी को मुखौटों से सख्त गुरेज है अपितु वो इसके कई 'वर्जन' लेकर आये हैं..पूरी तरह 'अपडेटेड' संस्करण ! अब जैसी मर्जी आये मुखौटे हाजिर हर मौके हर मौसम के हिसाब से..और तो और आज की पीढ़ी नें कुछ नवीन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भी ईजाद कर लिए हैं सुविधा के लिए वहाँ जैसे मर्जी आये मुखौटा पहनो,अभिनय करो।इतने सारे रंगीन 'फिल्टर' कि आत्मा हरी हो जाये! कोई रोकने टोकने वाला नहीं क्योंकि अधिकांश लोग वहाँ मुखौटाधारी हैं।एक जैसे लोगों के साथ अपनेपन की 'फील' आती है।कई बार आपको खुद को पता नहीं होता कि कौन आपके कंधे पर हाथ रखकर मन की सारी पीड़ाएँ बाहर निकलवा लेता है और कब उसे 'वायरल' कर देता है।

समाज में मुखौटों का बहुतायत में प्रयोग हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता रहा है।एक विशेष प्रकार के उतार चढ़ाव वाली चाशनी भाषा का प्रयोग इन मुखौटों के साथ करना अनिवार्य होता है।हमारे प्रतिनिधियों में ये गुण जन्मजात होता है।वो मुखौटा पहनकर किसी की भी आँख का काजल तक चुरा सकते हैं विश्वास तो बहुत छोटी बात है।

बीते कुछ दशकों में देखा गया है मुखौटों से इतना लगाव हो गया है कि एक से बढ़कर एक मुखौटे सामने आ रहे हैं।बाजार भर गया है तरह तरह के प्रसाधनों के मुखौटों से।ये लाली पाउडर इतने 'नैचुरल' लगते हैं कि त्वचा कौनसी है और मुखौटा कौनसा ये फर्क करना मुश्किल हो जाता है।नतीजा ये कि नव पूंजीवाद के इस सुनहरे दौर में हमारा मुखौटा प्रेम भी बचा रह गया और दुकानें भी चल पड़ी।वैसे मन में अगर दृढ़ आस्था हो,समर्पण हो तो कोई रोक नहीं सकता,मुखौटों के प्रति अतिशय प्रेम के बीज हमारे अंदर युगों से हैं।बाजार नें तो बस हल्की फुल्की मदद की है।

सामाजिक मुखौटे थोड़े गंभीर होते हैं।इनमें हास्य के पुट के लिए जरा भी जगह नहीं।स्त्रियों के पास आजीवन मुखौटे होते हैं चाहे जरूरत हो या न हो उन्हें रखने पड़ते हैं।कई बार किरदार बदलने पर तो कई बार परिस्थिति बदलने पर।कभी बच्चों की खातिर तो कभी पति की खातिर।उनके अभिनय का प्रशिक्षण समाज से ही शुरू होता है।

मसलन सास का मुखौटा थोड़ा खींचा हुआ और सपाट होना चाहिए।मन के भाव मुखौटा चीरकर बाहर प्रदर्शित नहीं होने चाहिए।अन्यथा सामाजिक किरकिरी होने के पूरे पूरे योग बन सकते हैं।इसके अलावा समय समय पर डेली सोप के प्रशिक्षण केंद्रों से नवीनतम विचार ग्रहण करते रहने चाहिए।

बहू के मुखौटे में आँख और मुँह वाला हिस्सा बंद रहना चाहिए,इनका कोई विशेष काम नहीं,सिर्फ हल्की सी मुस्कुराहट मुखौटे पर स्थाई रूप से बनी हुई होनी चाहिए।इसके अलावा नाक वाला हिस्सा खुला हुआ होना चाहिए ताकि सांस चलती रहे।और सबसे जरूरी बात उसे उम्दा अभिनय भी आना चाहिए।

समाज में इस दिनों मुखौटों का काम जोरों शोरो से चल रहा है।अब हर घर में आधुनिक मशीनों  से बच्चे बूढ़े सभी स्वयं का मुखौटा तैयार कर लेते हैं।पहले बच्चे इन मुखौटों के जंजाल से मुक्त थे।लेकिन हमें जल्दी थी शीघ्रातिशीघ्र इन्हें बड़ा करने की।भगवान नें जल्द ही सुन ली।अब बच्चों के पास भी एक से एक मुखौटे मौजूद हैं हर जरूरत के मुताबिक।कुछ समय पूर्व तक पड़ोसी देश की मेहरबानी से टॉक टिक पर धड़ल्ले से मुखौटे बिक रहे थे हर गली मोहल्ले में नए नए अभिनेता मुखौटा धारियों की जैसे बहार आ गई थी।अंदर का अभिनय प्रेम हिलोरें मार मार कर मुखौटों संग ताल से ताल मिला रहा था,खैर उसपर फिलहाल शनि की वक्र दृष्टि पड़ी हुई है।टॉक टिक न सही हम अब अपने घरों में ही मुखौटे पहनकर उस दौर को जीवित रखने में पूरा योगदान देंगे।

खैर,मुखौटे कितने ही आकर्षक हों,वो हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं बन सकते।इनकी भी एक वैध सीमा होती है।एक समय बाद ये भी जीर्ण शीर्ण हो जाते हैं,दम घुटना शुरू हो जाता है।शायद पश्चाताप इसी का 'साइड इफेक्ट' है।जब मुखौटा उतरता है तब नजरिया भी बदलता है।समाज का रूप भी बदलता है।दिनभर कितने भी मुखौटे में रहें लेकिन एक समय होता है जब आप मुखौटा उतार फेंकते हैं,चैन की सांस लेते हैं।अकेले में आत्मावलोकन करते हैं,अपनी अच्छाई और बुराई को किसी तटस्थ व्यक्ति की तरह दूर बैठकर देखते हैं।कोशिश करें कि वो समय जीवन में स्थाई हो..न कि उधार लिया हुआ मुखौटा..ताकि सुकून की सांस अनवरत जारी रहे।


स्वरचित एंव मौलिक

अल्पना नागर



Friday 2 October 2020

*कालजयी सत्याग्रही मोहनदास करमचंद गांधी*

 *कालजयी सत्याग्रही मोहनदास करमचंद गांधी*


गांधीजी की भारत और समस्त विश्व को देन अगर गिनने बैठें तो बहुत सी हैं मसलन आजादी दिलाने के लिए दिन रात एक करना।दक्षिण अफ्रीका की गिरमिटिया प्रथा का अंत ,चंपारण की तीन कठिया प्रथा का अंत,भारत छोड़ो आंदोलन को गति दी,सविनय अवज्ञा आंदोलन के माध्यम से बिना हिंसक हुए  शांति से किस तरह प्रशासन से अपनी बात मनवाई जा सकती है इसका पाठ पढ़ाया।दांडी यात्रा कर नमक कानून तोड़ा,जो उस समय की स्थिति पर सटीक बैठता था।असहयोग आंदोलन एकदम नवीन प्रयोग था जिसने प्रशासन की नींद उड़ा दी थी।न केवल सामान्य नागरिक अपितु बड़ी संख्या में महिलाएं विद्यार्थी मजदूर आदि आजादी की इस पावन आहूति का हिस्सा बनने कूद पड़े थे।स्वयं गाँधीजी नें आजीवन फकीरों जैसा जीवन व्यतीत किया क्योंकि उन्हें भारत की दुर्दशा पर सचमुच क्षोभ था।वो मात्र सूती धोती में काम चलाते थे क्योंकि देश की अधिकतर जनता के पास पहनने को वस्त्र नहीं थे।क्या आज के समय में हमारे प्रतिनिधियों द्वारा ऐसा सोचा जाना भी संभव है !

गाँधीजी द्वारा दी हुई अमूल्य देनों में सबसे अधिक कीमती देन है सत्याग्रह।सत्याग्रह यानी सत्य के प्रति आग्रह।ब्रिटिश काल में जो अन्याय भारत वासियों के साथ हो रहा था उसके खिलाफ गाँधीजी नें एकदम अनूठा तरीका खोज निकाला जो कि युगों युगों तक याद रखा जाएगा,अमल किया जाएगा।सत्याग्रह की लड़ाई के दौरान ही गाँधीजी नें देश की आय एंव स्वावलम्बन की प्रक्रिया को सुचारू करने के लिए रचनात्मक कार्यों का तरीका निकाला जिसमें हथकरघा,लघु उद्योग प्रमुख हैं।सत्याग्रह शब्द कैसे बना इसके पीछे भी एक रुचिकर तथ्य है।गाँधीजी द्वारा चलाये जा रहे कार्यक्रमों को एक निश्चित सार्थक नाम देने के उद्देश्य से आंदोलन के मुख्य समाचार पत्र 'इंडियन ओपिनियन' में एक विज्ञापन निकाला गया साथ ही सटीक नाम सुझाने वाले को पुरस्कृत करने की भी योजना बनाई।इसका मुख्य उद्देश्य आंदोलन से अधिक से अधिक स्वयंसेवी सक्रिय लोगों को जोड़ना भी था।गाँधीजी के एक चचेरे भाई के पुत्र थे मगनलाल गांधी वो गाँधीजी के साथ ही उनके फीनिक्स आश्रम में रहते थे।मगनलाल जी नें जो शब्द सुझाया था वो 'सदाग्रह' था।जिसका शाब्दिक अर्थ है सद के प्रति आग्रह।वस्तुतः यह शब्द आंदोलन की मूल भावना के निकट था लेकिन पूर्णतः सटीक न था।केवल अच्छी वस्तु के लिए आग्रह आंदोलन की मूल आत्मा को संकुचित कर सकता था।अतः उसे और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए गाँधीजी नें जो नाम सुझाया वो था' सत्याग्रह'।उस दिन के बाद से ये शब्द गाँधीजी के आदर्शों व सिद्धांतो का दूसरा पर्याय बन गया।

