*प्रवासी यात्रा*
*विधा- छंदमुक्त*
प्रवासी यात्रा
आसान न था इस बार
पुनः स्थापित होना
चैत्र से अब तक की दूरी
अनंत मीलों को समेटे हुए थी/
शीशे की दीवारों से झाँकते
तुम सुरक्षित लोग
मुझे देख रहे थे
स्वयं को विसर्जित होते..
एक नदी उमड़ी थी
आँखों के कोर से
मन के तटबंधों को तोड़
मुझे समूचा समाहित करने को/
तुम्हारे चारों ओर
सुरक्षा के ठोस इंतज़ामात के बाद
मुझे डूबना था !
और यक़ीनन मैं डूब गई
असुरक्षा के अथाह समंदर में/
अनेकानेक अदृश्य हाथों नें
धकेला था मुझे..!
एक बार पुनः मेरे समक्ष हैं
करबद्ध समूह और
सजी हुई चौकी..
मन खिन्न है/
आपादमस्तक उद्विग्न है
पर..माँ हूँ न !
ठोस अस्तित्व और
संतति के भार को
कछुए की तरह
ढोती आयी हूँ/
हर बार दौड़ी चली आयी हूँ,
बस एक निवेदन है
इस बार मत देखना मेरे तलवे
कंजक भोज के समय/
कि महावर की जगह
रक्त बहता दिखेगा !
मत ओढ़ाना मुझे
गोटे लगी लाल चुनरी/
कि मेरी झुलसी आत्मा को
ये ढक नहीं पाएगी..
मुझे भय है
तलवों पर चिपकी
दुत्कार की पिघली डामर
और सदी जितने प्रवासी ज़ख्म
तुम्हारे हाथ मैले कर देंगे
इतने मैले कि
नहीं ठीक कर पायेगा
मंहगे से महंगा
सेनेटाइजर भी..
-अल्पना नागर
बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार 💐😊
Deleteजी बहुत शुक्रिया।मैनें देखने में थोड़ा विलंब कर दिया।
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