कहानी
नानी
उनकी खूबसूरत आँखों पर अब उम्र का चश्मा लगा था।काले घेरों नें दूर तक जगह घेर ली थी।चेहरे की रौनक मुरझा गई थी।झुर्रियों नें हक़ के साथ घर बना लिया था।बड़ी देर तक मुझे निहारती रही।मिचमिची आँखों से मुझे पहचानने की कोशिश करती रही जैसे रेत में सुई ढूंढ रही हो।फिर अचानक उनके चेहरे के हावभाव बदल गए।बिस्तर के पास पड़ी अपनी छड़ी उठाकर चलने का प्रयास करने लगी।वो दौड़कर मेरे पास आना चाहती थी लेकिन पैरों नें साथ नहीं दिया।धीरे धीरे क़दम बढ़ा कर आगे आने की कोशिश में थी।मैंने अपना सामान का बैग आँगन में ही छोड़ दिया और दौड़कर उनके पास गई।पैर छुए।उन्होंने मेरा चेहरा अपने हाथों में लिया।खुरदुरे वक्त नें अपना असर उनके हाथों पर भी छोड़ दिया।मुझे उनकी वही बरसों पुरानी अपनेपन से भरी तपिश महसूस हुई।वो बहुत कुछ बोलना चाहती थी।आँखों की नमी से न जाने कितने शब्द झर रहे थे।मगर उस वक्त भावों के उफान में इतना ही बोल पाई, "मंजरी तू?इत्ते बरस बाद?"
मैंने उन्हें चारपाई पर बिठाते हुए कहा,"नहीं नानी,मैं मंजरी नहीं..कोमल हूँ..आपकी मंजरी की सबसे छोटी बेटी।"
"तू तो हूबहू मंजरी लगती है !"नानी का मुँह आश्चर्य से खुला था।
"हाँ,नानी.. सभी यही कहते हैं..कार्बन कॉपी मम्मी की।"
"इत्ती सी थी तू जब बरसों पहले यहाँ आयी थी मंजरी से चिपकी रहती थी..तब बड़ी गोलमटोल थी तू..अब तो सूख गई है मंजरी की जैसे।"
नानी छोटी सी रसोई में सामान ढूंढने लगी।सब कुछ आज भी व्यवस्थित था करीने से लगा हुआ।एक सरसरी नजर मैंने दौड़ाई।दीवारों का रंग धुँए से काला पड़ चुका था,जगह जगह पपड़ी पड़ी हुई थी।सीलन से अधिकांश प्लास्टर उतर गया था।उनपर अख़बार चिपकाया हुआ था वो भी समय के प्रभाव से काला पड़ चुका था।कभी रसोई में रौनक हुआ करती थी वो आज नानी की तरह जर्जर हाल में थी।
नानी के चेहरे से लग रहा था कुछ परेशान थी।"चाय पत्ती भी ख़तम..न चीनी है..सोचा आटे का हलवा ही बना के खिला दूँ तुझे इत्ते बरस बाद आयी है और यहाँ सामान ही ख़तम।"
"तो नानी,रिंकू मामा से बोल देती न.. ले आया करें सामान रसोई का।"मेरी एक नजर बाहर थी।घर के बाकी सदस्यों को ढूंढ रही थी।आँगन के दूसरी ओर मामा रहते थे,फ़िलहाल कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था।इससे पहले कि मैं उनके बारे में पूछती,नानी नें मुझे हाथ मुँह धोकर आने का आदेश दे डाला।
"हैं री.. तू अकेली आयी है..मंजरी क्यूँ नहीं आयी?"
नानी के हाथ में चाय का कप था।कहीं से गुड़ का इंतज़ाम कर चाय बनाई मेरे लिए।स्वाद आज भी वही था।चाय बिल्कुल नानी जैसी थी अपनेपन के स्वाद से भरी।
"ना..मम्मी नहीं आयी।आप तो जानती है न नानी..बड़े वाले मामा से झगड़े के बाद मम्मी सदमे में आ गई।चार साल पहले जब मम्मी यहाँ आयी थी तब बड़े मामा नें कसम दी थी कि कभी इस घर की देहरी नहीं चढ़े।बस तभी से.."
मैं अपनी बात पूरी कर पाती इससे पहले ही नानी का दनदनाता सवाल आया," तो क्या मैं मर गई तेरी माँ के लिए।भाई ही सब कुछ है उसका जो उसकी दी हुई बेसिरपैर की कसम खुदा हो गई?"