सत्याग्रह का प्रयोग गाँधीजी नें सर्वप्रथम दक्षिण अफ्रीका में ही कर लिया था एक प्रयोग के तौर पर अन्याय के खिलाफ पहली जंग।जब रंगभेद के लिए उन्हें जिंदगी का सबसे कड़वा अनुभव हुआ।प्रथम श्रेणी की टिकट होने के बावजूद गोरी चमड़ी वाले अंग्रेजों नें उन्हें धक्का मारकर पीटरमारिट्जबर्ग स्टेशन पर उतार दिया।गाँधीजी की आत्मा लहूलुहान थी।इस तरह पराए देश में अपमानित होना उनके लिए अविस्मरणीय कटु अनुभव था।लेकिन उन्होंने वापस घर लौटने की प्रबल इच्छा होने के बावजूद भी उस प्रचलित अमानवीय प्रथा के खिलाफ आवाज उठाने की ठानी।बस उसी दिन से सूट बूट वाले मोहनदास करमचंद गाँधी के अंदर एक नए व्यक्ति का प्रवेश हुआ जो भारतीयों की तत्कालीन स्थिति को परिलक्षित करता था।वो हमारे बापूजी बनकर सामने आये।उस घटना के बाद एक और झकझोरने वाली घटना पुनः हुई।जब बग्घी में उनकी आरक्षित सीट के लिए भी उन्हें गोरे खलासी से मार खानी पड़ी।इस प्रकार दक्षिण अफ्रीका के उनके समूचे अनुभव में सत्याग्रह के शुरुआती लक्षण दिखाई देने लग गए थे।सत्याग्रह का अनुभव उन्हें अपने स्वयं के बचपन से सीखने को बहुत पहले ही मिल गया था।जब गाँधीजी नें पहली बार परिवार से छुपकर माँस भक्षण किया था जिसके पश्चाताप में उन्होंने अपने पिता को चिट्ठी लिखकर क्षमायाचना की थी।उस समय उनके पिता नें दुःखी होकर चिट्ठी पढ़ी,उनकी आँखों में आँसू थे।उन्होंने अपने पुत्र को न तो डाँटा न फटकारा और न ही एक शब्द भी कहा अपितु चिट्ठी फाड़कर फेंक दी।ये सामने वाले को अपने किये का अपरोध बोध कराने का नवीन किन्तु प्रभावकारी तरीका था।उनके पिता को मोहनदास द्वारा किये कृत्य पर अत्यधिक आघात पहुँचा किन्तु उन्होंने अपने पुत्र को दंडित न कर एक तरह से स्वयं को दंडित किया।मन ही मन कष्ट सहन किया।गाँधीजी नें सत्याग्रह का पाठ यहीं से सर्वप्रथम पढ़ा।गाँधीजी नें जितनी बार भी सत्याग्रह को अपनाया व जीवन में प्रयोग किया हर बार उस पर गहनता से चिंतन मनन किया।यह 'सत्य के साथ उनका प्रयोग' था।उन्होंने बहुत ही प्रभावशाली तरीके से सत्य प्रेम व अहिंसा की ताकत को दुनिया के सामने रखा।यह एक असरकारी तरीका सिद्ध हुआ।1920-22 के असहयोग आंदोलन के समय जब आंदोलन चरम उफान पर था,तभी चौरी चौरा कांड की घटना से आहत गाँधीजी नें आंदोलन स्थगित करने का निर्णय किया।ये गाँधीजी के अपने उसूल थे,सिद्धांत थे जिनके खिलाफ वो स्वयं भी नहीं जा सकते थे।1930-34 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय विनयपूर्वक बिना किसी हिंसा के जिस तरह कानून की अवज्ञा की गई वो इतिहास बन गया।एक बड़ी संख्या में स्त्री पुरुष विद्यार्थियों,चिंतकों नें इसमें भाग लिया।इस समय धारसना,बारडोली,पेशावर आदि जगहों पर इसका विराट रूप देखने को मिला।

गाँधीजी द्वारा अपनाए गए सत्याग्रह सिद्धान्त को निम्न बिंदुओं में देखा जा सकता है-

1- सत्याग्रह के लिए कायरता का परित्याग आवश्यक है।

2-सत्याग्रह में अन्याय की जड़ पर प्रहार करना बुद्धिमता है न कि अन्याय करने वाले पर।अन्याय करने वाला मात्र प्रचलित व्यवस्था का निमित है।

3- किसी भी देश व काल में अच्छे बुरे सभी लोग हो सकते हैं।पूर्वग्रहों से मुक्त होकर ही कार्य को समुचित रूप से अंजाम दिया जा सकता है।

4- ये बिल्कुल आवश्यक नहीं कि आप अन्यायी व्यक्ति को कष्ट दे।अपितु स्वयं कष्ट सहकर उसे अहसास दिलाना सबसे बड़ा दंड साबित हो सकता है।यही सत्याग्रह की ताकत थी।

5- किसी भी तरह का अन्याय बर्दाश्त करना अन्याय को बढ़ावा देना है।

6- सत्याग्रह का उद्देश्य प्रतिकार लेना या किसी को कष्ट देना कदापि नहीं हो सकता।

7- अन्यायी व्यवस्था के खिलाफ जाने का सबसे सही तरीका है असहयोग।

8- तरह तरह के छोटे बड़े उचित अनुचित कर न भरकर व्यवस्था के साथ असहयोग किया जा सकता है।


अल्पना नागर

Wednesday 30 September 2020

शोकमग्न बिजूका

 *शोकमग्न बिजूका*

*विधा- छंदमुक्त*


शोकमग्न बिजूका


इस हफ्ते मनाया गया बेटी दिवस

इसी हफ्ते उस बेटी नें ली अंतिम श्वास

अंत तक लड़ते हुए..!

अखबारों के लिए कुछ खास नया न था,

हर दिन की तरह आज भी वो आया

किसी खुले नल की तरह

लेकिन शब्दों में नशे की जगह

लहू रिसता दिखा..

इस बार ज्यादा मात्रा में!

बेशक अखबारों के लिए आज भी

कुछ नया न था !


रिसता लहू घर घर में 

हर दीवार पर चस्पा हुआ..

मैनें देखा अपनी

लहू तैरती आँखों से..

देखा होगा तुमने भी!!

ठंडी आह से सराबोर निरीह दिन

जैसे पूछ रहा है

कटी जुबान से

'क्या कभी होगी सचमुच की भोर' !

और हम हमेशा की तरह

इशारे समझने में

पूरी तरह नाकामयाब..!


गाँव में खाप नें समेट ली

अपनी खाट..

मामला उनके क्षेत्राधिकार का नहीं

वो तो सीमित है प्रेम तक ही..!

बिजली के खंभे भी खड़े हैं

किसी कंटीले झाड़ की तरह/

आज कोई नहीं आएगा

उन पर संस्कारों में लिपटी

तोहमत लटकाने..!

गधे बैठे हैं किसी कोने में

मुँह लटकाए/

काला रंग भी बहरहाल 

किसी काम का नहीं !

खेतों की मेड़ पर

बिखरी पड़ी है

हैवानियत..

टूटी हुई हड्डियां..

सियारों के समूह नें अभी अभी

चबा कर छोड़ दिया

एक मासूम मेमना..


खेत अब नहीं बुलाते गीत में डूबे

रुनझुन घुँघरुओं को..

हावी होता अँधेरा 

हाथ पकड़ कर खींच लेता है

घुँघरुओं को/

बिखरे घुँघरू कर रहे हैं

पांवों को लहूलुहान

आगे की डगर बेहद कठिन है..!

पगडंडियों में धँसने लगे हैं रास्ते

बचे खुचे विश्वास की तरह..!

खेतों नें कब से छोड़ दिया है

फसल उगाना..

अभी जारी है बड़ी मात्रा में

विषैली खरपतवार का उगना/

खेत की मेड़ को पार कर खरपतवार

पगडंडियों के रास्ते

हर घर की चौखट पर लहरा रही है!

किसी को खबर नहीं..

सिवाय खेत में खड़े बिजूका के..!!

बिजूका शोकमग्न है..!!

-अल्पना नागर

Monday 28 September 2020

बीस बीस की बातें

 बीस बीस की बातें


ये बराबरी का साल है

उन्नीस बीस के फर्क की नहीं

पूरे बीस बीस की बात है..

न एक कम.. न एक ज्यादा!!

बस हिसाब बराबर/

समय ताऊ खड़ा है इस बार

दरवाजे पर

लट्ठ लेकर..!

सीधी हो गई हैं

सबकी पीठ/

जिनके रीढ़ नहीं थी

वो भी उग आयी अचानक !

दुनिया जैसे बंद कमरा

कमरे में इक्कट्ठे ज्ञानी लोग

कर रहे चिंतन मनन

भजन कीर्तन..!

बस ये बंद कमरे तक की

बंद बातें हैं..

कमरा खुलते ही

फिर वही

घुड़दौड़..चूहादौड़/

जलता हुआ दौर..

दिशाभ्रमित

किसी नीरो की बंसी पर मुग्ध लोग

इधर से उधर बेसुध भागते हुए/

ये मामला है जमीं तक का..

अभी सितारों की बात होनी बाकी है

कि नसों में दौड़ रही है

सनसनी/

गर्दिश में डूबने की

बेताबी..!!

बीस बीस अभी कहाँ निपटा !

बहुत से जरूरी काम अभी बाकी हैं,

चुनौतियां तो चलती रहेंगी

अभी निपटाने हैं

ढेर सारे 'चैलेंजेज'..!

माफ करना

तुम्हारे हर जरूरी सवाल से पहले

मेरा एक ही सवाल है..

साल के अंत तक

पता लगाना ही है कि

'रसोड़े में आखिर कौन था..

कौन था..!'


-अल्पना नागर




Tuesday 22 September 2020

अंधा कुआँ

 अंधा कुआँ


गाँव के आखिरी छोर पर

जिंदा है

एक अंधा कुआँ..

किसी जमाने में

सलामत था उसकी 

आँखों का पानी,

उसकी मुंडेर पर

होती थी हँसी ठिठोली

चूड़ियों की दस्तक/

पनिहारिन सी रस्सियां 

आती थी..जाती थी..!


वो गवाह था

एक ठाकुर सदी का

जोखू-गंगीे की कुआँ भर 

मशक्कत का..!

वो अब भी गवाह है

रुके हुए प्रवाह का

ठहरे हुए गंदले पानी का/

आकाश की ओर ताकती

पोखर की बेचैन 

मरणासन्न

छटपटाती मछलियों का..!

वो गवाह है

गाँव की बदली हुई

गर्म हवाओं का..!


सूख चुकी हैं दीवारें 

मगर अब भी नम हैं उसकी

संवेदनाएं/

दरारों से झाँकती हरियाली में

हिलोरें मारती स्मृतियां..!

वक्त नें उसे बना दिया

बड़ा सा कचराघर/

उसकी आँखों पर

धकेल दी गई

मनों मिट्टी/

अनुपयोगी वस्तुएं

किसी कब्रगाह की तरह..

गाँव के आखिरी छोर वाला कुआँ

जन्म से अंधा नहीं था..!


अल्पना नागर









जादुई स्लेट

 जादुई स्लेट


हर स्त्री के पास होती है

एक जादुई स्लेट..

स्लेट जिस पर करती है वो

उम्रभर हिसाब

जोड़ बाकी गुणा भाग

बिठाती है गणित

रिश्तों की अबूझ पहेली का..


