Sunday 14 June 2020

आलेख

वैश्विक समाज और सांस्कृतिक परिवर्तन

किसी भी देश की संस्कृति उसमें निहित परम्पराओं के माध्यम से परिलक्षित होती है।परम्पराएं वो जो लंबे समय से चली आ रही हैं।किसी देश की धरा में उसकी जड़ें कितनी गहरी हैं इस बात का पता वहाँ के सांस्कृतिक मूल्यों से चलता है।अभी बात चल रही है वैश्विक समाज और उसमें आये सांस्कृतिक परिवर्तनों की।इसके लिए सबसे पहले इस बात को समझना होगा कि क्या संपूर्ण विश्व में बुनियादी बदलाव आ रहे हैं?ऊपरी तौर पर ये तो बिल्कुल स्पष्ट है कि हमारे भौतिक पर्यावरण से लेकर जलवायु तक बेहिसाब परिवर्तन आये हैं,पर क्या सांस्कृतिक जीवन भी बदल रहा है!वैश्विक समाज के मूल्यों में परिवर्तन आ रहा है या नहीं?जवाब है,हाँ।हम तेजी से विश्व की संस्कृतियों को ग्रहण करते जा रहे हैं।विश्व के अन्य देशों में भी सांस्कृतिक बदलाव हुए हैं।हमारी शिक्षा पद्धति से लेकर गीत संगीत,नृत्य शैली,भाषा,जीवन मूल्य आदि सभी संस्कृति की आत्मा कही जाने वाली मूलभूत विशेषताओं में विश्व की सांस्कृतिक गंध घुलती मिलती नजर आ रही है।इस बात में तनिक भी संदेह नहीं कि हमनें आधुनिक जीवन शैली और आचरण पश्चिम से ग्रहण किया है।हमारे जीवन में विद्यमान वर्तमान सुख सुविधाओं के लिए हम पश्चिम के आभारी हैं।निस्संदेह इक्कीसवीं सदी चकाचौंध से भरी गहनतम अँधेरी रात है,वो रात जिसे हम तेज रोशनी के कारण देख नहीं पा रहे।हमें सुख सुविधाएं मिली।हमारी जीवन शैली में गुणात्मक परिवर्तन हुए लेकिन हम सुविधाओं के गुलाम होते चले गए।कई बार लगता है हम सुविधाएं नहीं भोग रहे बल्कि सुविधाएं हमें भोग रही है!ये बात विचारणीय है,आज हमारे पास इतनी अधिक सुविधाएं एकत्रित हो गई हैं कि उन्हें भोगने के लिए न तो वो आनंद ही शेष रहा है और न ही समय।अभी कुछ ही दशक पहले की बात है जब आर्थिक रूप से हर नागरिक उतना अधिक समृद्ध नहीं था जितना आज है लेकिन हमारी आंतरिक ख़ुशी का स्तर समृद्ध था।आज स्थिति बदल गई है।ये वैश्विक सांस्कृतिक परिवर्तन का ही परिणाम है।आज हम भूल गए हैं कि बीसवीं सदी में कोई विवेकानंद नामक युवा विचारक थे जिन्होंने न केवल भारत अपितु संपूर्ण विश्व में हमारे प्राचीन मूल्यों व सांस्कृतिक विरासत की ध्वजा फहराई थी।वो मूल्य जिनके लिए आज भी विश्व भारत को सम्मान भरी दृष्टि से देखता है।ये विडंबना ही है कि आज संपूर्ण विश्व में हमारे प्राचीन मूल्यों को पूरे हृदय के साथ अपनाया जा रहा है,हमारी सांस्कृतिक धरोहर वेद,पुराणों एंव अन्य ग्रंथो का वृहत स्तर पर अध्ययन किया जा रहा है और हम पश्चिम की ओर भाग रहे हैं।खुलेआम मूल्यों का अवमूल्यन कर रहे हैं।मसलन वर्तमान में लिव इन रिलेशनशिप का चलन चल रहा है,जो न केवल हमारे विवाह संस्कार को चुनौती है अपितु रिश्तों में आयी दरार का भी मुख्य कारक बनता जा रहा है।इससे विवाहेत्तर संबंधों को भी खुली छूट मिली है।निश्चित रूप से ये हमारे जीवन मूल्य नहीं हैं वरन उनपर कुठाराघात है।इसके अलावा समलैंगिक विवाह भी परिवर्तित वैश्विक संस्कृति का ही परिणाम है।