Friday 16 October 2020

कहानी

 


कहानी

मम्मी कहीं चली गई


"पापा..मम्मी कहीं चली गई है..!"एक हड़बड़ाई मासूम आवाज नें समूचे स्टाफ का ध्यान आकर्षित किया।

पांच साल की मंटू की गोल मटोल आँखों में बूँदी के लड्डू जितने बड़े आँसू थे।

सभी हैरान परेशान अध्यापकगण मंटू के अध्यापक पिता की तरफ देखने लगे।अब बारी उन्हीं के बोलने की थी।

"क्या..मम्मी चली गई?कहाँ गई होगी,वहीं होगी घर पे ही..ठीक से देखा तुमने?अध्यापक पिता नें मंटू से पूछा।

"नहीं..सब मेरी ही गलती है।मैं खाना नहीं खाती न ठीक से इसीलिये गुस्सा होकर चली गई।मम्मी नें बोला भी था कि ऐसे ही परेशान करती रही तो एक दिन सबको छोड़ के चली जाऊंगी।"इतना कहकर मंटू दहाड़े मार मारकर रोने लगी।

स्टाफरूम में ठहाके गूंजने लगे।बेचारे अध्यापक पिता का चेहरा देखने लायक था।वो तुरन्त मंटू से बोले,"चलो बाहर,मम्मी को ढूंढने चलते हैं।"

पास की दुकान से मंटू की फेवरेट रंग बिरंगी पॉपिंस खरीदी गई।मंटू का ध्यान अब मम्मी से हटकर दुकान की चीजों पर जा चुका था।स्कूल बैग में ढेर सारी टॉफी चॉकलेट आ चुकी थी।मंटू खुश।अब मम्मी के गुम हो जाने का खास अफसोस नहीं रहा।

अध्यापक पिता सीधे अपने करीबी मित्र के घर पहुँचे।वो जानते थे मंटू की मम्मी वहीं मिलेगी।वहाँ पहुंचकर देखा मंटू की मम्मी के हाथ में बड़ा सा पुदीने के ज्यूस का गिलास था और करीबी मित्र की पत्नी के साथ गप्पे शप्पें हो रही थी।मंटू और उसके पिता को एकसाथ देख दोनों को थोड़ी हैरानी हुई।गप्पें बीच में ही कहीं अधूरी जो लटक गई थी।

"अरे आप..! अचानक..क्या हुआ सब ठीक है?"मंटू की मम्मी की आँखें विस्मय से थोड़ी और बड़ी हो गई थी।

"पूछो अपनी लाडो से..मैडम साहिबा सीधे स्कूल पहुँच गई वो भी स्टाफरूम में..पहुंचते ही क्या गजब का गॉसिप टॉपिक छोड़ के आयी है..अब देखना कितने दिन तक वो लोग मुझे अपनी किस्सागोई का हिस्सा बनाएंगे..'मम्मी कहीं चली गई पापा'..!!"अध्यापक पिता एक ही सांस में सब बोल गए।

मंटू की 'गुम' हुई मम्मी और उसकी सहेली पेट पकड़ कर हँसने लगी।अध्यापक पिता का गुस्सा सातवें आसमान पर।

"पर ये आज इतने जल्दी कैसे आ गई।अभी तो इंटरवेल भी नहीं हुआ होगा!"मंटू की मम्मी नें कलाई घड़ी देखते हुए पूछा।

दोनों माता पिता मंटू को घूरने लगे।

मंटू अचकचाकर बोली,"पापा वो आज जल्दी छुट्टी हो गई।"

"जल्दी छुट्टी..यूँ अचानक ही..कोई जयंती या खास दिन भी नहीं..!"दिमाग पर जोर डालते हुए अध्यापक पिता नें कहा।

"अजी अब छोड़िए भी..चलिए घर चलते हैं।मंटू को भूख लगी होगी।"मंटू की मम्मी नें एलान किया।पुदीने का ज्यूस आधा छूटा रह गया साथ ही गॉसिप भी।

बमुश्किल मंटू का ये पांचवा दिन था स्कूल में।पांच दिनों में क्या क्या हुआ देखते हैं..

