Friday, 16 October 2020

थका हुआ दिन

 थका हुआ दिन


थका हुआ दिन 

आँखें मूंदे

पीठ करके बैठा है

पश्चिम की नौका पर

किसी अंजान नाविक के भरोसे/

पनीला आसमान 

छिड़कता है चंद बूँदें

शरारत की

दिन के क्लांत चेहरे पर/


उनींदा दिन मुस्कुराता है

और घुलने लगता है

पनीले आसमान में सिंदूरी रंग

दिन के कपोल से छूटकर..

थोड़ी और फैल जाती है

सूरज की बिंदी 

आसमान के शुभ्र ललाट पर/


ये जानते हुए भी कि

पश्चिम की नौका

डूबा देगी उसे अंततः

किसी अंधेर गुफा में/

वो चुनता है भरोसा 

उसी अदृश्य नाविक पर!


अंधेर गुफा

जहाँ एक एक कर इक्कट्ठे होते हैं

अधूरी इच्छाओं के टूटते तारे

प्रार्थनाओं के जुगनू

आस्थाएं और

चमकीले शब्द/

गुफा की छत पर

उल्टे टंगे होते हैं

किसी चमगादड़ की तरह


इस सबके बावजूद

थका हुआ दिन

जारी रखता है अपनी

एकांत यात्रा/

वो तोड़ता है गुफा से चिपके 

टूटे हुए तारे..

प्रार्थनाएं..

आस्थाएं..

एक एक कर भरता है

अपनी नौका में/

न जाने क्यों 

ठीक उसी वक्त बेनूर नौका

जगमगा उठती है..

निशा के अंतिम छोर पर

बिखरा होता है

दूधिया उजाला/


थका हुआ दिन 

अब नहीं है थका हुआ

वो लगाता है डुबकी 

समर्पण की झील में..

अर्घ्य देता है

नए जीवन को

हर सुबह/

वो दोहराता है

यही क्रम हर रोज

पश्चिम की नौका के

ठीक सामने..!


-अल्पना नागर






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