Saturday, 31 October 2020

चाँद की बातें

 चाँद की बातें


धूल धक्कड़ और धुंध के इस दौर में

जबकि आधी दुनिया

लपेट कर घूम रही है

बेरुखी का आवरण/

तुम उतर आये जमीन पर

किसी नाविक की तरह

धुंध की नदी को चीरते हुए

चांदनी की खीर हाथों में लिए

फीके मन को मीठा करने..!

कल शरद पूर्णिमा थी

मेरी जुबां पर ठहर गई है

वही तुम्हारी

मद्धिम मिठास !


कल देखा 

आसमां में आधे थे तुम

आधे बह रहे थे जमीन पर !

तुम्हारी दूधिया झिलमिल रोशनी में

प्रेम की लहरें कर रही थी नर्तन

कितना अलौकिक !

तुम हर तरफ से झाँक रहे थे

खिड़कियों से..पत्तों की ओट से,

बंद दरवाजे की दरारों से/

हर चेहरे पर खिला था बस

तुम्हारा प्रतिबिम्ब !


कमाल है मगर !

तुम्हारे मद्धिम प्रकाश में

सुनाई दे रही थी

मृत त्वचा के नीचे सांस लेती

नीली नसों की जिंदा धड़कनें/


मन की सीली सीढ़ियों पर 

गीले पाँव

चढ़ते उतरते तुम

रात की अंधेरी बावड़ी में

देर तक पैर लटकाए

मना रहे थे

अपने होने का उत्सव/


ये सच है

बेइंतहा रोशनी लेकर आती है

चौंधियाता अँधेरा !

भयंकर रोशनी के इस दौर में मगर

मुझे तलब होती है

बित्ति भर रोशनी की

बस उतनी ही

चांदनी जितनी..!


-अल्पना नागर




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