Sunday, 4 October 2020

चैरेवेति

 चैरेवेति चैरेवेति


मैं जैसे निरर्थक के ढेर में

अर्थ खोज रही हूँ,

दौड़ रही हूँ बहुत तेज

मगर पाँव जैसे जम चुके हैं 

किसी अंजान भय की सांकलों से/

पसीने से तरबतर

मेरी आत्मा

खोज रही है 

उपनिषद के आख्यानों में

चैरेवेति का अर्थ..!


मैं महसूस कर सकती हूँ

मेरी उँगलियों में

रुके हुए रक्त का जमाव/

घड़ी की सुइयों का आगे बढ़ने से इंकार

मैं सुन सकती हूँ/

मेरी सुन्न आँखों के कोटर से

उड़ चुके हैं स्वप्न विहग

किसी सुरक्षित स्थान की तलाश में

मैं देख सकती हूँ उन्हें 

दूर जाते हुए..!


अधूरे स्वप्न होते जा रहे हैं विस्तृत

ब्रह्मांड के अज्ञात भाग की तरह..

न कोई छोर न कोई केंद्र

न कोई आदि न कोई अंत..!

अँधेरा युग है मगर

तलाशने हैं अभी

नए प्रकाश स्तंभ

ताकि जारी रहे

चैरेवेति की अनंत यात्रा..


भीतर और बाहर की

इन सब उथल पुथल के बीच

कोई फीनिक्स ले रहा है जन्म

राख हुए समय की ढेरी से/

मैनें देखा

अभी अभी गिरा है

आखिरी पेड़ की शाख से

एक पीला जर्द पत्ता

मिट्टी के रंग का पत्ता

मिट्टी में मिलने को आतुर !

वो जाएगा अंततः

मिट्टी बन रेंगता हुआ

पेड़ की जड़ों तक/

फिर दौड़ेगा पुनः इसी की नसों में..

पेड़ की शाख से

अभी अभी फूटी 

नन्ही कोंपलों से सुनाई दे रहे हैं

फिर वही शब्द..

चैरेवेति चैरेवेति !


अल्पना नागर





No comments:

Post a Comment