मंटू को स्कूल भेजने के लिए राजी करना आसान न था।अध्यापक पिता नें कई दिन पहले ही उसे मनाने की तैयारियां शुरू कर दी थी।या यूँ कहिए छोटी मोटी रिश्वत मंटू मैडम को रिझाने के लिए।

मंटू नें कहा जूते चाहिए तभी स्कूल जाएगी।

शहर की सबसे अच्छी जूतों की दुकान पर उसे ले जाया गया।

रैक में रखी सभी जूतों की जोड़ी का सिंहावलोकन करने के बाद मंटू की नजर एक जोड़ी जूते पर ठहर गई।बहुत ही खूबसूरत जूते थे किसी प्रसिद्ध ब्रांड के।जूतों पर उसके फेवरेट मिनी और मिकी माउस बने हुए थे।यक़ीनन जूते शानदार थे मगर ये पूरा अंदेशा था कि दाम भी बहुत शानदार होंगे!

अध्यापक पिता की अनुभवी आँखों में खौफ के बादल तैरने लगे।सर्दी में भी माथे पर पसीने की बूँदें झलक आयी।ये उन दिनों की बात है जब अध्यापकों की तनख्वाह चार अंकों तक ही सीमित थी।और गली मोहल्ले में अध्यापक मक्खीचूस नाम से ज्यादा जाने जाते थे।खैर इतने कम वेतन में कंजूस बन जाना स्वाभाविक था।

"बेटा ये देखो..कैनवास के कितने प्यारे जूते,कितना चटख लाल रंग है..हरे फीते..वाह इससे बेहतरीन जूते कहीं नहीं होंगे।"अध्यापक पिता मंटू की नजर मिकी और मिनी वाले जूतों से हटाने का भरसक प्रयास कर रहे थे।

लेकिन मंटू को जैसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था।जिन जूतों पर उसकी निगाह अटकी पड़ी थी उसमें बने मिनी और मिकी चीख चीखकर मंटू से कह रहे थे,"प्लीज हमें घर ले चलो..तुम्हे दुनियाभर की सैर कराएंगे।"

मंटू नें एलान कर दिया।जूता अगर चाहिए तो बस यही वरना कोई नहीं..वो सीधे दुकान की जमीन पर धरना डाल के बैठ गई।

अध्यापक पिता की जुबान पे ताला लग गया था पर फिर भी पूछना तो था ही।दबी जुबान से जूते के दाम पूछे।

"सौ रुपया मात्र!" मौके की नजाकत पर चौका मारते दुकानदार नें कहा।

"क्या !!! सौ रुपया..? इतने में तो कई जोड़ी जूते आ जाएंगे।बच्ची ही तो है।सही सही लगाओ दाम।"माथे से पसीना पोंछते अध्यापक पिता नें कहा।

हाँ,तो दूसरा पीस ले लो न..!ये लीजिए कैनवास के बढ़िया जूते मात्र चालीस रुपया।"

अध्यापक पिता कातर निगाहों से मंटू को देखने लगे कि अब कर्ता धर्ता यही है।

लेकिन मंटू तो भई मंटू है..एक बार कोई चीज पसंद आ गई तो अंगद के पांव की तरह इंच मात्र भी नहीं हिलती।

"पूरी अपनी माँ पे गई है.."।मन ही मन बड़बड़ाते हुए अध्यापक पिता नें कहा।

"ठीक है वही दे दो जो बिटिया को पसंद आ रहे हैं।"

मंटू खुश।मिनी और मिकी उससे भी ज्यादा खुश।

"और कुछ?" अध्यापक पिता नें ठंडी सांस भरते हुए पूछा।

"एक घड़ी भी.."

"क्या!!..तुझे टाइम देखना तक ठीक से नहीं आता।घड़ी का क्या करेगी।"

"पापा.. आप स्कूल जाते हो तब घड़ी पहनते हो न..?"