वो छुपा कर रखती है

अपने सीने के तहखानों में

कच्ची धूप भरी पहली स्लेट का अहसास

नन्ही उँगलियों को घेरती 

स्नेहिल वयस्क हथेलियों का स्पर्श..

सीखने को आतुर

काँपते टेढ़े मेढ़े आखर/


नैहर की देहरी पार कर

एक बार पुनः सीखती है

अक्षर ज्ञान !

सौंपी गई 

नई स्लेट के साथ/

जिस पर खुदी होती है 

पहले से ही

सिंधु लिपि में कोई वर्णमाला !

वो महसूसती है

हिना लगी उँगलियों पर

सख्त हथेलियों का घेराव,

निर्देशों की बारहखड़ी और

लड़खड़ाते आखर..!

वो बार बार लिखती है

कुछ टेढ़ा मेढ़ा,

उलझी रेखाएं/कुछ तारीखें..!

जादुई स्लेट सब जानती है !

उसकी स्मृति में जज्ब होती जाती हैं

तमाम तारीखें और रेखाएं/


अमावस सी स्याह स्लेट पर

उतारती है वो

ग्रह नक्षत्रों से दीप्तिमान आखर..

जिनकी रोशनाई से होता है रोशन

उसके मन का हर एक उजाड़ कोना !

वो रखती हैं साहस

अपने ही लिखे को बार बार

मिटाने का/

और हमें लगता है

ग्रहों की चाल बदल रही है.!!


जादुई स्लेट की मालकिन

हर स्त्री के पास होती है

एक गुप्त नदी..

नदी जिसमें एक एक कर 

प्रवाहित करती है वो

स्लेट से झड़े आखर/

किसी दीपदान श्रृंखला की तरह

उन्हें जाना है

अनंत सागर की ओर

बस एक अनाम लय का सिरा थामकर..!


अल्पना नागर


Saturday 12 September 2020

गीत संगीत

 लेख

गीत संगीत


सम्पूर्ण जीवन को अगर गीत संगीत की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।इसमें एक निरन्तर प्रवाहमान लय है..इसकी अपनी धुन है राग है..आत्मा को स्पंदित करता मधुर संगीत है।बस जरूरत है तो उसे पहचानने की..उसकी शाश्वत धुन में स्वयं के अस्तित्व को खोजने की..उसकी लय के संग व्यक्तित्व को प्रवाहमान बनाये रखने की।जीवन के हर नए मोड़ पर धुन बदल जाती है।बचपन किसी जैज म्यूजिक सा चंचल और जोशीला होता है।जवानी की सुनहरी धूप ओढ़ते ओढ़ते संगीत की धुन में भी सौम्य गर्माहट आ जाती है,थोड़ा रूमानी हो उठता है जीवन..आसपास की हर चीज तरंगित,मन प्रफुल्लित.. किसी सुकोमल मधुर स्वप्न सा जीवन का वो दौर बेहद संगीतमय होता है।एक धुन सी दौड़ रही होती है अपने आसपास और धीरे धीरे कब आप उस धुन को गुनगुनाते हुए उस संगीत का हिस्सा बन जाते हो पता ही नहीं लग पाता।इसी तरह जीवन के अंतिम पहर में संगीत भी थोड़ा प्रौढ़ हो जाता है।स्वरलहरियों में शास्त्रीय संगीत सी नियमितता आ जाती है।यही जीवन है जिसने भी इस धुन को अपने अंदर से खोज निकाला है निस्संदेह उसका जीवन विभिन्न रागों का सुंदर समुच्चय है।

अक्सर यही होता है संगीत हमारे आसपास किसी इत्र की तरह बिखरा होता है और हम दुनियादारी का रुमाल नाक पर ओढ़ निकल लेते हैं।हमारे पास समय ही नहीं होता कि कुछ देर ठहरकर उस संगीत का आनंद लिया जाए !हर समय एक अनाम सी भागदौड़ हमें घेरा बनाकर घेरे हुए होती है जहाँ चाहकर भी संगीत प्रवेश नहीं कर पाता।

बारिश की घुँघरू बूँदों में धुन है..सुबह की खूबसूरत शुरुआत में धुन है..सूरज का रोज आना और नींद के नगर से जिंदगी को जगाना..रोशनी के छींटों से संसार भर को जगमगाना..चांद का बादलों में लुका छिपी खेलना.. रोज छत पर नई नई कहानियां बुनना..दूर से कहीं आती रेलगाड़ी की सीटी.. गृहिणी की रसोई में स्वाद से भरे कुकर की सीटी की धुन..किसी बच्चे की निश्चल खिलखिलाहट में दौड़ती धुन, डिजिटल दुनिया में बहुप्रतीक्षित किसी संदेश का आना और मन में अचानक उठी एक कुहुक भरी धुन..दूर से आती अज़ान और मंदिर की घंटियों की धुन..विचारों में डूबी रात के सन्नाटे को तोड़ते झींगुरों की धुन..भागती जिंदगी में समय निकाल कर कभी वीकेंड पर किसी जरूरतमंद की मदद के बाद मन से निकली सुकून भरी धुन..!बस धुन ही धुन..जरूरत है तो सिर्फ सुनने की और महसूस करने की।

कभी गौर किया हो तो पियानो में भी काला और सफेद रंग जिंदगी के उतार चढ़ाव भरी धुन को ही दर्शाते हैं।दोनों का साथ होना कितना जरूरी है अन्यथा धुन ठीक से निकलेगी ही नहीं।सुख दुःख भी इसी तरह के लंगोटिया यार हैं एक के बिना दूसरे का कतई गुजारा नहीं..!

कृष्ण की मुरली की धुन के बारे में कौन नहीं जानता।वो जब एकाग्र मन से मुरली बजाते थे तब इंसान तो क्या पशु पक्षी पेड़ पौधे चराचर जगत सभी मुग्ध होकर उनकी धुन में समाहित हो जाते थे।कहा जाता है कि गायें मुरली की धुन सुनकर स्नेह में इतना डूब जाती थी कि दूध स्वतः प्रवाहित होने लगता था।हैरत होती है कि एक साधारण से ग्वाले नें किस तरह अपने व्यक्तित्व में छिपी धुन से सम्पूर्ण जगत को जीत लिया था।दुनिया के तमाम असाधारण लोग किसी न किसी अंदरूनी धुन के धनी होते हैं,उसी राह पर जीवन भर चलते हैं और एक नया कीर्तिमान संसार के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं।ये है संगीत की ताकत..कितनी मधुर सुकोमल..कितनी शक्तिशाली ! इसी तरह तानसेन के बारे में कहा जाता है।उनके दीपक राग के असर से असंख्य दीपक स्वतः प्रज्वलित हो उठते थे।बारिश होना शुरू हो जाती थी।ये सभी किवदंतियां है या हक़ीकत लेकिन इतना तो सत्य है कि संगीत में सकारात्मक परिवर्तन की अद्भुत ताकत होती है।एक प्रयोग के माध्यम से ये सिद्ध भी किया गया था..संगीत के असर से पानी की संरचना में बहुत ही खूबसूरत सा पैटर्न बना हुआ दिखाई दिया..यक़ीनन ये अद्भुत प्रयोग था..! हमारे शरीर का लगभग साठ प्रतिशत पानी ही होता है तो सोच कर देखिए मधुर संगीत का हमारे शरीर में मौजूद पानी पर कितना गहरा असर होता होगा।यही कारण है कि अच्छा संगीत हमारे बुरे से बुरे मूड को भी बदलने में सक्षम होता है।बस फिर सोच क्या रहे हैं..हो जाइए संगीतमय आज से ही !

एक तरफ अगर दुनिया में परमाणु आयुध है तो दूसरी तरफ संगीत की सकारात्मक हलचल है।निस्संदेह हम आज बारूद के ढेर पर बैठे हैं लेकिन उस बारूद को स्नेह भरी ऊर्जा में परिवर्तित करने की अगर किसी में सामर्थ्य है तो वह सिर्फ संगीत है..संगीत जीवन बदल सकता है..विचारों का दूषित प्रवाह बदल सकता है..संगीत सही मायनों में कभी न खत्म होने वाली शाश्वत ऊर्जा है।


स्वरचित,मौलिक

अल्पना नागर

किनारे पड़ी कश्ती

 किनारे पड़ी कश्ती


किसी जमाने में 

हुआ करती थी वो

फुर्तीली/

जैसे पहन रखे हो

पैरों में चीते के नाखून..!


करती रही यात्राएं

समंदर के मानचित्र पर/

अपने लिए नहीं वरन

खुद पर सवार जिम्मेदारियों के लिए,

धीरे धीरे धुंधला गई चमक

वक़्त की धूप में..

किनारे आ गई कश्ती

स्वैच्छिक अवकाश लिए/


स्मृतियों की साँकल से बंधी

कश्ती देखती है

अपनी बूढ़ी आँखों से

हिलोरें मारती लहरों का नर्तन/

आती जाती सांस सी

लहरों के थपेड़े

स्मरण कराते हैं

समंदर से हुई तमाम

पिछली गुफ़्तगू की/


एक एक कर जमा हैं उसमें

यादों की टहनियों से गिरे

सूखे पत्ते

और थोड़ी सी रेत/

रेत अभी भी गीली है

नमी बाकी है..

अटके हुए हैं अभी

उस गीली रेत में

जीवन का स्मरण कराते

सीप और शंख के अवशेष/

वैसे ही जैसे अटक जाती हैं

उड़ती पतंगें

ठूँठ हुए किसी पेड़ की

सूखी टहनियों पर/


ये तो रवायत है दुनिया की,

कौन पूछता है

किनारे पड़ी कश्तियों को/

फिर भी आते हैं सैलानी..

सेल्फी के लिए कहाँ मिलेगी

इससे बेहतरीन

एंटीक जगह !


अल्पना नागर

Wednesday 9 September 2020

खबरों की खिड़की

 खबरों की खिड़की


खबरों की खिड़की पर

बैठा है एक कौआ

एकदम निठल्ला..!

दिनभर निहारता है राह

कि मिल जाये एक अदना खबर,

इन दिनों बेहद व्यस्त है

इतना कि रात में भी चैन नहीं/


छिल गया है बेचारा गला

कांव कांव की अनथक ध्वनि से

लेकिन फिर भी जारी है

कार्य के प्रति उसकी लगन

और अदम्य उत्साह..!

उत्साह इतना कि

पंजो में जैसे लग गई हो

कोई स्थाई 'स्प्रिंग' !!

बार बार उछलता है अपनी जगह पर

आँखों में आ जाती है 

सुनहरी चमक/

जब भी दिखती है कोई ख़बर..


हमने पाला हुआ है उसे

हमारी ही खिड़की पर रहता है वो

इन दिनों अहर्निश..