संयुक्त परिवारों का बिखराव और वृद्धों का तिरस्कार इसी सांस्कृतिक परिवर्तन से संबद्ध है।महानगरीय फ़्लैट संस्कृति नें भावनाएं भी 'फ़्लैट' कर दी हैं।समाज व्यक्ति केंद्रित होता जा रहा है।सामाजिकता वन्य जीवों की तरह दुर्लभ होती जा रही है।वर्तमान में विश्वव्यापी महामारी नें इस नए 'ट्रेंड' पर अपनी मुहर भी लगा दी।अब व्यक्ति और भी अधिक आत्मकेंद्रित होता जा रहा है।संपूर्ण विश्व डिजिटल होता जा रहा है।इंटरनेट सेवा नें लोगों के आचार विचारों में व्यापक परिवर्तन किया है।अब विश्व के किसी भी कोने में घटने वाली घटना से आप तुरंत रूबरू हो सकते हैं,विश्व और आप में महज उँगली भर का फासला रह गया है।सांस्कृतिक परिवर्तन में इंटरनेट सेवा नें काफी इजाफा किया है।कुछ दशक पूर्व तक मनोरंजन के साधन बेहद साधारण किन्तु अपने आप में विशेष थे।समाज में नौटंकी,सर्कस, रंगमंच,नुक्कड़ नाटक,ख्याल आदि के माध्यम से मनोरंजन होता था,लोग एक दूसरे से जुड़ते थे,प्रत्यक्ष रूप से आमने सामने मिलते थे।बच्चों में भी चौपड़ पासा,गिल्ली डंडा,छुपन छुपाई जैसे खेल प्रचलित थे जिनसे न केवल शरीर स्वस्थ रहता था अपितु मानसिक स्वास्थ्य भी दुरुस्त रहता था।टीवी पर भी इक्के दुक्के कार्टून या बालसुलभ कार्यक्रम होते थे जिन्हें देखने के लिए बच्चों में एक अलग ही उत्साह होता था लेकिन चूंकि अब सांस्कृतिक परिवर्तनों की बाढ़ आ गई है,इंटरनेट भी बेहिसाब मनोरंजन के कार्यक्रमों से भर गया है।टीवी चैनलों पर एक से एक दुनिया भर के बाल मनोरंजन के कार्यक्रम मौजूद हैं लेकिन बच्चों का वो उत्साह कहाँ गया! वो आंतरिक प्रसन्नता कहाँ गई !आज का मनोरंजन मन का रंजन नहीं कर पाता उसमें एक कृत्रिमता आ गई है।सब कुछ इतना आसानी से उपलब्ध है कि कोई उत्साह,कोई प्रतीक्षा बची ही नहीं!अजीब बात है,हम सुविधाओं में जितना आगे आये,संतुष्टि में उतना ही पीछे होते गए! आज के बेहद व्यस्त माता पिता भी अपना समय बचाने के लिए बच्चे के हाथ में मोबाइल पकड़ा देते हैं।बच्चा भी एक मशीन की तरह उठते बैठते हर हाल में मोबाइल या इंटरनेट पर कोई खेल चाहता है।
वैश्विक आर्थिक व सांस्कृतिक परिवर्तनों के कारण मानव जाति नें विकास अवश्य किया है लेकिन उसके लिए बहुत बड़ी कीमत भी चुकाई है।पश्चिम का अंधानुकरण करके अकूत सम्पदा एकत्रित कर ली किन्तु फिर भी एक अरसे से आत्मा पर चिपकी हुई दरिद्रता से मुक्त नहीं हो पाए।हमनें देखा कि पश्चिमी लोग मुक्त जीवन जीते हैं,उनकी जीवन शैली आरामदायक और वैभव से परिपूर्ण है लेकिन ये नहीं देखा कि इसके पीछे कितने वर्षों की मेहनत और संघर्ष छुपा है।आज हम देखते हैं कि स्टीव जॉब्स या मार्क जुकरबर्ग बाकी दुनिया से भिन्न क्यों हैं!उन्होंने वर्तमान युग की सारी परिभाषाएं ही बदल डाली।एक अकेला इंसान किस तरह पूरी सदी को अपनी परिधि में ले आता है! ऐसा कैसे संभव है! हम ये सब सोचते रह जाते हैं और वो कुछ नया कर गुजरते हैं।हम सफलता के पीछे भागते हैं,बिना ये परवाह किये कि जो कार्य हम करने जा रहे हैं वो कितना सार्थक है।