"हाँ.. पर मेरी बात अलग है।"

"क्यों अलग है..मैं भी तो स्कूल जाऊंगी न कल से..सोच लो स्कूल भेजना है कि नहीं..!"कनखियों से देखते हुए मंटू नें अपनी बात रखी।

खैर,दोनों घर आ गए।मंटू की नन्ही कलाई में चमकीली रंग बिरंगी प्यारी सी घड़ी थी।और अध्यापक पिता के मुँह की घड़ी बारह बजा रही थी।

मंटू के स्कूल का पहला दिन।

मंटू से कोई बात नहीं कर रहा।मंटू भी किसी से बात नहीं कर रही।

"बड़ा ही बेकार होता है ये स्कूल विस्कुल..कमरे में बिठा दिया एक जगह।उठ के खड़े हो जाओ तो टीचर की डांट सुनो।ये भी कोई बात हुई।सब मेरी घड़ी की ओर ही देखे जा रहे हैं।चोरी हो गई तो..मम्मी नें बोला था संभाल के रखना।बैग में रख लेती हूँ अंदर बंद करके।फिर कोई नहीं ले पायेगा।"

घर पहुंचकर सब मंटू से पूछे जा रहे थे।घड़ी कहाँ रखी थी।किसने ली..वगैरह वगैरह।मंटू चुपचाप सुने जा रही थी।उसे याद नहीं उसने घड़ी निकाल कर बैग में रखी या ज्योमेट्री में।कहीं नहीं मिल रही थी।

मंटू को स्कूल बेकार लगा।

दूसरे दिन मंटू नें घर आकर अपने अध्यापक पिता को प्रवचन सुना दिया।वही प्रवचन जो वो अपने टीचर से सुनकर आयी थी।

अध्यापक पिता युवा थे।नया नया सिगरेट शुरू करने का सोचा ही था।अलमारी में दो सिगरेट रखी थी जो मंटू की खुफिया नजर से बच नहीं सकी।फौरन पापा को प्रवचन दे डाला।"पापा हमारी टीचर कहती है,सिगरेट पीना बुरी बात होती है,जिनके पापा सिगरेट पीते हैं वो गंदे होते हैं।और आप तो मेरे अच्छे पापा हो न..!"

इमोशनल प्रवचन से अध्यापक पिता द्रवित हो गए।अपनी गलती का एहसास हुआ।मंटू के सामने ही सिगरेट तोड़ के फेंक दी।और कभी न पीने का प्रॉमिस भी दिया।

पता नहीं क्यों उस दिन अध्यापक पिता को मंटू पर बहुत स्नेह आया।

तीसरा दिन।

मंटू स्कूल की सीढ़ियों पर धूप में काफी देर खड़ी रही।ये सोचकर कि कोई तो अंदर आने को बोलेगा मंटू को पर किसी नें नहीं बोला।सब ऐसे गुजर रहे थे आसपास से जैसे कि मंटू दिखाई ही नहीं दे रही थी।किसी को कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था।मंटू के पांव धूप में चमक रहे थे अब उनमें जलन होनी शुरू हो गई।हारकर मंटू को खुद ही अंदर जाना पड़ा।

चौथा दिन।

मंटू को एक दोस्त मिल ही गई आख़िरकार।हुआ यूं कि नई दोस्त के पास कुछ ऐसा था कि मंटू खुद को रोक न पाई।उसने अपना 'ईगो' तोड़कर खुद से चलकर नई दोस्त से बात की।दोस्ती का प्रस्ताव भी रखा।

अब वो आयी मुद्दे पर।

मंटू की नई दोस्त के पास एक बहुत ही आकर्षक पेंसिल थी जिसके पीछे वाले हिस्से पर एक छोटा सा चेहरा बना हुआ था।बिल्कुल टीवी में दिखने वाले शकालाका बूम बूम की पेंसिल जैसा।वही पेंसिल जिससे कुछ भी बनाओ कागज पर वो हुबहू कागज से निकल हमारे सामने आ जाता है।ऐसा टीवी प्रोग्राम में दिखाते थे।

मंटू नें कन्फर्म करने के लिए पूछा,"क्या ये वही पेंसिल है..शकालाका बूम बूम वाली ?"