मैं नानी का गुस्से में लाल चेहरा देखती ही रह गई।आज से चार साल पहले मम्मी नानी से मिलने आयी थी।मैं होस्टल में थी इसलिए आना नहीं हो पाता था,ऊपर से मामा मामी का रुखा व्यवहार।मम्मी जब भी अपने मायके जाकर आती,हमेशा किसी न किसी बात पर कई दिनों तक परेशान रहती।मम्मी और मैं सहेली ज्यादा थे इसलिए अधिकतर बातें मुझसे ही साझा करती थी।मुझे याद है किस तरह पिछली बार बड़े मामा नें मम्मी से बदतमीजी की थी।संपत्ति खून के रिश्ते तक भुला देती है।
"कह देना तेरी माँ से..मेरे ऊपर जाने का इंतज़ार न करे।कम से कम एक बार तो आकर मिले।"मेरी चुप्पी को ताड़ते हुए नानी नें कहा।
"कैसी अशुभ बातें कर रही हो नानी,आप कहीं नहीं जा रही हो,अभी तो मेरी शादी भी नहीं हुई।और सबसे बड़ी बात..अभी तो आपकी माँ भी दुरुस्त हैं।अरे हां,याद आया..बड़ी नानी कैसी हैं?बहुत मन कर रहा है उनसे मिलने का।"
बड़ी नानी यानी मेरी मम्मी की नानी अभी जीवित थी।उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता था कि उन्होंने इतनी उम्र ले ली है वो भी बड़ी कुशलता के साथ।चंपा नाम था उनका।जैसा नाम था वैसी ही वो थी सचमुच बहुत सुंदर..सादगी की देवी,गुणवती स्त्री।मुझे याद है बचपन में जब उनके घर मिलने जाया करते थे एक अलग ही तरह का चाव होता था,कारण था उनका छोटा लेकिन साफ़ सुथरा घर।घर की एक एक चीज किसी संग्रहालय में रखी बेशकीमती वस्तु की तरह बड़े यत्न के साथ रखी होती थी।नानी और बड़ी नानी एक ही कस्बे में रहते थे।बड़ी नानी का घर थोड़ा दूर था लेकिन पैदल भी जाया जा सकता था,रास्ते के मोहक दृश्य,हरियाली,कस्बे वासियों का रहन सहन बरबस ही अपनी ओर खींच लेता था।बड़ी नानी का घर थोड़ी ऊँचाई पर बना हुआ था।अंदर छत पर लकड़ी की शहतीरें,मिट्टी और गोबर से लीपा पुता एकदम साफ सुथरा आँगन बड़ी नानी के घर को अलग ही पहचान देते थे।मुझे याद है हम लोग बचपन में नानी के घर से ज्यादा बड़ी नानी के घर जाने को उतावले रहते थे।केरोसिन के स्टॉव पर नानी की बनाई बड़ी बड़ी रोटियों और अचार में न जाने कैसा स्वाद था,जो एक बार खाने बैठते थे तो उठने का नाम ही नहीं लेते थे।बड़ी नानी का वो ऐतिहासिक रेडियो जिसपर वो नियत समय पर गाने और समाचार सुनती थी।उस रेडियो के लिए भी उनके मन में इतना प्यार था कि सुनहरे गोटे की सुंदर सी झालर से उसे सजाया हुआ था।सच एक एक चीज जादुई थी।वो ननिहाल की विशेष गंध जब भी स्मृति में प्रवेश करती है हर एक निर्जीव वस्तु भी महकने लगती है सजीव हो उठती है।
बड़ी नानी के एक ही संतान थी और वो थी मेरी नानी।बड़े ही नाजों से नानी को पाला पोसा गया था।कोई हिस्सेदार जो नहीं था प्यार का !बड़े नाना एक उम्र के बाद चल बसे थे,अफीम के बेतहाशा शोक की वजह से उन्हें समय से पहले ही इस दुनिया से अलविदा कहना पड़ा।बड़ी नानी के लिए अकेले समय काटना अब बेहद मुश्किल था।वो जी तो रही थी लेकिन कोई उत्साह नहीं बचा..बस जैसे तैसे समय काट रही थी।
इधर नानी के पुत्र संतान होते हुए भी वो निरीह जीवन जीने को मजबूर थी।समाज का ये पूर्वाग्रह कि पुत्र बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती उस वक्त मुझे सबसे अधिक कचोट रहा था..नानी की फटेहाल आर्थिक स्थिति..वृद्धावस्था में नितांत अकेलापन ये सब देखकर लग रहा था कि क्या सचमुच जिस पुत्र संतान की अभिलाषा में समाज इतने वर्षों से एक ही ढर्रे पर चलने को मजबूर होता है..उसे मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र द्वार समझता है जिसके समुचित लालन पालन के लिए माता पिता जीवन पर्यन्त कड़ा संघर्ष करते हैं वही पुत्र वयस्क होने पर उन सब बातों पर पानी फेर देता है !लिंग आधारित दोहरापन कठोर अनुभव होने पर भी नहीं मिट पाता।लंबे समय से ऐसा होता आ रहा है फिर भी पुत्र मोह छूट नहीं पाता।ये सब बेहद अजीब है !
