Friday 17 June 2022

हमसाया

 हमसाया


ठहरा हुआ समय 

उस रोज़ जरा रिसते हुऐ गुजरा ,


रुधिर से

शिराओं तक 

गुजरते वक़्त को महसूस 

करता हुआ अवचेतन 

जानता है सृष्टि का नियम 

विगत कब लौट कर आता है..

सिवाय क्षणिक स्मृतियों के !!


इंतजार में बोझिल दिन को 

पलकों से उतारनें की

कोशिश में ओढ़ के बैठी थी 

कुछ धुंधले लम्हों की

गरम शॉल,

कुछ लम्हे अभी भी 

बालकनी में धूल सनी टेबल पर

टिके हुऐ थे..


नज़रें देर तक दिनकर को 

ओझल होते देख रही थी 

शून्य को निहारती निर्निमेष नज़रें..

लालिमा घिर आई थी 

आसमां में ,

आँखों के कोरों में...!


उस रोज़ शाम जरा देर से आई ,

स्मृतियों के उठते भँवर में 

सिनेमा के फ्लैशबैक की तरह 

तैरने लगे 

कुछ ब्लैक एंड व्हाईट दृश्य 

आँखों के सामने,

अवसाद के बेहिसाब टुकड़ों की 

आवाजाही के बीच 

मौन से भिड़ती हुई चेतना 

चुभते हुऐ अलंकारों को उतार

तैरने लगी शब्दों की नदी में,

किनारे तक पहुँचने की 

जद्दोजहद में 

निःशब्द,संवेगशून्य सी 

दूर तक बह निकली..


तभी कलम नें हौले से 

हाथ थामा 

मानो कह रही हो 

"मैं तुम्हारी हमसाया हूँ 

मुझे खुद से दूर न किया करो "


-अल्पना नागर


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