हमें मधुर लगती है

उसकी परिश्रम में डूबी ध्वनि,

जैसे यही है..बस यही है अब

राष्ट्रीय संगीत !

हम मन ही मन मुग्ध है

तालियां पीटते हैं 

उसकी उतार चढ़ाव भरी

निरंतर ध्वनि पर/

सारा ध्यान केंद्रित है

बस उसी पर..

कुछ और अब कहाँ सुनने वाला है !


अति उत्साह में जब बिगड़ने लगता है

उसके 'स्प्रिंग' लगे पंजों का संतुलन/

हम दौड़कर जाते हैं

खिड़की की ओर

उसे प्यार से पुचकारते हैं

'कहीं लगी तो नहीं जनाब !'/

कहकर बिठा देते हैं पुनः वहीं

खबरों की खिड़की पर

यथोचित सम्मान के साथ/


फिर जाते हैं हम अपनी खाने की टेबल पर

बिछाते हैं एक सभ्य कपड़ा

परोसते हैं एक एक कर

कौए द्वारा आयातित खबरें/

अभी पेट नहीं भरा लेकिन,

कुछ तो कमी है!!

हम देखते हैं पुनः 

उसी खिड़की की तरफ

याचना भरी दृष्टि लिए/


कौआ बहुत समझदार है

वो ले आता है फटाफट

चटपटे अचार का एक डिब्बा/

अपने नाजुक पंजों में भरकर

हम लेते हैं बलैया

उसके अदम्य साहस और उत्साह की/

फिर पुनः व्यस्त हो जाते हैं

अचार का आनंद लेने में

अचार के खत्म होने के बाद भी

चूसते रहते हैं

गुठलियां और छिलका/

उसमें अनुभूत होता है 'परमानंद' !


खिड़की का एकछत्र मालिक

कौआ दूर से देखता है

समस्त परिदृश्य/

उसने लगा दिया है एक बोर्ड

खिड़की के बाहर

'ताजा हवा का प्रवेश निषिद्ध है..'!


अल्पना नागर




Sunday 6 September 2020

तीसमारखाँ

 बाल कहानी

तीसमारखाँ


पुराने समय की बात है।बहुत दूर एक छोटा सा गाँव था।गाँव का नाम खुशहालपुर था।गाँव के लोग बड़े ही सीधे और मेहनती थे।सभी मिल जुल कर खुश रहते थे।लेकिन एक समस्या थी।खुशहालपुर की खुशियों को नजर लग गई थी।एक डाकू नें गाँव में लंबे समय से घुसपैठ की हुई थी।डाकू देखने में लंबा चौड़ा,घनी मूँछों वाला रौबीला आदमी था।देखने में ही बड़ा खूँखार नजर आता था।एक शानदार घोड़ा भी था उसके पास जिसपर बैठकर वो पूरे गाँव का जायजा लिया करता था।गाँव के लोग सीधे सादे थे वो डाकू से किसी तरह का कोई पंगा नहीं चाहते थे अतः उसके आते ही सभी अपने अपने घरों में मुर्गियों की तरह दुबक कर बैठ जाते थे।जितने समय डाकू गाँव के चक्कर लगाता था उतने समय कोई भी बाहर नहीं निकलता था,उनकी सांस डर के मारे हलक में ही अटकी होती थी।घनघोर सन्नाटा छाया होता था।

डाकू के पास एक बड़ी सी बंदूक भी थी जिसे हमेशा वो शान के साथ अपने कंधे पर लटकाकर रखता था।गाँव के लोगों नें कभी बंदूक देखी तक नहीं थी वो बड़े ही शांतिप्रिय खुशमिजाज लोग थे अतः उनका बंदूक जैसे जानलेवा हथियार से डरना स्वाभाविक था।डाकू नें अपने बारे में बड़े ही शान से गांववासियों को बताया हुआ था कि किस तरह उसने अब तक तीस लोगों को यूँही खेल खेल में मारा हुआ है।किसी की जान लेना उसके बांए हाथ का खेल है अतः अगर किसी को अपनी और परिवार की जान प्यारी है तो वो जब भी गाँव का चक्कर लगाने आये, चुपचाप अपने घर के बाहर अनाज और धन रख दे,लेकिन ध्यान रहे इस बीच कोई नजर उठाकर उसकी आँखों में आंखें डालकर न देखे अन्यथा परिणाम घातक होगा।

गाँव वासी बहुत अधिक डरे हुए थे अतः बिना किसी विरोध के वो अपने खून पसीने की गाढ़ी कमाई का एक हिस्सा नियत समय पर चुपचाप अपने घर के आगे रख देते थे।शुरुआत में डाकू महीने में दो बार आता था लेकिन अब वो जल्दी जल्दी आने लगा।कभी भी आ जाता था कोई नियत समय नहीं था।गाँव वालों के लिए भूखा मरने की नौबत आ गई।फिर भी वो जान बचाने के चक्कर में डाकू के आगे घुटने टेकने पर मजबूर थे।चूंकि डाकू नें अब तक तीस लोगों की जान ले ली थी अतः वो तीसमारखाँ के नाम से जाना जाने लगा।डाकू के दिन मजे से कट रहे थे।

उसी गाँव में कुछ युवा बच्चों का एक समूह था जो बुद्धिमान थे और डाकू के इस मनमाने रवैये से बहुत अधिक आक्रोश में थे।युवा बच्चे प्रतिभावान थे किंतु उनमें भी वही समस्या थी वो भी अन्य गाँव वासियों की तरह डरपोक किस्म के थे फिर भी वो तरह तरह की योजनाएं बनाते रहते थे कि किस तरह डाकू को गाँव से भगाया जाए।एक लड़का जिसका नाम धीरज था वो सभी को डाकू से सामना करने के लिए प्रोत्साहित करता रहता।

एक बार धीरज नें अपने समूह के अन्य मित्रों से कहा कि अब बहुत हो गया।डाकू के आतंक की वजह से गाँव में जीना मुश्किल हो गया है।अतः समय आ गया है कि तीसमारखाँ को गाँव से भाग दिया जाए।

"लेकिन ये होगा कैसे..?देखते नहीं उसके पास बड़ी सी बंदूक है.."।एक मित्र नें समस्या की ओर इशारा किया।

" यही तो दिक्कत है..हमें योजना बनानी होगी मित्र..कैसा हो अगर हम उसकी बंदूक को ही उससे छीन लें..! वो एक है और हम पाँच..क्यों..!"धीरज नें उत्साह से कहा।" इस बार जैसे ही तीसमारखाँ गाँव का चक्कर लगाने आएगा हम लोग इक्कठे होकर उसके सामने खड़े हो जाएंगे..फिर उसका पैर खींचकर घोड़े से उतारेंगे और फिर.."

"और फिर उसी के घोड़े से उसका पैर बांधकर उसे गाँव के पीपल पर उल्टा लटका देंगे..।" अन्य मित्र नें बीच में ही टोककर कहा।

" विचार तो अच्छा है पर कर पाएंगे ऐसा..?"

"देखते हैं..इस बार पूरी हिम्मत से सामना करेंगे।कुछ तो समाधान अवश्य निकलेगा।" धीरज नें कहा।

जल्दी ही वो दिन भी आ गया।डाकू गाँव का चक्कर लगाने पहुंचा।धीरज और उसके मित्र भी इस बार हिम्मत करके डाकू के सामने पहुँच गए।वो ठीक उसके घोड़े के सामने घेरा बनाकर खड़े थे।तीसमारखाँ को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ।उसने इशारे से कहा..

"ए लड़कों क्या बात है..रास्ता रोक कर क्यों खड़े हो..मरने से डर नहीं लगता..?" बंदूक को कंधे से उतरते हुए डाकू नें कहा।

उसकी रौबदार कड़क आवाज़ और घनी मूँछे देखकर ही धीरज और उसके मित्रों के पैर काँपने लगे ऊपर से उसने बंदूक भी कंधे से उतार ली थी।

"हु हुजूर..क.. कुछ नहीं..हम्म तो बस यूँही आ गए थे..।"समूह के सबसे डरपोक लड़के नें मुँह खोला।

"यूँही का क्या मतलब है..अब तैयार हो जाओ सब मरने के लिए.."।तीसमारखाँ नें बंदूक तानते हुए कहा।

"अरे हुजूर कैसी बात करते हो..हम तो आपके चेले बनने आये हैं ।हमें बस कुछ नहीं चाहिए।अपनी शरण में ले लो।" धीरज नें बिगड़ी बात संभालते हुए कहा।

"ठीक है..एक काम करो।मेरे पीछे पीछे आते जाओ।ये घरों के आगे जो भी धन और सामान रखा है उसे इक्कठा करते जाओ।ध्यान रहे एक पैसे की भी हेराफेरी की तो उड़ा दूंगा बंदूक से..समझे..!" कड़क आवाज में डाकू नें कहा।

"ज जी हुजूर..।" लड़खड़ाती आवाज में लड़कों नें कहा।

शर्म से उन लड़कों की निगाहें झुकी थी।वो क्या करने आये थे और क्या कर रहे हैं सोचकर उनका आक्रोश ज्वालामुखी की तरह अंदर ही अंदर भभक रहा था।अब उन्हें बुद्धिमता से काम लेना था।क्योंकि हिम्मत और ताकत जवाब दे चुकी थी।यह एक बेहतरीन अवसर था।तीसमारखाँ के समीप रहकर उसकी कमजोरियों को जानने का।

समय बीतता गया।तीसमारखाँ को अब उसके डाकूगिरी वाले काम में मदद के लिए युवा हाथ भी मिल गए थे।तीसमारखाँ की एक विशेषता थी वो अपनी बंदूक को किसी की हालत में अपने से अलग नहीं रखता था।रात को सोते समय भी बंदूक उसके हाथ के नीचे होती थी जिसे निकालना कोई आसान कार्य नहीं था।

धीरज और उसके मित्रों के लिए डाकू को पराजित करना एक सपना मात्र रह गया था।

एक दिन डाकू बहुत तेज बीमार पड़ा।बीमारी की हालत में भी वो अपनी बंदूक को अपने से अलग नहीं करता था।लेकिन एक रोज हालत बहुत खराब होने पर लड़कों को अवसर मिल गया।अब सिर्फ हिम्मत जुटाने की देर थी।मंजिल सामने खड़ी थी।गाँव वालों की सारी मुश्किलें हल होने का सुनहरा अवसर उनके सामने था।

धीरज नें अपने मित्रों से कहा कि उसकी बंदूक लेने का काम मैं करूँगा तुम लोग बस दरवाजे पर खड़े हो जाना ताकि वो कहीं जा न पाए।और क्योंकि वो बीमार है इसलिए हम उसे घोड़े से पैर बांधकर खींचने या पीपल पर लटकाने जैसा कोई काम नहीं करेंगे।ये गलत होगा।

