Thursday, 22 December 2016

लघुकथा -भ्रम

लघुकथा
भ्रम

मधुरिमा आज सुबह से ही बहुत बेचैन नज़र आ रही थी।रात भर नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी।वो लगातर घड़ी देखे जा रही थी...आज समय भी बहुत धीमी गति से गुजर रहा था,बार बार उसे घड़ी रुकने का भ्रम हो रहा था।10 बजते ही कॉलेज जाने के लिये उसने ऑटो लिया,1 बजे अध्यापन से मुक्त होकर बिना एक क्षण की भी देरी के वह नियत स्थान गुलाब गार्डन में दिये गये समय से 15 मिनट पहले ही पहुँच गई थी।"आज के युग में प्रेम वासना और भ्रम से इतर कुछ भी नहीं.."अपनी सह अध्यापिका मित्र की कही बात आज उसे बेमानी नज़र आ रही थी।फेसबुक पर अनिमेष की कही एक एक बात मधुरिमा के जेहन में ताज़ा हवा के झोंके की तरह बार बार दस्तक दे रही थी।एक अरसे बाद उसे अपने पैरों में आत्मविश्वास के अदृश्य पंख लगे महसूस हुऐ।वो अनिमेष के बनाये इंद्रधनुषी आसमां में खुद को उड़ते हुऐ देख रही थी..आज मधुरिमा को अपना अपंग होना किंचित मात्र भी अखर नहीं  रहा था।
"अनिमेष तुम मुझे बिना देखे.. बिना मिले इतना बड़ा फैसला कैसे ले सकते हो.? क्या जानते हो मेरे बारे में?कहीं तुम्हें अपने फैसले पर पछतावा न हो!"
"मधु मैं तुम्हें कैसे यकीन दिलाऊँ...मैं सच में तुमसे बेहद प्यार करता हूँ।हाँ यथार्थ में मैंने तुम्हें कभी नहीं देखा पर मेरे मन के दर्पण में रोज़ तुम्हारी ही छवि होती है..तुम सचमुच बेहद खूबसूरत हो।मैं ज़िंदगी भर के लिये तुम्हारा हाथ थामना चाहता हूँ।अगर तुम्हें मेरी ये चाहत मंजूर है तो प्लीज़ आज दोपहर 2 बजे गुलाब गार्डन आ जाना।मैं प्रतीक्षा करूँगा।"
अनिमेष आया लेकिन मधुरिमा के हाथ विकलांग छड़ी देखकर उल्टे पाँव लौट आया।
मधुरिमा ह्रदय थामे अनिमेष के आने की राह देखती रही।सांय 7 बजे तक प्रतीक्षा कर एक बुत में परिवर्तित मधुरिमा घर लौट आयी।
अपनी मित्र के कहे शब्द मधुरिमा के कानों में गूँज रहे थे।

अल्पना नागर,नई दिल्ली ✏

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