खैर ये सब सोचते सोचते कब मुझे झपकी आ गई कुछ पता नहीं चल पाया।शायद थकान का असर था।जब उठी तो पता लगा नानी नें एक पतला सा चादर मुझ पर डाल दिया था।
मुझे नानी के पास एक अलग ही सुकून का अनुभव हो रहा था।मुस्कुराते हुए नानी का चेहरा दिखा।वो मुझे बाजार चलने का आग्रह करने लगी।मुझे फिर से पुरानी यादों को जीने का अवसर मिल रहा था।फट से तैयार हो गई।नानी पुरानी संदूकची में कुछ ढूंढ रही थी।बहुत ही पुराने तुड़े मुड़े कुछ नोट रखे थे जिनमे कपूर की गोलियों की महक घुल गई थी।नानी नें उत्साह से मेरी ओर देखा।
बाज़ार जाने पर नानी में अंदर छुपा कोई बच्चा निकल कर बाहर आ रहा था।उनकी आँखों की चमक यकायक बढ़ गई।कभी कचोरी वाले के ठेले पर तो कभी मिठाई वाले के यहाँ..लग रहा था कि जैसे अरसे बाद नानी नें घर से बाहर कदम रखा था।वो जिद कर करके मुझे बहुत सी खाने की चीजें खिला रही थी।इस बहाने वो खुद भी मनपसंद चीजें खा रही थी।घर जाते जाते भी थैले में बहुत से फल ले लिए।रास्ते मे लौटते वक़्त एक पुराने मंदिर में भी हम कुछ देर ठहरे।बचपन की स्मृतियां जीवंत हो उठी।मंदिर परिसर के कबूतर आज भी उसी तरह बेख़ौफ घूम रहे थे।मम्मी के साथ परिक्रमा करते यादों के पदचिन्ह आज मेरे साथ पुनः चल रहे थे।नानी के चेहरे पर खुशी देखकर असीम तृप्ति का अनुभव हो रहा था।तभी एक विचार मन में उठा।
"नानी,क्या ये संभव नहीं कि आप और बड़ी नानी एकसाथ रहें..?"धीमे से मैनें कहा।
कुछ देर की चुप्पी के बाद नानी नें कहा।
"संभव तो है पर ऐसा कहाँ होता है बेटा.. विवाह के बाद स्त्री का घर परिवार ही उसका अपना होता है।यही परम्परा है।"
"और अगर उस घर परिवार की दीवारों में ही अंदर से सीलन और पपड़ियां पड़ गई हों तो..मरम्मत की कोई गुंजाइश न बची हो..क्या तब भी परम्परा का निर्वाह जरूरी होगा..!"नानी की आँखों में आँखें डाल मैनें पूछा।
इस बार नानी के पास कोई जवाब न था।नजर भर उन्होंने मुझे देखा,थोड़ी नमी झलक आयी थी जैसे कि उनकी आँखों में कैद कोई नदी तटबंध तोड़ आगे बढ़ना चाहती थी..
घर पहुँचने पर देखा दोनों मामा बरामदे में इधर से उधर चक्कर लगा रहे थे।हमें दरवाज़े पर देखते ही चिल्लाना शुरू कर दिया जैसे कि आसमान फट गया हो।बड़े मामा नानी की तरफ मुँह करके पूछने लगे," कहाँ गई थी कम से कम सुगंधा को तो बताकर जाती !"मामा की आँखों में नानी के लिए चिंता कम अकड़ ज्यादा दिख रही थी।
"गई थी सुगंधा को बोलने।वापस लौट आयी कमरे के बाहर से ही,अंदर उसकी सहेलियां थी,शायद कोई किटी चल रही थी।"नानी नें सहज भाव से उत्तर दिया।"और वैसे भी बेटा तेरे पिता के गुजर जाने के इतने वर्षों बाद आज पहली बार घर से बाहर गई थी।"कहकर नानी अपने कमरे में चली गई।
कमरे में जाकर नानी नें अटारी पर रखी संदूकची को टटोला।मेज पर रखी नाना की तस्वीर उसमें रखी।कुछ रोजमर्रा के जरूरी सामान भी रखे।मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था।मैं चुपचाप देखे जा रही थी।तभी नानी नें चुप्पी तोड़ते हुए कहा,"अब क्या खड़ी खड़ी सोचती ही रहेगी..! चलना नहीं है क्या तेरी बड़ी नानी के पास..!"
मुझे यक़ीन नहीं हो रहा था।एक पल को मुझे लगा ये कोई सपना है।मैं बस नानी के गले लग गई।
तटबंध टूट चुके थे।एक खिलखिलाती प्रवाहमान नदी अपने रास्ते थी..
अल्पना नागर
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