Thursday 15 March 2018

जीवन-मरण

जीवन -मरण

जीवन मृत्यु ये दो शब्द ऐसे हैं जिनपर प्रत्येक विचारक,चिंतक या मनुष्य नें कभी न कभी विचार किया है।क्या है जीवन और क्या है मृत्यु? इस अदने से सवाल नें सदियों से इंसान की उलझन को बरक़रार रखा है किंतु फिर भी प्रश्न का उत्तर पूर्णतया नहीं मिल पाया है।कारण, जो कुछ भी हम अपनी दृष्टि के सामने घटित होते देखते हैं उसे ही सत्य मानते है लेकिन जीवन मृत्यु का विषय हमारी दृष्टि से परे है।ज्ञातव्य है कि जो भी जीव इस नश्वर संसार में आता है उसे एक न एक दिन जाना होता है।संसार में आगमन को जीवन व निगमन को मृत्यु माना गया है।किंतु क्या यह सत्य है?भौतिक शरीर के त्यागने के उपरान्त भी दिवंगत व्यक्ति हमारी स्मृतियों में जीवंत रहता है।उससे जुड़ी स्मृतियां बारम्बार अवसर विशेष पर या बिना अवसर हमें उसके जीवित होने का आभास कराती हैं।इस तरह से तो जीवन मृत्यु की विचारधारा पर प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है।
विचारक गेब्रियल गार्सिया मार्खेज के अनुसार "मनुष्य सिर्फ उस रोज पैदा नहीं होता, जब माँ उसे जन्म देती है,जीवन उसे बार बार यह अवसर देता है कि वह जन्म ले।"
अर्थात जन्म लेने की प्रकिया आजीवन चलती रहती रहती है।यह एक अनवरत क्रिया है।दार्शनिक आधार पर अगर समझें तो सही मायने में जीवन अज्ञान की सीमाओं को तोड़ने की प्रक्रिया है,चेतना का प्रयोग करते हुए सत्य असत्य को पहचानते हुए एक दिशा में जाने का प्रयास है।मनुष्य एकमात्र ऐसी प्रजाति है जिसमें जीवन और मृत्यु से परे असीम संभावनाएं हैं,किन्तु भौतिक लालसाओं व अहंकार का कोहरा जब चेतना को आवृत कर लेता है,हमारी संभावनाएं सीमित होती जाती हैं।हम अंतर्मन के कपाट बंद कर बाह्य दृष्टि से देखना शुरू करते हैं,जिह्वा के संपर्क में जो भी आता है वही हमारी जिह्वा के अनुभव तक सीमित होता है,हमारी त्वचा भी बाह्य संपर्क में आयी वस्तुओं को ही महसूस कर पाती है।जब तक हमारी चेतना पर अज्ञानता का कोहरा विद्यमान रहता है,हम आधी जागृत और आधी अचेतन अवस्था में रहते हैं।यही मृत्य की प्रारंभिक अवस्था है,जो आधुनिकता की होड़ में सड़क पर घायल इंसान को देखकर भी आँख मूंदकर निकलने को प्रेरित करती है।नेत्रहीन व्यक्ति जरुरी नहीं कि अँधा हो,उसकी अंतर्दृष्टि का प्रकाश समस्त संसार को आलोकित कर सकता है।संसार ऐसे महान लोगों से कई बार लाभान्वित हो चुका है,किन्तु सत्य व विवेक से हीन व्यक्ति नेत्रवान होकर भी अँधा ही कहलायेगा।यही बात जीवन व मृत्यु के सन्दर्भ में भी है।जीने को तो हम सभी जीवित हैं लेकिन सही अर्थों में वही जीवित है जिसने जीवन के अर्थ को ढूंढ़ने का प्रयत्न किया।प्रत्येक इंसान की जिंदगी का लक्ष्य भिन्न है।कई बार हमें जीवन के कड़वे अनुभवों से अर्थ प्राप्त होता है।कुछ समय पूर्व अखबारों में यह खबर चर्चित रही थी,एक पिता अपने पुत्र की सड़क दुर्घटना से हुई मृत्यु से आहत होकर शहर भर की गलियों में ढूंढ ढूंढकर गड्ढ़े भरता है,ताकि फिर से किसी और पिता को अपना पुत्र न गंवाना पड़े।