चलो अच्छा है,
कम से कम बारिशें नहीं जानती
दुनियावी सलीके
ये करती है
कहीं से भी घुसपैठ
मानो घूम रहा हो
हाथ फैलाये
शरारती कोई रॉकेट बच्चा/
खिड़की के इस पार
सांकल तोड़
भीगने लगता है तरल मन
छूट जाती है
सूखी देह
खिड़की के उस पार ही कहीं..!
बारिश के बादल
घुमड़ने लगते हैं
उम्रदराज़ आँखों में/
मन की दरकती ज़मीन पर
भरने लगती हैं दरारें
नम होने लगते हैं
धरती की कोख में
अलसाये पड़े
बंजर स्वप्न..
न जाने क्या क्या उगने लगता है
आँखों की कोरों में
और ये सब होता है
बारिश के जमीन पर पांव रखने से
बहुत पहले..!
-अल्पना नागर
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