"और नहीं तो क्या.."नई दोस्त नें आँखें मटकाते हुए कहा।

"विद्या कसम खाओ..।"किताब में रखे बुलबुल के पंख पर हाथ रखकर मंटू नें पूछा।

"अल्ला की कसम..।"

"अरे मैं विद्या की कसम बोल रही हूँ तू अल्ला की कसम खा रही है।"

"अल्ला ही तो विद्या देता है।"

"चल ठीक है..भगवान की कसम खा फिर..।"

"बोला न अल्ला और भगवान एक ही होते हैं।"

"अच्छा !! पापा से पूछुंगी शाम को।"मंटू नें कन्फ्यूज होकर कहा।

"अच्छा सुन,आज आज के लिए मुझे अपनी ये पेंसिल देगी,मेरे को कुछ चीजें बनानी है फिर मैं तुझे वापस दे दूँगी।"

"क्या बनाएगी..?"

"कुछ नहीं..बस तू दे दे एक दिन के लिए।"

"हम्म..मेरे पास घर पे गोल्डन कलर का स्केच पैन भी है।पापा कल ही लाये थे सूरत से।तू कहे तो वो भी मैं तुझे दे सकती हूँ।"

"क्या..!गोल्डन स्केच पैन ? मैनें तो कभी नहीं देखा।प्लीज ला देना..प्लीज।"मंटू की आँखें खुशी से चमक उठी।

"हम्म पर एक शर्त है।मैं जो कहूँ वो करना पड़ेगा।"नई दोस्त नें सिक्का उछाला।

"तू जो भी कहे मैं करने को तैयार हूँ।"

"तो ठीक है।स्कूल के बाहर जो कीचड़ वाला गड्ढा है न..उसमें सात बार पांव रखना होगा।"

"ये क्या है..सात बार कीचड़ में पांव ?"

"हाँ ये एक तरह का सीक्रेट है।इसी से वो मैजिक पेंसिल काम करेगी।"

दोनों स्कूल के बाहर गड्ढे के पास खड़ी थी।मंटू गौर से कीचड़ देखे जा रही थी।फिर उसे पेंसिल याद आयी और पेंसिल से बनने वाले उसके प्यारे दादू जो तीन महीने पहले ही गुजरे थे,याद आये।उसके बाद उसने ज्यादा नहीं सोचा।सीधे कीचड़ में पांव डाला।पहली बार अजीब सी बदबूदार झनझनाहट हुई जो पूरे बदन में बिजली की तरह कौंधी।लेकिन दादू से प्रेम सच्चा था।वो एक एक कर सातों बार कीचड़ में पांव रखती गई।

अंतिम पांव रखने के बाद कीचड़ से लतपथ जब मंटू नें पेंसिल देने को पूछा तो जोर का ठहाका सुनाई दिया।

"पागल,ऐसी वैसी कोई मैजिक पेंसिल सच में थोड़े ही होती है।कितनी बड़ी वाली बुद्धू है रे तू!उल्लू बनाया बड़ा मजा आया।"गाती गुनगुनाती ठहाके लगाती नई दोस्त वहाँ से चली गई।पीछे रह गई मंटू।कीचड़ में सनी हुई।उसे अबकि बार लगा जैसे किसी नें ऊपर से नीचे तक उसे कीचड़ में नहला दिया।मंटू को अपने दादू बहुत याद आये।

पांचवा दिन।

मंटू नें दिमाग लगाया।स्कूल नाम की बला से बचने का बस यही एक उपाय रह गया।

मंटू का स्कूल घर से चंद कदम ही दूर था।लेकिन इन चंद कदमों से पहले उसकी दोस्त का घर बीच में आता था।जिसके घर के बाहर बरामदे में बनी कॉर्नर की एक छोटी सी खुफिया जगह में मंटू को एक आइडिया मिला।

"मैं अब यहीं छुप जाया करूँगी।और जब स्कूल की छुट्टी का टाइम होगा तब घर चली जाऊंगी।"

मंटू नें खुद से कहा।

मंटू नें यही किया।उस खुफिया जगह में मुश्किल से आधा घंटा बिताया होगा उसे लगा कितना ज्यादा समय हो गया अभी तक कोई बच्चा स्कूल से बाहर क्यों नहीं आ रहा!

अब मंटू के लिए रुक पाना नामुमकिन था।उसे लग रहा था इससे अच्छा तो स्कूल था यहाँ तो बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा।

और इस तरह मंटू मम्मी की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने पापा के स्कूल आयी थी।


-अल्पना नागर



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