Tuesday 20 December 2016

धूप

धूप

वो आती है
शनै शनै
अलमस्त चाल चलते हुऐ
सुनहरी पायल छनकाते
अल्हड़ स्वप्नों की गरमाहट समेटे
शहर की चुनिंदा
बेजान इमारतों को
अनदेखा करते हुऐ
टावर और मॉल्स से
फिसलती हुई..
वो आती है रोज़
खुले मैदानों में लकड़ियां बीनते
अधनंगे..नंग धड़ंग
नन्हें बादशाहों के बीच,
उसे पसंद है
खपरैलों में ज़िंदगी बुनते
बेखौफ श्रमिक हाथ ,
वो चमकती है उन्हीं के भाल पर
मृदुल पसीने की बूँद बन,
छोड़ जाती है वो
अपनी उपस्थिति
तुलसी के चौरे पर
संध्या की शुचिर बाती में..
धुएँ से मंद मंद जलते
अलाव वाली
कड़ाके की ठंड भरी रात्रि में,
वो पहुँच जाती है
धान के खेतों पर
सूखी रोटी और प्याज के
चटखारे लेती
मेहनतकश औरतों से
बतियाने,
उनके नन्हें शहजादों संग
अठ्खेलियाँ करती हुई
मुस्कान का एक कतरा
छोड़ जाती है,
धूप है वो..
उसे कहाँ भाती है
अकूत दौलत की
एयरकंडीशंड छाँव !

अल्पना नागर

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