योजना के अनुसार धीरज नें डाकू के करीब जाकर उसकी बंदूक उससे छीन ली।चूंकि डाकू की शारीरिक क्षमता लगभग खत्म हो गई थी अतः बंदूक लेने का वो विरोध नहीं कर पाया।

धीरज नें पहली बार अपने हाथ में लेकर बंदूक को देखा।" तो क्या यही वो चीज है जिसने इतने समय से हम गाँव वालों की नींद उड़ा रखी है.."।धीरज नें मन ही मन सोचते हुए कहा।

धीरज नें बंदूक को छत की तरफ मुँह करते हुए चलाने का प्रयास किया।लेकिन ये क्या..बंदूक चली ही नहीं..!! धीरज नें पूरा प्रयास किया उसे चलाने का लेकिन बंदूक नहीं चली।उसने डाकू की तरफ बंदूक का मुँह किया और कारण पूछा।

डाकू की हालत जैसे काटो तो खून नहीं।लगा जैसे पोल खुल गई अब क्या करेगा..! उसने धीरज को बहुत ही दबी हुई आवाज में बताया कि बंदूक में कोई गोली नहीं है और न ही कभी थी।उसने अब तक किसी एक मक्खी तक को नहीं मारा है तीस लोग तो दूर की बात है।वो दूर के किसी गाँव में एक सेठ के यहाँ नौकरी करता था,सेठ उसे बहुत मारता था जिससे परेशान होकर एक दिन वो उसकी बंदूक और घोड़ा उठाकर भाग आया।और गाँव में आकर लोगों को शेखी बघार कर डाकू बन गया।

धीरज और उसके मित्रों का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया।उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि अब तक वो लोग बेवकूफ बनते आ रहे थे।अगर जरा सी हिम्मत दिखाई होती तो खुशहाल पुर गाँव कभी बदहाल नहीं होता।खैर अब क्या हो सकता था!

तीसमारखाँ नें धीरज और उसके मित्रों से कहा कि वो ये बात गाँव में किसी को न बताएं वरना बहुत किरकिरी होगी।उसने बताया कि वो अब कभी भी जिंदगी में किसी को परेशान नहीं करेगा।गांववालों की हमेशा मदद करेगा।साथ ही जो भी धन उसने गाँव वासियों से लिया है उसे लौटा देगा।

धीरज और उसके मित्रों नें तीसमारखाँ की बात मान ली।उसका बीमारी में पूरा खयाल रखा।पूरी तरह स्वस्थ करने के लिए धीरज और उसके मित्रों नें काफी प्रयास किये।डाकू तीसमारखाँ अब पूरी तरह से बदल गया था।उसने देखा कि किस तरह उन बच्चों नें सब कुछ जानने के बाद भी बीमारी से उबरने में उसकी मदद की।उसकी आँखों में पश्चाताप के आँसू थे।तीसमारखाँ नें अपना हुलिया ठीक किया।घनी डरावनी मूँछों को साफकर सभ्य नागरिक की तरह वो बच्चों के सामने आया।बच्चे खुशी से झूम उठे।अब गाँव में तीसमारखाँ नें लोगों की मदद करना शुरू कर दिया।मेहनत करके पेट भरने लगा।गाँव एक बार फिर से खुशहालपुर हो गया।


अल्पना नागर

शिक्षक

 शिक्षक


एक शिक्षक

तैयार करता है

कच्ची जमीन..

संभावना की मिट्टीयुक्त

थोड़ी नम जगह 

ताकि हो सके अंकुरण आसान/


वो बंजर जमीन पर भी

बहाता है अपना पसीना

निरंतर करता है

निराई गुड़ाई..

वक्त के साथ होती जाती हैं

बंजर जमीन भी उर्वर/

लचकदार और हरित..


वो जानता है

कहाँ और कौनसी मिट्टी में

मौजूद हैं उर्वर गुण

खनिज तत्व और उससे भी बढ़कर

अंकुरण की तड़प..!

एक शिक्षक जानता है..

वो बस सींचता है

उस तड़प को

अपने अथक प्रयासों के पानी से..

एक शिक्षक बस इतना ही करता है !


वो पुनः लग जाता है

किसी अन्य जमीन की देखरेख में/

एक अरसे बाद जब गुजरता है 

उन्हीं रास्तों से तो

देखता है अपनी सिंचित

लहलहाती फसल को..

उसकी खुरदुरी हथेलियों से

झांकने लगते हैं

अनगिनत सूरजमुखी/

शून्य आकाश के वक्ष पर

एक शिक्षक उगाता है

अनेक सूरज

ठीक वहाँ जहाँ

स्थाई रात का बसेरा हो/

एक शिक्षक बस इतना ही करता है..!


अल्पना नागर



Friday 4 September 2020

बार्बी डॉल

 बार्बी डॉल


वो कहते हैं तुम्हे

बार्बी डॉल

सजी संवरी/

प्यारी सी स्नेहिल गुड़िया

सब कुछ ठीक है

तुम्हे कोई शिकायत नहीं

अच्छी बात है !

होनी भी नहीं चाहिए..

गुड़िया भी कभी शिकायत करती हैं !!


तुम प्यारी हो

जमाने से कदमताल करती

'अल्ट्रा मॉडर्न' हो..

लेकिन हो तो तुम गुड़िया ही..!

तुममें पहले से डाले गए हैं

कुछ 'प्रोग्राम्स' 

अपने हिसाब से/

'वैल कंट्रोल्ड'...

इसके इतर जाना संभव न होगा

तुम्हारे लिए..है न !!


ये जो चिकना रास्ता 

मुहैया कराया गया है तुम्हे

रैम्प है..शानदार चमकता हुआ रैम्प..

चारों ओर रोशनियां

आवाजों से घिरा तुम्हारा वजूद..

जहाँ करना है तुम्हे

मूक प्रदर्शन..

अपनी आवाज को म्यूट करके !

इस चिकने रास्ते पर चलने की

आदत है तुम्हे/

बिना लड़खड़ाए

नियंत्रित सधे कदमों से/

लेकिन हर बढ़ा हुआ कदम

धकेल देता है तुम्हे

पीछे की ओर..!


फर्क सिर्फ इतना है

इस रैम्प पर तुम आती हो

उजाले से अंधेरे की ओर..

अंधेरे में बजती तालियां

चेहरे रहित लोग

और तुम

उसी अंधेरे का एक हिस्सा मात्र !


किसी रोज खत्म हो जाएगी 

तुम्हारी चमक

साथ ही हो जाएगी

बैटरी डाउन/

उस रोज क्या करोगी..!

सोचा है कभी !!

कैसे सोचोगी..! गुड़िया जो हो..!


इससे पहले कि हो जाये

सब खत्म/

ढूंढो अपने अंदर छिपे

'कंट्रोल बटन' को..

और निकल आओ

गुड़िया से बाहर !

उजाला तुम्हारी प्रतीक्षा में है..


अल्पना नागर



Thursday 20 August 2020

फफूंद

 फफूंद


कहीं भी उग आती है

जिद्दी फफूंद,

इसे कहाँ जरूरत है

नियमित देखभाल की या

खाद पानी की !

ये बिल्कुल उन लड़कियों की तरह है

जो आ जाती हैं अनचाहे..

किसी कुलदीपक की चाह में/

फफूंद...

किसी रेड लाईट एरिया में

फटे निरोध से निकल

रेड लाईट सिग्नल तक

पहुँच जाती है/

ये तो स्वतः स्फूर्त है

जैसे बंद मुट्ठी और उससे उपजी

हस्त रेखाएं!

या फिर तमाम उम्र

फल और छाया देने के बाद

ठूँठ पड़े बुजुर्ग पेड़ के अवशेष पर

अचानक उग आए

कुकुरमुत्ते..

बारिश के बाद

बिलों से बाहर आते

पंख लगे कीट पतंगे..!

इन्हें बिल्कुल जरूरत नहीं

कि दिया जाए इन पर 

बेतहाशा ध्यान..

उलट पलट कर देखा जाए

किसी स्वादिष्ट अचार की तरह और

बिछाई जाए सुरक्षा की कोई

तैलीय परत/

कमाल की बात !

इनमें पनप रहा सक्रिय जीवन

तलाश करता है

निष्क्रियता की/

ये चाहें तो बना सकते हैं घर

धूल खाई किताबों

या हरकत रहित मस्तिष्क को

किसी निपुण धर्मगुरु या नेता की तरह/

तो बेहतर है

हरकत में रहा जाए..

देखा जाए स्वयं को हर रोज

उलट पलट कर/

ताकि पनप न पाए उदासीनता

और उससे उपजी

अनचाही कोई फफूंद..!


अल्पना नागर


Wednesday 12 August 2020

अज्ञात

 अज्ञात छायाकार


उसे ज्ञात है

रंगों का बेहतर संयोजन/

हर रंग का अपना रंगमंच..

किसकी आँखों में

कितना रंग/

श्यामल हिस्सा कितना श्याम/

श्वेत हिस्सा कितना श्वेत/

उसे ज्ञात है..


उसे ज्ञात है/

कितना प्रकाश 

कितने घनत्व में और

किस पहर डालना है/

ताकि आ सके सर्वश्रेष्ठ तस्वीर/

छाया का जादूगर है वो !


आप चाहें या न चाहें

वो बिठाता है

समीकरण

धूप छाँव के/

लेकर आता है

अपनी मनमर्जी के पात्र

अपनी सुविधा से/

कराता है किसी तरह

'एडजस्ट'

वक्त के फ्रेम में/


आप हो जाते हो पाबंद

अनायास ही

उसके निर्देशों के/

समस्त भावभंगिमाये

स्वतः करती है पालना/

उसके एक 'क्लिक' की !


वो रचता है

सम्मोहक नेपथ्य/

सबकी नजरें बचाकर !

कोई नहीं बच सकता

उसके लेंस की जद से..

वो अज्ञात है/

मगर ज्ञात है उसे 

समस्त तस्वीरें /

एक ज़खीरा है 

उसके पास

समस्त घटनाक्रम का/


भले ही रहो आप अंजान

ताउम्र उसकी उपस्थिति से/

अगर जान लेते तो

कर लेते शायद

थोड़ा अभिनय प्रेम का/

जैसे करते आये हो अब तक

किसी सिद्धहस्त 

फोटोग्राफर के सामने/

होठों के किनारे विस्तृत किये हुए !


अल्पना नागर
















Tuesday 28 July 2020

Lamp post

लैम्प पोस्ट

ये रात के अंतिम पहर की 
आखिरी ट्रेन है शायद
डिब्बों में सवार 
चुप्पी उतर रही है
एक एक कर..

