Saturday, 3 October 2020

समाज और मुखौटा

 समाज और मुखौटे


समाज और मुखौटों का चोली दामन का साथ है।अगर आप सामाजिक हैं तो हर समय मुखौटा साथ रखना होगा,कभी किसी को संतुष्ट करने के लिए तो कभी स्वयं का कोई कारज सिद्ध करवाने के लिए।कई बार ऐसा भी होता है हर वक्त मुखौटे लादे रहने से मुखौटों की आदत सामान्य प्रतीत होने लगती है,जैसे आजकल के मास्क।शुरू में दम घुटता हुआ महसूस होता था लेकिन अब आदत हो गई है और अब तो नवीन शोध के मुताबिक मास्क प्रतिरक्षण तंत्र को मजबूत करने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं।खैर,हमें आज की चर्चा में मास्क का गुण दोष अवलोकन नहीं करना है बल्कि मास्क के ही पूर्वज मुखौटों के बारे में चिंतन करना है।

समाज में जिन मुखौटों का चिरकाल से उपयोग किया जाता रहा है,वो एक धरोहर की तरह हर बार अगली पीढ़ी को साबुत खिसका दिया जाता है,बिना एक भी धागा उधेड़े! पूरी एहतियात बरती जाती है इस कार्य में..लेकिन अब जो वर्तमान पीढ़ी है उसने उन तमाम पुराने मुखौटों के विरुद्ध विद्रोह खड़ा कर दिया है..नहीं नहीं आप गलत समझ रहे हैं।ऐसा नहीं है कि आज की पीढ़ी को मुखौटों से सख्त गुरेज है अपितु वो इसके कई 'वर्जन' लेकर आये हैं..पूरी तरह 'अपडेटेड' संस्करण ! अब जैसी मर्जी आये मुखौटे हाजिर हर मौके हर मौसम के हिसाब से..और तो और आज की पीढ़ी नें कुछ नवीन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भी ईजाद कर लिए हैं सुविधा के लिए वहाँ जैसे मर्जी आये मुखौटा पहनो,अभिनय करो।इतने सारे रंगीन 'फिल्टर' कि आत्मा हरी हो जाये! कोई रोकने टोकने वाला नहीं क्योंकि अधिकांश लोग वहाँ मुखौटाधारी हैं।एक जैसे लोगों के साथ अपनेपन की 'फील' आती है।कई बार आपको खुद को पता नहीं होता कि कौन आपके कंधे पर हाथ रखकर मन की सारी पीड़ाएँ बाहर निकलवा लेता है और कब उसे 'वायरल' कर देता है।

समाज में मुखौटों का बहुतायत में प्रयोग हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता रहा है।एक विशेष प्रकार के उतार चढ़ाव वाली चाशनी भाषा का प्रयोग इन मुखौटों के साथ करना अनिवार्य होता है।हमारे प्रतिनिधियों में ये गुण जन्मजात होता है।वो मुखौटा पहनकर किसी की भी आँख का काजल तक चुरा सकते हैं विश्वास तो बहुत छोटी बात है।

बीते कुछ दशकों में देखा गया है मुखौटों से इतना लगाव हो गया है कि एक से बढ़कर एक मुखौटे सामने आ रहे हैं।बाजार भर गया है तरह तरह के प्रसाधनों के मुखौटों से।ये लाली पाउडर इतने 'नैचुरल' लगते हैं कि त्वचा कौनसी है और मुखौटा कौनसा ये फर्क करना मुश्किल हो जाता है।नतीजा ये कि नव पूंजीवाद के इस सुनहरे दौर में हमारा मुखौटा प्रेम भी बचा रह गया और दुकानें भी चल पड़ी।वैसे मन में अगर दृढ़ आस्था हो,समर्पण हो तो कोई रोक नहीं सकता,मुखौटों के प्रति अतिशय प्रेम के बीज हमारे अंदर युगों से हैं।बाजार नें तो बस हल्की फुल्की मदद की है।

सामाजिक मुखौटे थोड़े गंभीर होते हैं।इनमें हास्य के पुट के लिए जरा भी जगह नहीं।स्त्रियों के पास आजीवन मुखौटे होते हैं चाहे जरूरत हो या न हो उन्हें रखने पड़ते हैं।कई बार किरदार बदलने पर तो कई बार परिस्थिति बदलने पर।कभी बच्चों की खातिर तो कभी पति की खातिर।उनके अभिनय का प्रशिक्षण समाज से ही शुरू होता है।

मसलन सास का मुखौटा थोड़ा खींचा हुआ और सपाट होना चाहिए।मन के भाव मुखौटा चीरकर बाहर प्रदर्शित नहीं होने चाहिए।अन्यथा सामाजिक किरकिरी होने के पूरे पूरे योग बन सकते हैं।इसके अलावा समय समय पर डेली सोप के प्रशिक्षण केंद्रों से नवीनतम विचार ग्रहण करते रहने चाहिए।

बहू के मुखौटे में आँख और मुँह वाला हिस्सा बंद रहना चाहिए,इनका कोई विशेष काम नहीं,सिर्फ हल्की सी मुस्कुराहट मुखौटे पर स्थाई रूप से बनी हुई होनी चाहिए।इसके अलावा नाक वाला हिस्सा खुला हुआ होना चाहिए ताकि सांस चलती रहे।और सबसे जरूरी बात उसे उम्दा अभिनय भी आना चाहिए।

समाज में इस दिनों मुखौटों का काम जोरों शोरो से चल रहा है।अब हर घर में आधुनिक मशीनों  से बच्चे बूढ़े सभी स्वयं का मुखौटा तैयार कर लेते हैं।पहले बच्चे इन मुखौटों के जंजाल से मुक्त थे।लेकिन हमें जल्दी थी शीघ्रातिशीघ्र इन्हें बड़ा करने की।भगवान नें जल्द ही सुन ली।अब बच्चों के पास भी एक से एक मुखौटे मौजूद हैं हर जरूरत के मुताबिक।कुछ समय पूर्व तक पड़ोसी देश की मेहरबानी से टॉक टिक पर धड़ल्ले से मुखौटे बिक रहे थे हर गली मोहल्ले में नए नए अभिनेता मुखौटा धारियों की जैसे बहार आ गई थी।अंदर का अभिनय प्रेम हिलोरें मार मार कर मुखौटों संग ताल से ताल मिला रहा था,खैर उसपर फिलहाल शनि की वक्र दृष्टि पड़ी हुई है।टॉक टिक न सही हम अब अपने घरों में ही मुखौटे पहनकर उस दौर को जीवित रखने में पूरा योगदान देंगे।

खैर,मुखौटे कितने ही आकर्षक हों,वो हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं बन सकते।इनकी भी एक वैध सीमा होती है।एक समय बाद ये भी जीर्ण शीर्ण हो जाते हैं,दम घुटना शुरू हो जाता है।शायद पश्चाताप इसी का 'साइड इफेक्ट' है।जब मुखौटा उतरता है तब नजरिया भी बदलता है।समाज का रूप भी बदलता है।दिनभर कितने भी मुखौटे में रहें लेकिन एक समय होता है जब आप मुखौटा उतार फेंकते हैं,चैन की सांस लेते हैं।अकेले में आत्मावलोकन करते हैं,अपनी अच्छाई और बुराई को किसी तटस्थ व्यक्ति की तरह दूर बैठकर देखते हैं।कोशिश करें कि वो समय जीवन में स्थाई हो..न कि उधार लिया हुआ मुखौटा..ताकि सुकून की सांस अनवरत जारी रहे।


स्वरचित एंव मौलिक

अल्पना नागर



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