Sunday 19 July 2020

कहानी - अलगाव

कहानी
अलगाव

माई डियर हसबैंड,
ये कहानी शुरू हुई थी तुमसे पर हर एक आम कहानी की तरह मैं इसे यूँ ही खत्म नहीं होने दूँगी।आख़िर पत्नी हूँ तुम्हारी,अभी हक़ बनता है मेरा तुम पर।आज मन हुआ तुम्हें ख़त लिखूँ, पन्नों पर उड़ेल दूँ,खाली कर दूँ खुद को पूरी तरह..खैर खाली तो बहुत पहले हो चुकी हूँ, अभी भी कुछ जज्बात हैं जो चिपके हुए हैं रूह से,सोच रही हूँ आज उन्हें भी बाहर का रास्ता दिखा दूँ ! ख़त कौन लिखता है आज के डिजिटल जमाने में.. किसे फुर्सत है कि बैठ कर अक्षर अक्षर मोती पिरोकर माला बनाई जाए,वो भी इस दौर में जहाँ हर चीज़ रेडीमेड मिलती है।मेरी अजीबोगरीब आदतों की तरह इसे भी मेरी एक सनक मानकर पढ़ लेना..फुर्सत निकालकर..न न जबरदस्ती बिल्कुल नहीं है फिर भी आख़िरी निशानी मानकर सरसरी नज़र दौड़ा लेना।मुझे अच्छा लगेगा।
मैं ख़त के जरिये तुम्हें पुरानी यादों के घने जंगल में ले जाकर छोड़ने वाली नहीं हूँ,वैसे भी वो जंगल आज आखिरी सांस ले रहा है ! वो पेड़ जो हमने बड़े यत्न से साथ साथ लगाए थे,सूखकर ठूँठ हो चुके हैं।अपराजिता के नीले फूल अब खिलना भूल गए हैं..तुम्हारी धूप जो नहीं आती अब !
जंगल छोड़ो..आजकल बालकनी में मन बहलाती हूँ।तुम्हारी लगाई मनी प्लांट को सींचती रहती हूँ।बड़ी ही जिद्दी किस्म की बेल है,कहीं भी उग आती है..इसे न तो जरूरत है धूप की और न ही दालान भर मिट्टी की।ये खुश है मेरी तरह एक छोटी सी पानी की बोतल में।हरियाली का अहसास कराती है।मेरी बालकनी भर दुनिया में कुछ बोनसाई पौधे भी हैं।कभी सोचा नहीं था कि भरे पूरे पेड़ों को चाहने वाली ये लड़की बोनसाई से अपना मन बहलायेगी..! किसने सोचा था कि उसे मनचाहा आकार देने के लिए जड़ों पर कैंची चलानी होगी..पर मैं कर रही हूँ इन दिनों..! मेरी बालकनी में आ जाती है सुबह शाम तुम्हारी यादों की मुट्ठी भर धूप..बोनसाई को और क्या चाहिए ! खैर मैं भी कहाँ पेड़ पौधों की बातें करने लगी..तुम्हें तो पसंद ही नहीं थे ये सब।
तुम्हें दिलचस्पी तो नहीं होगी मेरी खुशी या नाखुशी जानने में ! फिर भी बता देती हूँ..खुश हूँ मैं आजकल.. रंगों के साथ अच्छी बनती है मेरी।मैं तो लगभग भूल ही गई थी कि रंग कभी जिंदगी हुआ करते थे मेरी।चटख रंगों से प्रेम था मुझे..मुझे लगता था हर रंग सच्चा है..जो जैसा दिखता है सचमुच अच्छा है ! खैर अनुभव नें सिखाया, रंगों के भी अपने चेहरे हैं..तासीर है..मिज़ाज हैं।हर खूबसूरत रंग किन्हीं दो अलग रंगों का सम्मिश्रण है..नजरें चाहिए होती हैं उन्हें सही से पहचानने के लिए।अनुभव नें ही सिखाया कि रंग यूँ ही नहीं उभरकर आते,पृष्ठभूमि का गहरा होना अत्यंत आवश्यक है ! मेरे रंग भी बैकग्राउंड के गहरा होने की प्रतीक्षा में थे शायद..अभी अच्छी तरह उभरकर आ रहे हैं।शुक्रिया इसमें तुम्हारा योगदान अतुलनीय है।