स्टेशन खाली है
कोई नहीं है वहाँ..सिवाय
एक ऊँघती बुकस्टाल और
प्रतीक्षा सीट के..
जिसपर मौजूद है पहले से
अगल बगल मुँह लटकाए बैठी
उदासीनता का झुंड..!

सीट के नीचे 
बिखरे पड़े
कई जोड़ी जूते
व्यस्त हैं बातचीत में..
उनमें दिखाई देती है व्यग्रता
शीघ्रातिशीघ्र अन्यत्र जाने की..!

मैं शायद पता भूल गई हूँ
जाना कहाँ है/
कहाँ से आई हूँ/
और सबसे जरूरी सवाल
क्या करने आई हूँ !

खैर,कोई नई बात नहीं..
दूसरे काम भी अब तक
करती आई हूँ 'यूँ ही'..!
बिना किसी उत्तर की
प्रतीक्षा के..
क्योंकि करना होता है बस,
रेंगती चुप्पियों का
हिस्सा बनना होता है बस..!
फिर भी पूछ रही हूँ सवाल/
खालीपन से
लौट कर आ रहे हैं
वही सवाल मेरी ओर/
जैसे खाली कुँए से 
लौटकर आता है
खाली घड़ा और
खाली आवाजें..!

स्टेशन पर रेंग रही 
चुप्पी निकल गई है
सिर नीचा किये..
बिना कोई जवाब दिए/

बचा हुआ है सिर्फ एक
पीली रोशनी वाला लैम्प पोस्ट/
बेजुबानों की
एकमात्र शरणस्थली..
जो ओढ़ते हैं 
उसी पीली रोशनी का कंबल/
जमाने भर से 
दुत्कारे जाने के बाद..!
ठिठुरते शीत युग में
उम्मीद भरी 
रोशनी और गरमाहट लिए/
अंधेरे को दूर तक
खदेड़ता
पीली रोशनी वाला 
लैम्प पोस्ट..!
जैसे सुकून देती कोई
आत्मीय कविता..!

पीली रोशनी वाला 
लैम्प पोस्ट
शायद बता दे पता
मेरी उलझनों का/
रिक्त सवालों का..!
लैम्प पोस्ट नें 
किया है इशारा
उसी आखिरी ट्रेन की ओर/
आखिरी गंतव्य से आगे
एक नया रास्ता है..
अनदेखा/
अनचीन्हा/
जहाँ से जाना है पैदल
नितांत अकेले..!

अल्पना नागर






Sunday 26 July 2020

कशमकश

कशमकश

कशमकश में हूँ कि
तेज तर्रार छुरी बनूँ या
बनी रहूँ पानी सी सरल..!
किस तरह दिखाऊँ
आक्रोश अपना..
छुरी की धार पर या
पानी की धार पर..!!
जरूरी नहीं कि
छुरी ही काटती हो
अन्याय की जड़..
कभी कभी
शांत बहता निश्छल पानी भी
पैदा कर देता है
चार सौ चालीस वॉट वाली
तड़ित शक्ति..!
काट देता है
पत्थर के मुहाने..
बना देता है
बेतरतीब नुकीले पत्थरों को
गोल और चिकना..!
कशमकश में हूँ कि
कैसे बनूँ पानी !
जबकि शरीर का
साठ प्रतिशत भाग पानी है
फिर भी..
क्या सचमुच आसान है
पानी के गढ़ में
पानी बन टिक पाना..!
जबकि डूब चुकी है आधी दुनिया
चुल्लू भर पानी में..!!
कशमकश में हूँ कि
शंखनाद कर दूँ
बुराई के खिलाफ,
या छुप कर बैठ जाऊँ
भीतर कहीं
उसी शंख के खोल में..!
कशमकश में हूँ कि
बनी रहूँ मिट्टी की माधो
और जीती रहूँ
अपराधबोध या
आत्मग्लानि से भरा
बेबस बेफ़िक्र जीवन..
या फिर परवाज दूँ पंखों को
बिखेर दूँ शब्द शब्द
विद्रोह के..
ताकि हो सके अंकुरित
साहस का कोई बीज
उसी मिट्टी की कोख से..!
कशमकश में हूँ कि
मुक्त हो जाऊं
कशमकश से एक दिन
या फिर..
जीती रहूँ
यूँ ही हर दिन
ऊहापोह भरी निर्जीव मौत..!

अल्पना नागर













आलेख

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परेशानी का सुख

आज के सुविधाभोगी समय में कौन होना चाहता है परेशान ! और कौन होगा भला जो परेशानी में भी सुख की तलाश करे ! ये तलाश बड़ी अजीबोग़रीब है।इसे उलटबांसी जैसा कथ्य कहा जा सकता है।एकबारगी तो सुनकर ही ये आभास होता है कि कहीं हमने कुछ गलत तो नहीं सुन लिया।शीर्षक कुछ और तो नहीं..कहीं टंकण त्रुटि तो नहीं हो गई..!
आराम में सुख की तलाश तो हर कोई करता है।लेकिन अजीब बात है..गौरतलब है कि जिंदगी में जितना अधिक आराम मिला,जितनी अधिक सुविधाएं मिली उतना ही सुख दूर होता चला गया..गोया कि सोने चांदी की रखवाली करते वक्त रातों की नींद उड़ना स्वाभाविक है।आराम की अलमारी में सुविधाएं तो भर दी हमनें लेकिन सुकून की चाभी कहीं भूल आये! रही बात परेशानी में सुख ढूंढने की तो ये सुनने में भले ही अजीब लगे लेकिन है बहुत गूढ़ अर्थ लिए हुए।चाहो तो आजमा कर देख लो,जिस दिन परेशानी भरे लम्हों में सुख की तलाश करना शुरू कर दोगे..जिंदगी के मायने ही बदल जाएंगे।ये बिल्कुल वैसे ही है जैसे कीचड़ से लबालब भरे तालाब में कमल का खिलना।उस सुख की आप कल्पना भी नहीं कर सकते जो परेशानी भरे लम्हों से चुराया हुआ होता है।अगर हम अपने आसपास नजरें दौड़ाए तो हम देखेंगे कि बहुत से लोग और संस्थाएं ऐसी हैं जो सचमुच परेशानी में भी सुख तलाशने और सुकून देने जैसा नेक काम कर रही हैं।ज्यादा दूर न जाया जाए..हम अपने घर में भी देखें तो एक इंसान है जो रात दिन अपने सुख का बलिदान करके दूसरों के लिए सुख और सुकून अर्जित करने का माध्यम बनता है..जी,हाँ.. हमारी माँ जो बिना कोई नागा किये हर दिन हमें सुख की अनुभूति कराती है।वो भली भाँति जानती है परेशानी का सुख क्या होता है ! शायद मदर टेरेसा जो कि इंसानियत की सेवा सुश्रुसा करने के लिए सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हैं..अमर हैं..उन्हें 'मदर' की उपाधि इसी वजह से दी गई होगी।इसी तरह पिता जो कि जिंदगी भर दौड़ धूप करते हैं परेशान होते हैं ताकि संतति के लिए सुख उपलब्ध करा सके।थोड़ा और आगे जाएं तो आसपास के पेड़ पौधों को ही देखिए,कभी देखा है उन्हें भेदभाव करते हुए या पत्थर फेंकने का बदला पत्थर फेंककर पूरा करते हुए ! उन्हें तो हमनें उम्रभर फल फूल ही देते देखा है।उनसे बेहतर कौन जानेगा परेशानी में सुख देने का अर्थ ! हमारे समाज में भी अगर नजर घुमाएं तो देखेंगे कि किस तरह डॉक्टर्स अपनी परवाह किये बगैर समाज के हित में परेशानी मोल लेते हैं..किसी मरीज की जान बचाकर जो सुख उन्हें मिलता है वो शब्दों में बयां नहीं हो सकता शायद इसीलिए उन्हें भगवान की उपाधि दी गई है।इसी तरह सीमा पर हर घड़ी तैनात सैनिक तपती धूप हो या माईनस पचास डिग्री तापमान वो परेशानी झेलते हैं किसलिए..!ताकि हम लोग आराम से सुख के साथ निडर होकर जीवनयापन करें।आपने एक शब्द सुना होगा 'व्हिसल ब्लोअर'।वे व्यक्ति जो स्वयं की परवाह किये बैगर समाज की विसंगतियों को उजागर करते हैं,बिना किसी डर और हिचक के सामने आते हैं..व्यवस्था की पोल खोलते हैं,बदले में चाहे उन्हें गोली ठोककर मार दिया जाए या बम से उड़ा दिया जाए वो लेशमात्र भी इस बात पर विचार नहीं करते या करते भी होंगे तो उनके लिए 'स्व' से ऊपर 'हम' का भाव ज्यादा महत्वपूर्ण होता होगा जिसकी खातिर वो परेशानी उठाते हैं और मौत की पगडंडी पर चलने से भी हिचकते नहीं ! क्या इनका कोई परिवार नहीं होता होगा,पत्नी या प्रेमिका नहीं होती होगी..कोई भी जो इनके मार्ग को अवरुद्ध कर सके।देशहित या परहित जब स्वहित से ऊपर उठ जाता है तब इस तरह के निःस्वार्थ नायक पैदा होते हैं।वो लोग बेजान वस्तुओं जैसा जीवन जीना पसंद नहीं करते अपितु सजीव होकर निर्भीक मौत का चयन करते हैं।ये बिल्कुल आवश्यक नहीं कि इस राह में मौत या गुमनामी मिले लेकिन इस बात से बेपरवाह होकर जीना ही असल मायनों में जीना है..इसी में सुख है सुकून है।कुछ वर्ष पूर्व सुर्खियों में थी माल्टा की एक खोजी पत्रकार गाजीलिया जो कि 'रनिंग कमेंट्री' नाम से ब्लॉग भी चलाती थी।उसने देश में प्रचलित भ्रष्ट व्यवस्था और अधिकारियों की पोल खोलने के लिए रात दिन एक कर दिए।वो परेशान थी अपने देश की दीमकों से जिन्होंने नीचे ही नीचे देश को पूरी तरह खोखला कर दिया था।एक के बाद एक चौंकाने वाले तथ्य जुटाकर ला रही थी कि एक दिन उसकी कार को बम से उड़ा दिया गया।वो चली गई सदा के लिए..अपने पीछे कुछ सवाल छोड़कर।लोगों को जाग्रत करने के उद्देश्य में सफल रही भले ही इस समस्त घटनाक्रम में उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।खैर ये तो सिर्फ एक उदाहरण है,दुनिया भरी पड़ी है ऐसे लोगों से जो रोज इस तरह की परेशानी में सुख की तलाश के लिए निकलते रहते हैं,कभी राह चलते लावारिस अनाथ बच्चों के पालन पोषण का जिम्मा उठाते हैं तो कभी बेजुबान निरीह पशुओं की देखभाल का बीड़ा उठाते हैं।आखिर परेशानी की कीमत ही क्या है सिर्फ थोड़ा बहुत सुकून और क्या..!
किसी भी चीज का असली मूल्य उसे पाने के संघर्ष में छुपा होता है।वर्षभर कड़ी मेहनत की परेशानी झेलने के बाद ही विद्यार्थी अच्छे अंकों व सफलता का सुख महसूस कर पाते हैं,जैसे जेठ की तपती गर्मी के बाद राहत की बूँदों का बरसना और एक एक बूँद को अमृत की तरह महसूस करना।ये बिल्कुल वैसा ही है जैसे कड़ी धूप में तपने के बाद किसान द्वारा अपनी लहलहाती फसल को देख सुकून की अनुभूति करना।अगर जेहमत न उठाई गई होती तो शायद संसार का कोई भी अविकसित या विकासशील देश आजादी का सुख देख नहीं पाता।रंगभेद की क्रूर दासत्व प्रवृति से मुक्त नहीं हो पाता।
अभी कुछ रोज पहले अखबारों और सोशल मीडिया पर खबर वायरल थी।महामारी के इस दौर में जहाँ लोग अपनी जान बचाये घरों में कैद हैं..कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस संकट की घड़ी में दूसरों के लिए अपना कीमती वक्त और ऊर्जा समर्पित कर रहे हैं।एक सरदार जी हैं जो दिनभर ढेरों रोटियां बनाकर जरूरतमंदों को ढूंढ ढूंढ कर बाँट रहे हैं..इन्हें क्या आवश्यकता आ पड़ी थी ये सब करने की वो भी महामारी के इस खौफ़नाक समय में ! लेकिन अभी भी इंसानियत बची हुई है जो परेशानी में ही सुख तलाश करती है।इन्हें ईश्वर के बंदे कहें तो कोई
अतिशयोक्ति नहीं होगी।इसी तरह कुछ और लोग भी हैं जो इस महामारी में मृत्यु का ग्रास बने उन लोगों को जिन्हें उनके अपने परिवार वाले भी भय के मारे लावारिस छोड़ देते हैं उन्हें पूरे विधि विधान और संस्कार के साथ अंतिम क्रियाकर्म में महती भूमिका अदा कर रहे हैं बिना अपनी जान की परवाह किये।दुनिया अभी अच्छे लोगों से खाली नहीं हुई है।सच बात तो ये है कि परेशानी में सुख ढूंढ पाना हर एक के बस की बात नहीं है।कोई भी व्यर्थ जेहमत नहीं उठाना चाहता।लोग बस जी रहे हैं जीवन किसी तरह अपने तक सीमित रहकर।परेशानी से उसी तरह बचकर निकल जाते हैं जैसे सड़क पर कुचला गया कोई आदमी या सरे राह गोलियों से भुन कर अंतिम सांस गिनता कोई अभागा !हमें कोई दरकार नहीं किसी भी व्यर्थ के पचड़े में पड़ने की।दुनिया जैसे चल रही है चलने दो!परेशानी में सुख तलाशकर कौन मुसीबत मोल लेगा ! काश अगर परेशानी का सुख अनुभूत करने जैसी छोटी मगर बेहद जरूरी बात अगर सभी को समझ आ जाये तो शायद दुनिया की आधी से अधिक समस्याएं तो यहीं खत्म हो जाएं।एक नई दुनिया हमें देखने को मिले जिसमें प्रेम,समर्पण और विश्वास का मजबूत रिश्ता कायम हो सके।स्वार्थ के घेरे से निकलकर निःस्वार्थ राह की ओर कदम बढ़ें तो सबकुछ बदला हुआ नजर आएगा।कथनी और करनी के अंतर को दूर कर सचमुच परेशानी में भी सुख ढूंढा जाए तो जीवन मूल्यों में भी आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिले।