उस दुखद घटना नें एक पिता को जीवन का उद्देश्य दिया भले ही कड़वे अनुभव के साथ।जीवन में अर्थ की तलाश के लिए या स्वयं की तलाश के लिए एक जापानी शब्द है 'इकिगई'।इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति विशेष का कोई न कोई 'इकिगई' अवश्य होता है जो जीने के लिए अनिवार्य प्रेरणा प्रदान करता है।अर्थविहीन व्यक्ति लगभग चेतना विहीन व्यक्ति होता है,जो जागते हुए भी सुप्त अवस्था में रहता है।यही मृत्यु है जो व्यक्ति के विवेक को नष्ट कर अपराध की ओर अग्रसर करती है।
मनुष्य जीवन वो मिट्टी का घरौंदा है जिसे एक न एक दिन मृत्यु अर्थात लंबी निद्रा चिरकाल के लिए बहा ले जाएगी और पुनः एक नए उद्देश्य के साथ नए रूप में,नए आवरण के साथ किनारे पर ले आएगी।जीवन मृत्यु का यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है।जीवन एक विचार है जो कभी नष्ट नहीं होता है।यह एक पिता का वो अधूरा सपना है जो वह अपनी संतानों में फलीभूत होते देखना चाहता है,जीवन वो बीज है जो विशालकाय वृक्ष के नष्ट होने पर पुनः अंकुरित होता है,कठिन से कठिन परिस्थितियों की जमीन को भी तोड़कर एक नए संकल्प के साथ अंकुरित होता है।जीवन वह मिट्टी है जो कभी पंचतत्व के सम्मिलन से शरीर हुआ करती थी,वही मिट्टी वृक्षों में परिवर्तित होकर फल का आकार लेती है और पुनः ऊर्जा के रूप में इसी संसार में विद्यमान रहती है।मृत्यु भी एक विचार है,एक दीर्घकालिक अँधेरा जो सत्य व विवेक को अपनी आगोश में समा लेता है।मृत्यु हमेशा शरीर का निष्क्रिय होना नहीं है,अपितु चेतना का निष्क्रिय होना है।जीवन शरीर व चेतना का सम्मिलित रूप है,चेतना की अनुपस्थिति ही मृत्यु है।किंतु दुर्भाग्य से चेतना के विकृत होने पर हम शरीर के अधूरेपन को हमारी बाह्य इंद्रियों से अनुभव नहीं कर पाते।मृत्यु अगर एक सूखा दरख़्त है तो उस पर हौसलों की नन्हीं पत्तियां ही जीवन हैं,जिसे हमें हर दिन अपनी जिजीविषा व विवेक से सींचकर हरा रखना होगा,अन्यथा पूर्व अवस्था में लौटने में समय ही कितना लगता है !जीवन में अगर जीवित मृत्यु से बचे रहना है तो सर्वप्रथम स्वयं को खोजना होगा,जीवन के निहित उद्देश्यों को खोजना होगा।जीवन गणित की तरह उलझा हुआ हिसाब कदापि नहीं है,इसे हम हर दिन महसूस कर सकते हैं,अपने आसपास के प्राकृतिक संगीत को ध्यानपूर्वक सुनकर या कभी यूँ ही किसी जरूरतमंद की तरफ मदद का हाथ बढ़ाकर,किसी बच्चे की मासूम खिलखिलाहट में दिनभर की नकारात्मक ऊर्जा को भुलाकर या थोड़ी देर अपना पसंदीदा काम करके।जीवन सर्वथा एक जैसा नहीं रहता,वह हमेशा आगे की ओर बढ़ता है,हर दिन के साथ जीवन रूपी उपन्यास में नया अध्याय ,नया पृष्ठ जुड़ता जाता है,तो क्यों न हम भी अतीत की परछाइयों से बाहर आकर जीवन को उसी के रूप में प्रफुल्लित होकर स्वीकार करें।मृत्यु रूपी छाया स्वतः दूर होती जाएगी,चेतना पर आवृत कोहरा विवेक रूपी प्रकाश के आने से छंटता नजर आएगा।भय व चिंता के चश्मे की कभी आवश्यकता नहीं पड़ेगी।जीवन की दिशाएं स्पष्ट दिखाई देने लगेंगी।

अल्पना नागर

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