मिनिएचर पेंटिंग में सिद्धहस्त होना एक दिन का कार्य नहीं।एक लघु संसार बुनना होता है अपने इर्द गिर्द।उस लघु चित्र की तरह बेहद लघु होकर ढालना होता है खुद को..रंगों को.. एक एक कर।मेरा इरादा कभी नहीं था कि अपनी अभिरुचि को आय का साधन बनाऊं लेकिन कर रही हूँ.. इसने रोजी रोटी दी,पहचान दी..जीने का संबल दिया।आजकल समय का अभाव नहीं है..तुम जो नहीं हो।तुम थे तो दुनिया तुम तक ही सीमित थी..अपनी अभिरुचियों को विवाह के अग्नि कुंड में ही प्रवाहित कर चुकी थी।मेरे लिए बस तुम थे..मेरा जीवन..मेरा ध्येय..मेरा विस्तार.. बस तुम्हारे आगे पीछे..दाएं बाएं हर समय तुम्हे खुश देखने का प्रयास करती थी..इतना कि चिढ़ जाते थे तुम मुझसे ! ज्यामिति के डायमीटर की तरह मेरी परिधि कितनी भी दूर तक जाए एक पैर तुम्हारे केंद्र में ही होता था। ये बात अलग है कि अब तुमने डायमीटर को ही विभाजित करने का फैसला लिया है ! फिर भी मेरी आत्मिक धुरी का केंद्र बिंदु आज भी तुम ही हो।
तुम्हारी इच्छा के मुताबिक हमें अलग रहते हुए छह माह से ऊपर हो गए हैं।मैं पहले भी तुम्हारे रास्ते में नहीं आती थी और न ही कभी आगे आऊँगी।तुम अपना लगभग सारा सामान लेकर जा चुके हो।कुछ बचा तो मैं भिजवा दूँगी।एक दीवार घड़ी है जो हमनें साथ में खरीदी थी..जो ठीक शाम के छह बजते ही मुस्कुराया करती थी ! शायद तुम ले जाना भूल गए।याद है उसमें दो नन्हीं चिड़िया निकल कर आती थी हर घंटे पर चौकीदार सी..हमने सपनें बुनना शुरू कर दिया था घर में फुदकती दो नन्हीं चिड़िया का..! तुम बताना मुझे उसे लेकर जाना चाहते हो या नहीं..! मेरा समय तो कब का ठहर चुका है ! कमबख्त ये घड़ी भागी जाती है..बचे खुचे अहसास स्मरण कराने को !
आजकल मैं भी तीखा मसालेदार खाने लगी हूँ।तुम्हें यकीन नहीं हो रहा न..वो जो जरा सी मिर्च लगने पर पूरा घर सर पर उठा लेती थी आज मसालों की बात कर रही है ! मेरे व्यक्तित्व की तरह मैं भी बेहद सादा थी,मुझे अहसास भी नहीं था कि खिचड़ी भले ही स्वास्थ्यकर हो मगर रोज रोज खाएंगे तो बोरियत ही होगी न ! तुम ठहरे बिरयानी वाले..अजीब सा संगम था फिर भी मैं तुम्हारी खातिर सीख ही गई थी मजेदार बिरयानी बनाना भी,ये बात अलग है आज खाने भी लगी हूँ।जमाने जैसी होने लगी हूँ.. तुम पहचान नहीं पाओगे मुझे ! खैर, तासीर आज भी मेरी सादा है,मैं चाहकर भी तुम्हारी मिस स्वीटी जैसी चटपटी नहीं हो सकती !
