Thursday 28 May 2020

प्रतिकृति

प्रतिकृति

चित्रकार तो नहीं हूँ मगर
रंग खींचते हैं
अपनी ओर,
अनायास ही
उठा लेती हूँ
तुलिकायें,
किसी अनगढ़ की तरह
उकेरने लगती हूँ
आड़ी तिरछी रेखाएं
मन के कैनवास पर,
करती हूँ
सैंकड़ों बार परिवर्तन
जब तक हो न जाऊँ
पूर्णतः संतुष्ट!
किन्तु हर बार
अधूरी लगती है
रेखाएं,
छूट जाता है
कोई न कोई रंग,
मेल नहीं खाता
परिकल्पनाओं की
प्रतिकृति से,
कैसे कहूँ कि
उकेरना चाहती हूँ
सारा आकाश
उड़ेलना चाहती हूँ
सारी नदियां
एक अदने से
कैनवास पर!
अंततः
भरने लगता है
कैनवास..
जैसे भर जाते हैं
बादल,
भीषण गर्मी की
पराकाष्ठा के बाद!
और फिर
बिखरे होते हैं रंग
बूंदों के माफ़िक
यहाँ वहाँ..
बिखरी होती हूँ मैं
कैनवास पर
बेतरतीब सी!
रंगों की ऊहापोह के मध्य
शिख से पैर तक
सराबोर!
किन्तु फिर भी
न जाने क्यों
संतुष्ट नहीं हो पाती
अपनी ही बनाई
कृति से!
हार जाती हूँ
उस चित्रकार से
जो गढ़ रहा होता है
प्रतिक्षण मेरा जीवन..
मेरे कैनवास पर
अक्सर उभर आती हैं
उसकी
मनमर्जियाँ!

अल्पना नागर

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