अल्पना नागर

Thursday 23 July 2020

एक अहाता

एक अहाता

बिखरी चीजें
किसे पसंद हैं !
वो हँसते हैं मुझपर..
अजीब है,
पर पसंद है मुझे
बेतरतीब होना
इधर उधर बिखरा होना,
बिना किसी परवाह के
कि क्या होगा
जब देखेंगे चार लोग. ..!
वो चार लोग
रखते हैं सजाकर
हर वस्तु बेहद
करीने से..
भरते हैं उड़ती तितलियों को
जार भर प्रदर्शनी में !
खूबसूरत रंग बिरंगी
मखमली तितलियां..
जार के ढक्कन पर
चिपके होते हैं
कुछ रंग उनके
संघर्षों के..!
उन करीने से सजे घरों में
रोशन होती हैं दीवारें
उन्हीं तितलियों के
मखमली रंगों से..!
माफ करना
मुझे बागीचा भी नहीं पसंद,
करीने से लगे पेड़,
एक सीध में
अनुशासित पंक्तिबद्ध
पसंद नहीं कि
कोई आये और आकर कतर दे
अभी अभी ताजा खिली
घास के उठे हुए सर..
मुझे पसंद है
अहाता..!
बेतरतीब..बिखरा हुआ अहाता,
अहाते में
इधर उधर भागते बच्चों की
शैतान टोली से
आवारा झाड़ झंखाड़,
पाँव अंदर तक धंस जाए
इस कदर
रूह को गुदगुदाती
सर उठाती घास का स्पर्श..
जहाँ आती है धूप
बेरोकटोक..
मनमानियों की
फिसलपट्टी पर,
खेलती है जी भर
आँख मिचौली..
हाँ, मुझे पसंद है..!
धूप का हस्तक्षेप,
ईश का रूह से
सीधा मिलन..!
चाहती हूँ
उम्र भर रहे
मेरे अंदर पनपता
बेतरतीब
अहाता कोई..
दौड़ती रहें जहाँ
मनमर्ज़ियों की
तितलियां..गिलहरियां
और आती रहे
बेरोकटोक
रोशन धूप..
जहाँ सुस्ता सके
स्याह अंधेरों में लिपटी
मेरी बेचैन रूह..!

अल्पना नागर





Monday 20 July 2020

कविता

स्त्री और टोकनी

सुनो,
मैं वो नहीं हूँ
जिसे पढ़ते आये हो तुम
किताबों में अक्षर अक्षर..!
'साँवली सूरत..
फेनिल सी चमकती दंत पंक्तियां
बालों में खोंसती फूल पत्तियां..
नीम की अटारी पर चढ़
सूरज की बिंदी माथे लगाती..
झूम झूमकर कजरी गाती
वन कन्या कोई..!'
ये सब किसने लिखा
मैं नहीं जानती..
सभ्यता की इबारत लिखता
कोई किताबी कवि था शायद..!
अगर जानना चाहते हो
सचमुच मेरे बारे में तो
निकलना होगा
किताबों से बाहर..
आना होगा तुम्हें
नगर से कोसों दूर
किसी दूर दराज़ के वीराने गाँव में,
गाँव जहाँ
उम्मीदों की जमीन पर
पड़ी हुई हैं अनगिनत पपड़ियां..
जहाँ विकास आता है
वातानुकूलित चमचमाती गाड़ी में
चंद वादों के उमस भरे छींटे गिराकर
चला जाता है..!
तुम आना
मैं दिख जाऊँगी
घर की देहरी पर
जर्जर हुए दरवाजों के पल्ले थामे,
जिम्मेदारियों की टोकनी बन
माथे पर बोझ सजाए हुए,
टोकनी जो भरी जाती है रोज
और रोज होती है खाली..
कभी भरा जाता है पानी
तो कभी ठूँस दिए जाते हैं
रद्दी कपड़े और कबाड़..!
कभी कलश बनाकर
रखा जाता है
मंदिर देवरों में,
तो कभी कोने पड़ी होती है
पूर्णतः उपेक्षित,
जगह जगह मोच लगी हुई..
किसी कबाड़ी के
आने की प्रतीक्षा में
दिन गिनती हुई कि
कब आये कोई
मोल भाव करने वाला
वजन और बनावट देखकर
कीमत लगाने वाला..
और कब वो बन जाये
किसी और उपेक्षित कोने की शोभा !
खैर,
मेरी उम्र को देखकर
चौंकना मत..!
यहाँ बचपन जैसी कोई चीज
होती ही नहीं..!
पैदा होते ही
डाल दी जाती हैं पैरों में
भारी भरकम
गृहस्थी की बेड़ियाँ..
मेरे उलझे हुए बालों में
उलझी हुई हैं
सैंकड़ों कहानियां
'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' की
परीकथाओं जैसी..!
मैंने सुना है
शहर में
कागज कलम से
लिखी जाती है
तकदीरें..
कैसी होती होगी कलम !
चूल्हे की फूँकनी जैसी लम्बी या
मेरे हाथों की
चूड़ियों जैसी गोल मटोल..!
सुनो बाबू,
गाँव आते वक्त
लेते आना मेरे लिए भी
तक़दीर वाली कलम..
मैं भी चाहती हूँ लिखना,
इससे पहले कि
भरभरा कर ध्वस्त हो जाएं
जर्जर हुए दरवाज़े
और दब कर नष्ट हो जाए उनमें
एक हद की प्रतीक्षा करती
उम्मीद की देहरी..
इससे पहले कि
कुचली जाऊँ साबुत,
मैं देहरी लांघना चाहती हूँ..!