सफल लोगों नें सफलता को अपना लक्ष्य नहीं बनाया,सच कहें तो उन्होंने परवाह ही नहीं की,उन्होंने संपत्ति बनाने का भी लक्ष्य दिमाग में नहीं रखा, और न ही संसार को बदल देना उनका मिशन रहा,जैसा कि हम सफलता की परिभाषाएं गढ़ते आये हैं उन्होंने कुछ भी वैसा नहीं किया।समाज के बने बनाये फ्रेम से बाहर आकर अपने मन की सुनी,उसके पीछे पीछे चलते गए वो भी पूरे आनंद के साथ,उन्होंने कुछ करने की ठानी,भीड़ से हटकर अपना सार्थक अस्तित्व खड़ा करने का प्रयास भर किया और सफलता खुद ही उनके पास चली आई।सांस्कृतिक परिवर्तन एक दिन का कार्य नहीं है।वर्षों की साधना है।अगर ये सकारात्मक सोच को लेकर की जाये तो दुनिया वैसी ही नजर आएगी,ख़ूबसूरती से बदली हुई।
आज हम जिस राह पर खड़े हैं ,दुर्भाग्य से वहाँ से कोई राह नहीं निकलती।मानव अपने संघर्ष के आखिरी चरण में है।वो जिस तरह अपना जीवन व्यतीत कर रहा है उसे देखकर यही लगता है कि मानव स्वयं अपना अस्तित्व मिटा देना चाहता है।किसी महान विचारक नें कहा भी है कि"अब तक दो विश्वयुद्ध हो चुके हैं लेकिन अगर तीसरा विश्वयुद्ध हुआ तो आगामी युद्ध पत्थरों से लड़े जाएंगे।"समझदार को इशारा काफी है।तीसरा विश्वयुद्ध अगर हुआ तो इतना विनाशकारी होगा कि मानवता बचेगी ही नहीं।एक बार पुनः आदिम युग की उत्पत्ति होगी।अब यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह अपना अस्तित्व बचाये रखना चाहता भी है या नहीं! यदि जवाब हाँ है तो जीवन शैली और व्यवस्था में वृहत स्तर पर परिवर्तन करने होंगे।हमें बुद्धिमता से साधन चयन करने होंगे,वो चयन ही मानव के अस्तित्व के दिन निर्धारित करेगा।अब तय यह करना है कि विकास किस हद तक आवश्यक है।विज्ञान की अंधाधुंध प्रगति आवश्यक है या उसका सार्थक उपयोग! सांस्कृतिक परिवर्तन निर्धारित करेंगे कि एक अकेले राष्ट्र का उत्थान आवश्यक है या समूची मानव प्रजाति! लाभ जरुरी है या सामूहिक हित।वर्तमान में सारा विश्व एक अजीब से झंझावात से गुजर रहा है।महामारी के रूप में हमारी आधुनिक जीवन शैली हमें ही डस रही है।कयास लगाये जा रहे हैं कि इस विश्वव्यापी विनाश के पीछे किसी राष्ट्र की सोची समझी साजिश है,महामारी एक तरह का जैविक हथियार बना कर फैलाई गई है।ये अभी शोध का विषय है।आरोप प्रत्यारोप साबित होने तक कोई भी अनुमान व्यर्थ हैं।लेकिन इस विषय में सोचकर ही रूह कांप जाती है कहीं सचमुच इस तरह के युद्ध होने लगे तो क्या शेष बचेगा!हर राष्ट्र नें अपनी सुरक्षा के लिए इस तरह के जैविक और रासायनिक हथियार ईजाद किये हुए हैं।खैर,सारी दुनिया के विचारक और प्रबुद्ध वर्ग इसी प्रयास में लगे हुए हैं कि ऐसी नौबत न आये।इसीलिए सांस्कृतिक परिवर्तनों को सकारात्मक दिशा देने के प्रयास किये जा रहे हैं।