उस रोज शायद अंतिम बातचीत के लिए तुमने फोन किया था।बातचीत तो अरसे से बंद थी अब तो सिर्फ उसके औपचारिक अवशेष बचे थे उन्हीं की इतिश्री के लिए तुमने बात करनी चाही मुझसे..मगर हे ईश्वर ! कोई है जो नहीं चाहता कि हमारे बीच पूर्णतः सब कुछ विखंडित हो जाये,शायद इसीलिए उस रोज तुम्हारी आवाज़ के हल्के से कंपन में भी तुम्हारी तबियत के बारे में जान चुकी थी।तुम्हारे हाथ से फोन छूटते ही मेरे हृदय की धड़कनें भागने लगी..कुछ गिरने की आवाज आई।मैंने कुछ नहीं सोचा बस तुम्हारे पास आने का खयाल आया।शुक्र है आज तक भी हमारे फ्लैट की एक चाभी मेरे पास भी है।तुम बेसुध पड़े थे जमीन पर..पास ही तुम्हारा फोन बज रहा था बार बार..मिस स्वीटी की कॉल थी।उठाना नहीं चाहती थी मगर उठा लिया..उसे बताया तुम्हारे बारे में..अब वही तो है जो मेरे बाद तुम्हारा खयाल रखती है !
तुम्हारी स्थिति बिगड़ रही थी।चार दिन लगातार एडमिट रहने के बाद मैंने फैसला किया कि अपनी एक किडनी तुम्हें दे दूँ..यही एक रास्ता बचा था..खैर मुझे कोई परेशानी नहीं..कम से कम तसल्ली रहेगी कि मेरा कुछ तो है जो जिंदगी भर तुम्हारे साथ रहेगा..!मैंने कहा था न कोई है जो नहीं चाहता कि हम पूर्णतः विखंडित हो जायें ! मेरे कहने का मतलब फिर से एक होने का नहीं है..बिल्कुल चिंता मत करो..मैं फिर से तुम्हारी जिंदगी में वापस जबरदस्ती घुसने का कोई इरादा नहीं रखती।मैं सचमुच अब खुश हूँ अपनी लघु दुनिया में.. कई बार हम ईश्वर के संकेत समझ नहीं पाते और जो कुछ भी गलत घट रहा होता है उसके लिए बेवजह उसे जिम्मेदार ठहरा देते हैं जबकि हक़ीकत इससे बिल्कुल परे है..! ईश्वर हर हाल में हमारा शुभ ही चाहता है..उसी ईश्वर नें मुझे राह दिखायी..मेरे अंदर छिपे कलाकार को बाहर लेकर आया।मुझे आत्मनिर्भर होना सिखाया।मैं सचमुच बेहद शुक्रगुजार हूँ उस ईश्वर के साथ साथ तुम्हारी भी..! मैंने कोई अहसान नहीं किया तुमपर..बल्कि ये अहसान मेरा मुझपर है..इस बहाने तुमसे मेरा आत्मिक संबंध प्रगाढ़ ही होगा भले ही इकतरफा हो ! तुमसे मेरा सात फेरों का संबंध है,इतनी आसानी से पीछा छूटने वाला नहीं..कागज के चार टुकड़े और एक हस्ताक्षर क्या सचमुच अलगाव के लिए काफी हैं ? शरीर तो माध्यम भर था आत्मिक जुड़ाव का..उसकी परवाह तो न मुझे कल थी और न कभी रहेगी।लेकिन हाँ, विभाजित हुआ डायमीटर पुनः उसी अवस्था में पहले की तरह जोड़ पाना मेरे लिए असंभव होगा..! ये बात भी सच है कि आज भी मेरी धुरी तुम ही हो.. बस मैंने अपना विस्तार परिधि से कहीं आगे कर लिया है। कभी किसी मोड़ पर अगर जरूरत महसूस हो तो हृदय से आवाज देना मैं चली आऊँगी।
मिस स्वीटी को फोन करने का कई बार प्रयास किया मगर हर बार उनका नम्बर बंद बता रहा है।सोचा इत्तला कर दूँ कि तुम अब ठीक हो..सुरक्षित हो..खैर कोई बात नहीं..!
खयाल रखना अपना।
अलविदा !

अल्पना नागर




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