Thursday 2 July 2020

माटी

माटी

हम कुम्हार हैं
अपनी माटी के..!
समय चाक पर गढ़ते हैं
ताउम्र खुद को,
माटी के चयन से लेकर
पानी के समुचित मिश्रण तक
रखनी होती है
प्रतिक्षण सावधानी..
थपकी लगानी होती है
भीतर से
आत्मचिंतन की..
कहाँ होता है आसान
व्यक्तित्व को गढ़ना !
जरा सी चूक
और रह जाता है
अधपका जीवन..
पड़ जाती है दरार
समूचे अस्तित्व में !
कच्चे से पक्का होना
एक क्षण का
बदलाव नहीं...
मिट्टी के ढेले से
घड़े तक की यात्रा
सोपान है परिवर्तन का..
यूँ ही नहीं होता
निमार्ण समय का,
गुजरना होता है
अग्नि स्नान की प्रकिया से..!
भरना होता है स्वयं को आकंठ
परहित उदात्त मधुर जल से
यही स्वभाव है
मिट्टी का..
यही जीवन है !

अल्पना नागर

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