अल्पना नागर









Sunday 19 July 2020

कहानी - अलगाव

कहानी
अलगाव

माई डियर हसबैंड,
ये कहानी शुरू हुई थी तुमसे पर हर एक आम कहानी की तरह मैं इसे यूँ ही खत्म नहीं होने दूँगी।आख़िर पत्नी हूँ तुम्हारी,अभी हक़ बनता है मेरा तुम पर।आज मन हुआ तुम्हें ख़त लिखूँ, पन्नों पर उड़ेल दूँ,खाली कर दूँ खुद को पूरी तरह..खैर खाली तो बहुत पहले हो चुकी हूँ, अभी भी कुछ जज्बात हैं जो चिपके हुए हैं रूह से,सोच रही हूँ आज उन्हें भी बाहर का रास्ता दिखा दूँ ! ख़त कौन लिखता है आज के डिजिटल जमाने में.. किसे फुर्सत है कि बैठ कर अक्षर अक्षर मोती पिरोकर माला बनाई जाए,वो भी इस दौर में जहाँ हर चीज़ रेडीमेड मिलती है।मेरी अजीबोगरीब आदतों की तरह इसे भी मेरी एक सनक मानकर पढ़ लेना..फुर्सत निकालकर..न न जबरदस्ती बिल्कुल नहीं है फिर भी आख़िरी निशानी मानकर सरसरी नज़र दौड़ा लेना।मुझे अच्छा लगेगा।
मैं ख़त के जरिये तुम्हें पुरानी यादों के घने जंगल में ले जाकर छोड़ने वाली नहीं हूँ,वैसे भी वो जंगल आज आखिरी सांस ले रहा है ! वो पेड़ जो हमने बड़े यत्न से साथ साथ लगाए थे,सूखकर ठूँठ हो चुके हैं।अपराजिता के नीले फूल अब खिलना भूल गए हैं..तुम्हारी धूप जो नहीं आती अब !
जंगल छोड़ो..आजकल बालकनी में मन बहलाती हूँ।तुम्हारी लगाई मनी प्लांट को सींचती रहती हूँ।बड़ी ही जिद्दी किस्म की बेल है,कहीं भी उग आती है..इसे न तो जरूरत है धूप की और न ही दालान भर मिट्टी की।ये खुश है मेरी तरह एक छोटी सी पानी की बोतल में।हरियाली का अहसास कराती है।मेरी बालकनी भर दुनिया में कुछ बोनसाई पौधे भी हैं।कभी सोचा नहीं था कि भरे पूरे पेड़ों को चाहने वाली ये लड़की बोनसाई से अपना मन बहलायेगी..! किसने सोचा था कि उसे मनचाहा आकार देने के लिए जड़ों पर कैंची चलानी होगी..पर मैं कर रही हूँ इन दिनों..! मेरी बालकनी में आ जाती है सुबह शाम तुम्हारी यादों की मुट्ठी भर धूप..बोनसाई को और क्या चाहिए ! खैर मैं भी कहाँ पेड़ पौधों की बातें करने लगी..तुम्हें तो पसंद ही नहीं थे ये सब।
तुम्हें दिलचस्पी तो नहीं होगी मेरी खुशी या नाखुशी जानने में ! फिर भी बता देती हूँ..खुश हूँ मैं आजकल.. रंगों के साथ अच्छी बनती है मेरी।मैं तो लगभग भूल ही गई थी कि रंग कभी जिंदगी हुआ करते थे मेरी।चटख रंगों से प्रेम था मुझे..मुझे लगता था हर रंग सच्चा है..जो जैसा दिखता है सचमुच अच्छा है ! खैर अनुभव नें सिखाया, रंगों के भी अपने चेहरे हैं..तासीर है..मिज़ाज हैं।हर खूबसूरत रंग किन्हीं दो अलग रंगों का सम्मिश्रण है..नजरें चाहिए होती हैं उन्हें सही से पहचानने के लिए।अनुभव नें ही सिखाया कि रंग यूँ ही नहीं उभरकर आते,पृष्ठभूमि का गहरा होना अत्यंत आवश्यक है ! मेरे रंग भी बैकग्राउंड के गहरा होने की प्रतीक्षा में थे शायद..अभी अच्छी तरह उभरकर आ रहे हैं।शुक्रिया इसमें तुम्हारा योगदान अतुलनीय है।
मिनिएचर पेंटिंग में सिद्धहस्त होना एक दिन का कार्य नहीं।एक लघु संसार बुनना होता है अपने इर्द गिर्द।उस लघु चित्र की तरह बेहद लघु होकर ढालना होता है खुद को..रंगों को.. एक एक कर।मेरा इरादा कभी नहीं था कि अपनी अभिरुचि को आय का साधन बनाऊं लेकिन कर रही हूँ.. इसने रोजी रोटी दी,पहचान दी..जीने का संबल दिया।आजकल समय का अभाव नहीं है..तुम जो नहीं हो।तुम थे तो दुनिया तुम तक ही सीमित थी..अपनी अभिरुचियों को विवाह के अग्नि कुंड में ही प्रवाहित कर चुकी थी।मेरे लिए बस तुम थे..मेरा जीवन..मेरा ध्येय..मेरा विस्तार.. बस तुम्हारे आगे पीछे..दाएं बाएं हर समय तुम्हे खुश देखने का प्रयास करती थी..इतना कि चिढ़ जाते थे तुम मुझसे ! ज्यामिति के डायमीटर की तरह मेरी परिधि कितनी भी दूर तक जाए एक पैर तुम्हारे केंद्र में ही होता था। ये बात अलग है कि अब तुमने डायमीटर को ही विभाजित करने का फैसला लिया है ! फिर भी मेरी आत्मिक धुरी का केंद्र बिंदु आज भी तुम ही हो।
तुम्हारी इच्छा के मुताबिक हमें अलग रहते हुए छह माह से ऊपर हो गए हैं।मैं पहले भी तुम्हारे रास्ते में नहीं आती थी और न ही कभी आगे आऊँगी।तुम अपना लगभग सारा सामान लेकर जा चुके हो।कुछ बचा तो मैं भिजवा दूँगी।एक दीवार घड़ी है जो हमनें साथ में खरीदी थी..जो ठीक शाम के छह बजते ही मुस्कुराया करती थी ! शायद तुम ले जाना भूल गए।याद है उसमें दो नन्हीं चिड़िया निकल कर आती थी हर घंटे पर चौकीदार सी..हमने सपनें बुनना शुरू कर दिया था घर में फुदकती दो नन्हीं चिड़िया का..! तुम बताना मुझे उसे लेकर जाना चाहते हो या नहीं..! मेरा समय तो कब का ठहर चुका है ! कमबख्त ये घड़ी भागी जाती है..बचे खुचे अहसास स्मरण कराने को !
आजकल मैं भी तीखा मसालेदार खाने लगी हूँ।तुम्हें यकीन नहीं हो रहा न..वो जो जरा सी मिर्च लगने पर पूरा घर सर पर उठा लेती थी आज मसालों की बात कर रही है ! मेरे व्यक्तित्व की तरह मैं भी बेहद सादा थी,मुझे अहसास भी नहीं था कि खिचड़ी भले ही स्वास्थ्यकर हो मगर रोज रोज खाएंगे तो बोरियत ही होगी न ! तुम ठहरे बिरयानी वाले..अजीब सा संगम था फिर भी मैं तुम्हारी खातिर सीख ही गई थी मजेदार बिरयानी बनाना भी,ये बात अलग है आज खाने भी लगी हूँ।जमाने जैसी होने लगी हूँ.. तुम पहचान नहीं पाओगे मुझे ! खैर, तासीर आज भी मेरी सादा है,मैं चाहकर भी तुम्हारी मिस स्वीटी जैसी चटपटी नहीं हो सकती !
उस रोज शायद अंतिम बातचीत के लिए तुमने फोन किया था।बातचीत तो अरसे से बंद थी अब तो सिर्फ उसके औपचारिक अवशेष बचे थे उन्हीं की इतिश्री के लिए तुमने बात करनी चाही मुझसे..मगर हे ईश्वर ! कोई है जो नहीं चाहता कि हमारे बीच पूर्णतः सब कुछ विखंडित हो जाये,शायद इसीलिए उस रोज तुम्हारी आवाज़ के हल्के से कंपन में भी तुम्हारी तबियत के बारे में जान चुकी थी।तुम्हारे हाथ से फोन छूटते ही मेरे हृदय की धड़कनें भागने लगी..कुछ गिरने की आवाज आई।मैंने कुछ नहीं सोचा बस तुम्हारे पास आने का खयाल आया।शुक्र है आज तक भी हमारे फ्लैट की एक चाभी मेरे पास भी है।तुम बेसुध पड़े थे जमीन पर..पास ही तुम्हारा फोन बज रहा था बार बार..मिस स्वीटी की कॉल थी।उठाना नहीं चाहती थी मगर उठा लिया..उसे बताया तुम्हारे बारे में..अब वही तो है जो मेरे बाद तुम्हारा खयाल रखती है !
तुम्हारी स्थिति बिगड़ रही थी।चार दिन लगातार एडमिट रहने के बाद मैंने फैसला किया कि अपनी एक किडनी तुम्हें दे दूँ..यही एक रास्ता बचा था..खैर मुझे कोई परेशानी नहीं..कम से कम तसल्ली रहेगी कि मेरा कुछ तो है जो जिंदगी भर तुम्हारे साथ रहेगा..!मैंने कहा था न कोई है जो नहीं चाहता कि हम पूर्णतः विखंडित हो जायें ! मेरे कहने का मतलब फिर से एक होने का नहीं है..बिल्कुल चिंता मत करो..मैं फिर से तुम्हारी जिंदगी में वापस जबरदस्ती घुसने का कोई इरादा नहीं रखती।मैं सचमुच अब खुश हूँ अपनी लघु दुनिया में.. कई बार हम ईश्वर के संकेत समझ नहीं पाते और जो कुछ भी गलत घट रहा होता है उसके लिए बेवजह उसे जिम्मेदार ठहरा देते हैं जबकि हक़ीकत इससे बिल्कुल परे है..! ईश्वर हर हाल में हमारा शुभ ही चाहता है..उसी ईश्वर नें मुझे राह दिखायी..मेरे अंदर छिपे कलाकार को बाहर लेकर आया।मुझे आत्मनिर्भर होना सिखाया।मैं सचमुच बेहद शुक्रगुजार हूँ उस ईश्वर के साथ साथ तुम्हारी भी..! मैंने कोई अहसान नहीं किया तुमपर..बल्कि ये अहसान मेरा मुझपर है..इस बहाने तुमसे मेरा आत्मिक संबंध प्रगाढ़ ही होगा भले ही इकतरफा हो ! तुमसे मेरा सात फेरों का संबंध है,इतनी आसानी से पीछा छूटने वाला नहीं..कागज के चार टुकड़े और एक हस्ताक्षर क्या सचमुच अलगाव के लिए काफी हैं ? शरीर तो माध्यम भर था आत्मिक जुड़ाव का..उसकी परवाह तो न मुझे कल थी और न कभी रहेगी।लेकिन हाँ, विभाजित हुआ डायमीटर पुनः उसी अवस्था में पहले की तरह जोड़ पाना मेरे लिए असंभव होगा..! ये बात भी सच है कि आज भी मेरी धुरी तुम ही हो.. बस मैंने अपना विस्तार परिधि से कहीं आगे कर लिया है। कभी किसी मोड़ पर अगर जरूरत महसूस हो तो हृदय से आवाज देना मैं चली आऊँगी।
मिस स्वीटी को फोन करने का कई बार प्रयास किया मगर हर बार उनका नम्बर बंद बता रहा है।सोचा इत्तला कर दूँ कि तुम अब ठीक हो..सुरक्षित हो..खैर कोई बात नहीं..!
खयाल रखना अपना।
अलविदा !

अल्पना नागर