हमें डर और हिचक के साए से दूर रहकर नए प्रतिमान रचने होंगे।सार्थकता को अपना संगी बनाना होगा।हमें पश्चिम का अंध भक्त बनने से बचना होगा।वहाँ से बहुत सी अच्छी बातें सीखी जा सकती हैं।किसी भी कार्य के प्रति प्राणांतक लगन व एकाग्रता के साथ जुट जाना हमें पश्चिम से सीखना होगा।हमें व्यर्थ के जड़ तत्वों से स्वयं को मुक्त करना होगा,प्राचीन भारत के दर्शन और जीवन मूल्यों को एक बार पुनः रोशनी में लाना होगा उन्हें समुचित स्थान देना होगा।आधुनिक होना बुरा नहीं है,लेकिन आधुनिकता मूल्यवान और सार्थक होनी चाहिए।सभ्यता के जिस चरण में हम रह रहे हैं उसे एक अरसे पहले गाँधीजी नें मशीनी सभ्यता का नाम दिया था।पुरातन ग्रंथो में जिस युग की 'कलयुग' नाम से कल्पना की गई थी वो अपने अद्यतन रूप में हमारे सामने है।मानव सभ्यता द्वारा किये जा रहे उपभोग और विकास की लंबी यात्रा अब उस चरण में पहुँच चुकी है जहाँ से उसका संघर्ष किसी व्यक्ति,विचार या समाज से नहीं रह गया है अपितु अब उसकी सीढ़ी टक्कर स्वयं प्रकृति से है।ये दुःखद है कि अब तक मानव सभ्यता की विकास यात्रा को मनुष्य और प्रकृति के बीच संघर्ष से देखा गया है जिसमें मनुष्य नें प्रकृति पर विजय पाकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की।आदिम युग की मानव सभ्यता इतिहास बन चुकी है,प्रकृति से उसका संघर्ष उसके स्व अस्तित्व की रक्षा के लिए अनिवार्य था लेकिन आज जब आदिम युग के पन्ने पलट चुके हैं इंसान कई युग आगे निकल आया है तब भी उसके स्वयं के आत्मघाती क़दमों के कारण उसके अस्तित्व की रक्षा की अनिवार्यता महसूस की जा रही है।मनुष्य का प्रकृति से कोई संघर्ष नहीं हो सकता।मनुष्य और प्रकृति के बीच संघर्ष हो भी नहीं सकता।इंसान कभी प्रकृति से जीता नहीं,ये प्रकृति को देखने का गलत नजरिया है।इस बात को हम सीधे तौर पर इस तरह देख सकते हैं कि इंसानी सभ्यता का उद्भव प्रकृति की कंदराओं में हुआ लेकिन धीरे धीरे इंसानी बुद्धि हावी होने लगी।उसे विकास की जरुरत महसूस हुई और उसने स्वयं को प्रकृति से विलग कर लिया।एक समय ऐसा आया कि दोनों एक दूसरे से अजनबी ही गए।इंसान की उपलब्धियों में नए नए अविष्कार सुख सुविधाएं उपभोग की वस्तुएं जुड़ती चली गई वह प्रकृति से अंततः कटता चला गया।इस अलगाव नें इंसान की मूलभूत आत्मा को नष्ट कर दिया।प्रकृति से अलगाव पर इंसान को आखिर क्या मिला! देखा जाये तो कुछ नहीं,वह शनै शनै एकाकी आत्म केंद्रित और कुंठा ग्रस्त होता चला गया।अब समय आ गया है कि इंसान एक बार पुनः अपनी इस यात्रा पर चिंतन करे।यह न केवल इंसानी सभ्यता के लिए अपितु स्व अस्तित्व की रक्षा के लिए भी अपरिहार्य है।जरुरी नहीं कि इंसान इसके लिए अपनी अब तक की सभ्यता यात्रा को स्थगित करे या विनिष्ट करे।वह अपनी अब तक की उपलब्धियों के साथ भी आगे बढ़ सकता है लेकिन उसे तारतम्य बिठाना होगा प्रकृति और स्वयं के बीच ताकि टकराव की स्थिति उत्पन्न न हो।मनुष्य अपने द्वारा बनाये जिन सांस्कृतिक परिवर्तनों के साथ खड़ा है उससे आगे का रास्ता बंद हो चुका है,उसे अंतिम सत्य की ओर लौटना होगा तभी सही मायने में विकास यात्रा संपूर्ण मानी जायेगी।

अल्पना नागर

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